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भारतीय नृत्य के आराध्य  न ट रा ज

भारतीय नृत्य के आराध्य न ट रा ज

by निहारिका पोल
in नवम्बर २०१९, साहित्य
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भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र की नींव रखी और भगवान शिव अर्थात नटराज बन गए संपूर्ण भारतीय नृत्य के आराध्य दैवत। नटराज अर्थात नाट्य और उससे संबंधित कलाओं पर राज करने वाला, याने नटराज। नृत्यकला नाट्य के बिना अधूरी है और नाट्य नृत्यकला के बिना अधूरा है।

आंगिकम भुवनम यस्य

वाचिकं सर्व वाङ्ग्मयम

आहार्यं चन्द्र ताराधि

तं नुमः (वन्दे) सात्विकं शिवम्

भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र का यह प्रसिद्ध श्लोक अभिनय के चारों अंगों को दर्शाते हुए भारतीय नृत्य के बारे में केवल चार पंक्तियों में काफी कुछ कह जाता है। जब बात भारतीय नृत्य की होती है, तो भगवान शिव के बिना यह संभव ही नहीं है। भारतीय नृत्य फिर चाहे वह कोई भी नृत्य हो- कथक, भरतनाट्यम्, कुचिपुड़ी, मणिपुरी, ओडीसी कोई भी- इनके आराध्य दैवत माने गए हैं भगवान शंकर, जिनके नर्तक रूप को नटराज कहा जाता है। जिनके अंग में संपूर्ण सृष्टि समाई हो, जिनकी वाचा में संपूर्ण वाङ्मय का समावेश हो, जिन्होंने चंद्र तारे आदि के आभूषण परिधान किए हों, ऐसे सात्विक शिव को मैं नमन करता हूं, ऐसा कह कर भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र की नींव रखी और भगवान शिव अर्थात नटराज बन गए संपूर्ण भारतीय नृत्य के आराध्य दैवत।

भारतीय नृत्यों पर पुराणों का और प्राचीन काल के देवी देवताओं संबंधी मान्यताओं का बहुत प्रभाव रहा है। उदाहरण के लिए दक्षिण भारत में प्राचीन काल के मंदिरों में किया जाने वाला नृत्य भरतनाट्यम् हो, या उत्तर भारत के ‘कथा कहे सो कथिक कहलाए’ से उत्पन्न हुआ कथक। इन सभी शास्त्रीय नृत्यों में भगवान नटराज का विशेष महत्व रहा है। प्राचीन पौराणिक कथाओं से जन्मी इस कला में भस्मासुर मोहिनी हो, या भगवान शंकर द्वारा किया गया तांडव हो, बहुत महत्व रखता है। और इसीलिए भगवान शंकर को भारतीय नृत्य का आराध्य दैवत कहा गया है।

जब हडप्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई हुई तो उनमें मिली मूर्तियों में एक मूर्ति नटराज की भी थी। अर्थात यह नृत्य कला कितनी प्राचीन है, इसके बारे में अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारे पुराणों में अनेक कथाएं ऐसी हैं, जो भगवान शंकर और नृत्य के इस अटूट संबंध को दर्शाती है, कहा जाता है कि नृत्य की उत्पत्ति भस्मासुर मोहिनी की कथा से हुई है। आप सभी को यह कथा क्या है यह तो अवश्य पता होगा। भस्मासुर नाम के राक्षस ने कड़ी तपस्या कर शिव का ध्यान किया, भगवान शंकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे मनचाहा वरदान देने का निर्णय लिया। भस्मासुर ने वरदान मांगा कि वह जिसके सिर पर हाथ रखेगा वह राख हो जाए। भगवान शिव उसे वचन दे चुके थे इसलिए उन्होंने उसे यह वरदान दिया और फिर भस्मासुर उस वरदान को परखने के लिए भगवान शिव को ही भस्म करने निकल पड़ा। भगवान शिव ने विष्णु का ध्यान किया। भगवान विष्णु को जब सत्य पता चला तब उन्होंने मोहिनी का रूप धारण किया और नृत्य करने लगे। इतनी सुंदर स्त्री को नृत्य करता देख भस्मासुर भी उसे देख देख वैसा ही नृत्य करने लगा। आखिर जब मोहिनी ने अपने सिर पर हाथ रखा तो भस्मासुर ने भी वैसा ही किया और वह स्वयं भस्म हो गया। अर्थात शिव के दिए वरदान के बाद ही ये सब हुआ, इसलिए सृष्टि में नृत्य की उत्पत्ति के लिए भगवान शिव का नाम लिया जाता है। भगवान शिव के उस वरदान के कारण ही सृष्टि में नृत्य का जन्म हुआ और भगवान शिव इस नृत्य के आराध्य दैवत बन गए।

ऐसा कहा जाता है, भगवान शिव का नृत्य तांडव नृत्य होता है, और माता पार्वती का लास्य। जो ऊर्जा से भरा नृत्य है वह तांडव और जो कोमलता और नजाकत से भरा नृत्य होता है वह लास्य। भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में तांडव एवं लास्य का विशेष महत्व रहा है। कोई भी शास्त्रीय नृत्य तांडव और लास्य इन्हीं दो भागों में बांटा जाता है। उदाहरण के लिए, कथक में नृत्य पक्ष जिसमें केवल बोल होते हैं, तांडव के अंग को प्रदर्शित करता है, और नृत्य पक्ष जिसमें अभिनय होता है, लास्य के अंग को। लेकिन यह विभाजन बहुत ही साधारण सा हो गया। भारत के किसी भी शास्त्रीय नृत्य की रचना में भगवान शिव के संपूर्ण व्यक्तित्व की झलक दिखाई पड़ती है।

नटराज: अक्सर ऐसा प्रश्न किया जाता है कि भगवान शंकर का नाम नटराज क्यों रखा गया? या उन्हें कलाओं का खासकर नृत्य कला का आराध्य दैवत क्यों कहा जाता है? इसका उत्तर उनके इस नाम में ही छिपा हुआ है। नटराज अर्थात नाट्य और उससे संबंधित कलाओं पर राज करने वाला, याने नटराज। नृत्यकला नाट्य के बिना अधूरी है, भाव भंगिमाओं के बिना अधूरी है। नाट्य में नृत्य और नृत्य में नाट्य का समावेश अपरिहार्य है। और इसीलिए भगवान शंकर का ‘नटराज’ रूप कलाओं की दृष्टि से आराध्य है।

नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति की चार भुजाएं हैं, उनके चारों ओर अग्नि के घेरे हैं। एक पांव से उन्होंने एक बौने (अकश्मा) को दबा रखा है, एवं दूसरा पांव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। उन्होंने अपने पहले दाहिने हाथ में (जो कि ऊपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। डमरू की आवाज सृजन का प्रतीक है। इस प्रकार यहां शिव की सृजनात्मक शक्ति का द्योतक है। ऊपर की ओर उठे हुए उनके दूसरे हाथ में अग्नि है। यहां अग्नि विनाश का प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से सृजन करते हैं तथा दूसरे हाथ से विलय। उनका दूसरा दाहिना हाथ अभय (या आशीष) की मुद्रा में उठा हुआ है जो कि हमारी बुराइयों से रक्षा करता है।

उठा हुआ पांव मोक्ष का द्योतक है। उनका दूसरा बाया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है। इसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि शिव के चरणों में ही मोक्ष है। उनके पांव के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं। चारों ओर उठ रही आग की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। उनके शरीर पर से लहराते सर्प कुण्डलिनी शक्ति के द्योतक हैं। उनकी संपूर्ण आकृति ॐ कार स्वरूप जैसी दिखती है। यह इस बात को इंगित करता है कि ॐ शिव में ही निहित है।

शिव तांडव

आपने अनेकों बार शास्त्रीय नृत्य में नर्तक नर्तिकाओं को ‘शिव तांडव स्तोत्र’ अर्थात ‘जटा टवी गल ज्जल प्रवाह पावितस्थले’ इस पर नृत्य करते देखा होगा। शिव तांडव स्तोत्र आपमें से अनेकों को कंठस्थ होगा और इसके शब्द एक अलग ऊर्जा का निर्माण भी करते होंगे। लेकिन वास्तव में यह तांडव है क्या? कहा जाता है जब भगवान शिव क्रोधित होते हैं, अपनी तीसरी आंख खोलते हैं, तब वे तांडव नृत्य करते हैं। मात्र यही पूर्ण सत्य नहीं है। शिव के तांडव के भी प्रकार हैं, जब वे आनंदित होते हैं, आनंदित होकर नृत्य करते हैं, तो उनके नृत्य में दिखाई पड़ता है आनंद तांडव, जब वे क्रोधित होते हैं, तो रुद्र तांडव के दर्शन कराते हैं। संगीत रत्नाकर में लिखी जानकारी के अनुसार तांडव नृत्य के सात प्रकार हैं-

  1. आनंद तांडव
  2. संध्या तांडव
  3. कलिका तांडव
  4. त्रिपुरा तांडव
  5. गौरी तांडव
  6. संहार तांडव
  7. उमा तांडव

आनंद तांडव शिव तब करते हैं, जब वे आनंदित भावमुद्रा में हों। संध्या तांडव में भगवान शिव रत्नजड़ित मुकुट पार्वती को देकर नृत्य आरंभ करते हैं। यह नृत्य संध्या के समय किया जाता है, और ऐसा विदित है कि जब शिव संध्या तांडव कर रहे होते हैं, तो सभी देवी देवता विविध वाद्यों का वादन कर इस नृत्य में सहभागी होते हैं। सातों तांडव प्रकारों में संहार तांडव, गौरी तांडव और उमा तांडव सबसे रौद्र माने जाते हैं। भगवान शिव के इस तांडव का नृत्य क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान रहा है।

भारतीय नृत्य में अर्धनारीनटेश्वर रूप की प्रस्तुति भी की जाती है। और यह बहुत ही विलोभनीय होती है। जब भगवान शंकर और माता पार्वती एकरूप धारण करते हैं तो उसे अर्धनारीश्वर कहा जाता है। अर्धनारीश्वर शिवशक्ति के रूप में अनेक रचनाएं प्रसिद्ध हैं, जिस पर भारतीय शास्त्रीय नृत्य प्रस्तुत किया जाता है।

भारत में प्राचीन नृत्यकलाओं का जन्म मंदिरों से ही हुआ है। और नृत्य के आराध्य दैवत नटराज का एक प्रसिद्ध मंदिर अनेक कहानियां बयां करता है। दक्षिण भारत में स्थित ‘चिदंबरम मंदिर’ भगवान शिव के ‘नटराज’ रूप को प्रदर्शित करने वाला मंदिर है। वैसे तो भगवान शिव के अनेकों मंदिर भारत में हैं, जिनमें 12 ज्योतिर्लिंगों का स्थान विशिष्ट है। देश के 5 पवित्र शिव मंदिर, जो कि पंचतत्वों का दर्शन देते हैं, उनमें से चिदंबरम मंदिर भी एक है और यह आकाश का महत्व दर्शाता है। इस मंदिर में अन्य शिव मंदिरों की तरह शिवलिंग के साथ ही भगवान शिव की ‘नटराज मूर्ति’ अर्थात नृत्यावस्था में भगवान शिव की मूर्ति है। आज भी यह मंदिर अनेक श्रद्धालुओं का देवस्थल है। वैसे तो चिदंबरम शब्द का अर्थ होता है ‘चित’ अर्थात चेतना और ‘अंबरम’ अर्थात आकाश, लेकिन यहां चिदंबरम शब्द की उत्पत्ति हुई है,  चित + अम्बलम से। अम्बलम का अर्थ होता है, कला प्रदर्शन के लिए एक मंच. चित का अर्थ यहां परम आनंद है। एक अन्य सिद्धांत के अनुसार यह नाम चित्राम्बलम से लिया गया है, जिसमे चिथु का अर्थ है भगवानों का नृत्य या क्रीड़ा और अम्बलम का अर्थ है मंच। अर्थात भगवान शिव के नृत्य के लिए मंच।

भारत के प्रत्येक शास्त्रीय नृत्य में भगवान शिव का अंश है। प्रत्येक नृत्य में आपको शिव स्तुति के दर्शन अवश्य मिलेंगे। कथक जैसे नृत्य में ‘शिव परन’, ‘शिव प्रिमलू’ आदि भी दिखाई देंगे; तो साथ ही शिव तांडव प्रत्येक शास्त्रीय नृत्य का एक अविभाज्य भाग रहा है। चूंकि शिव केवल शक्ति का नहीं तो कला का भी प्रतीक है, और नृत्य को एक शक्तिशाली कला के रूप में देखा जाता है, इसलिए भगवान शिव को भारतीय नृत्य कला का आराध्य दैवत माना जाता है।

शंकर शिव गौरी वर नाचे,

डिमडिमडिमडिम डमरू बाजे

मृदंग घननन तडन्न घननन

तिद्धा दिगदिग थेई तिग्धा दिगदिग थेई

तिग्धा दिगदिग थेई।

यह कथक नृत्य की प्रसिद्ध छोटी सी शिव परन है।

चंद्र चपल कर आरती शिव की,

झिझिकत हुल हुल गंगा छलकत।

नाचत शंकर धडन्न किडतक,

किडतक थुन थुन धा -3

और यह प्रसिद्ध कवित्त।

नाट्यशास्त्र और अभिनय दर्पण में लिखित देव हस्त मुद्राओं में शिव हस्त या नटराज हस्त महत्वपूर्ण है। शंभोर्वामे मृगशीर्ष त्रीपताकस्तु दक्षिणे इस श्लोक के माध्यम से इस हस्त को कैसे प्रदर्शित करना है यह सिखाया गया है। नाट्य शास्त्र, भारत का इतिहास और अन्य कला संबंधी ग्रंथों ने भगवान शिव का महत्व बताया है।

शशिधर शंकर महेश महेश, विरूपाक्ष व्योमेश

इन शब्दों में नृत्यकला में भगवान शंकर का वर्णन किया जाता है, जटाजूट धारी, व्याघ्रांबर धारी, भस्मधारी अर्धनारीश्वर उमापति आदि नामों से और मुद्राओं से नृत्यकला में भगवान शिव को दिखाया जाता है। यदि नृत्य कला मानव शरीर है, तो भगवान शिव इसका श्वास। और इसीलिए भगवान शंकर का व्यक्तित्व और अस्तित्व नृत्यकला की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, और हमेशा रहेगा।

 

 

 

 

Tags: bibliophilebookbook loverbookwormboolshindi vivekhindi vivek magazinepoemspoetpoetrystorieswriter

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