गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवा महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रम्हा तस्मैं
श्रीगुरुवै नमः।।
गुरु, ब्रम्हा जी की तरह हमारे हृदय में उच्च संस्कार भरते हैं, विष्णु जी की तरह पोषण करते हैं एवं शिवजी की तरह हमारे कुसंस्कारों एवं जीवभाव का संहार करते हैं। मित्रों और संबंधियों द्वारा अथक प्रयास के बाद भी जो ज्ञान हमें प्राप्त नहीं हो सकता, वह सब हमें ब्रम्हदेवता गुरु से सहज ही प्राप्त हो जाता है। हमारे तमाम कष्ट और पाप नष्ट हो जाते हैं। ब्रम्हदेवता गुरु के द्वारा हमें जो कुछ भी मिलता है हम उसका बदला तो कभी नहीं चुका सकते, फिर भी कुछ आदर भाव अभिव्यक्त करके गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। जिनके लिए उनका संदेश, प्रेरणा, एवं आशीर्वाद प्राप्त करते हुए उनके आदर्शों पर चलकर गुरुतत्व को आत्मसात् करते हैं। यह कल्याण एवं प्रगति का अवसर ही गुरु पूर्णिमा का पर्व है।
भारतीय मनीषा में गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए कहा गया है कि गुरु शिष्य को जीवन की दृष्टि प्रदान करते हैं, उसे जीवन जीने की कला सिखाते हैं और उसे समाज तथा परमात्मा से जोड़ते हैं। गुरु व्यक्ति को जड़ता से मुक्त करके उसे गति प्रदान करते हैं तथा शिष्य के अन्दर मानवीय गुणों का विकास करके उसके जीवन को सुन्दर, निर्दोष और पवित्र बनाकर सफलता के चरम शिखर पर पहुंचाते हैं, गुरु सुख की सृष्टि करते हैं, इसलिए शिष्य प्रार्थना करता है और उनसे उनकी कृपा की याचना करते हुए कहता है।
गुरु तीन प्रकार के होते हैं-
(1) देवगुरु-जैसे-महर्षि नारदजी और बृहस्पतिजी।
(2) सिद्धगुरु-जो किसी परम् चरत्रि, परम सात्विक व्यक्ति को मार्गदर्शन देते हैं,जैस-गुरु दत्तात्रेयजी।
(3) मानवगुरु-जो हमारे बीच रह कर मानव जाति के परम हितैषी एवं कल्याणकारी होते हैं, जैसे -गुरु वशिष्ठ, महर्षि व्यासजी, शंकराचार्यजी आदि। इन मानव-गुरुओं के द्वारा भी हमें प्रत्यक्ष रूप से परमात्मा का ज्ञान मिलता है।
मानव गुरुओं में महर्षि व्यासजी अपने आप में महान परम्परा के प्रतीक हैं। आदर्श के लिए समर्पित प्रतिभा के वे उत्कृष्ट उदाहरण हैं। महर्षि व्यासजी, महर्षि वशिष्ठजी के पौत्र एवं पराशर ऋषि के सुपुत्र थे। वे अपनी मां से आज्ञा लेकर तप के लिए बदरिकाश्रम चले गए। वहां एकांत में समाधि लगाकर बेर खाकर जीवन यापन करने लगे, जिससे उनका नाम एक ‘बादरायण’ भी पड़ा।
गुरु अपने शिष्य के आन्तरिक गुणों का विकास करके उसे सफलता के शिखर तक पहुंचाता है। यह परम्परा अनादिकाल से अब तक चली आ रही है। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है। आध्यात्म के क्षेत्र में श्रीमद्भगवत गोविन्दपाद के शिष्य शंकर थे, जो बाद में आदि शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। भक्त गोविन्दपाद के पावन सान्निध्य में शंकर ने वेदान्त की शिक्षा प्राप्त की अथवा अपने महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना की। शंकर से शंकराचार्य बनने तक की यात्रा में जिस सद्गुरु ने अपनी भूमिका का निर्वाह किया था, उन्हीं भगवत् गोविन्दपाद की कृपा एवं प्रेरणा से शंकराचार्य ने बारह वर्ष की छोटी सी अवस्था में अनेक भाष्यों की रचना की थी और केवल बत्तीस वर्ष की छोटी सी अवस्था में उन्होंने भारत में आध्यात्मिक क्रान्ति का सृजन करके हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना की और सम्पूर्ण हिंदू समाज को उसके वास्तविक स्वरूप से अवगत कराया।
इस बार हम 24 जुलाई को गुरु पूर्णिमा का पर्व मना रहे है। हम सभी अपने अपने गुरुओं को याद कर उन्हे धन्यवाद देंगे कि उन्होने हमारे जीवन का मार्गदर्शन किया और हमें इस मुकाम तक पहुंचाया। माता-पिता और गुरु का कर्ज कभी भी नहीं उतारा जा सकता है लेकिन हम अपने छोटे छोटे प्रयास से उन्हें जरुर सुख की अनुभूति दे सकते है। इसलिए आप अपने गुरु की जितनी हो सके और जिस तरह से हो सके सेवा जरूर करें और उनके कार्यों की सराहना जरूर लोगों से करें।