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एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय

एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पं. दीनदयाल उपाध्याय

by रमेश पतंगे
in नवम्बर २०१५, व्यक्तित्व
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दीनदयाल उपाध्याय ने शून्य से शुरूआत एक सशक्त राजनितिक दल खड़ा किया। इस काम का जैसा मूल्यांकन होना चाहिए था नहीं हो सका। भारत में एक अखिल भारतीय दल खड़ा करना कोई साधारण काम नहीं है। दीनदयालजी के पास जब जनसंघ की जिम्मेदारी आई तब कांग्रेस देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल था, जिसने संघ विचारधारा के विरुध्द मानो युध्द का आव्हान ही किया हुआ था।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के नाम में ही       दीन-दुखियों के प्रति गहरी पीड़ा दिखाई देती है। कई बार ऐसा होता है कि नाम होता है लक्ष्मीदास पर इंसान होता है भिखारी, नाम होगा सुवर्ण सुंदरी पर वह होगी कुरुप। जैसा नाम वैसा रूप और वैसा व्यवहार होना बहुत दुर्लभ होता है। परंतु पंडित दीनदयाल जी के जीवन में उसका अभूतपूर्व संगम दिखाई देता है।

पंडितजी की बाल्यावस्था अत्यंत दुःखपूर्ण थी। पहले नासमझी की उम्र में पिताजी का देहावसान हुआ, उसके बाद साढ़े छह वर्ष की आयु में माता भी चल बसी। मामा-मामी ने उनका पालन पोषण किया। उनकी शिक्षा का दायित्व भी निभाया।  कुछ लोगों को बाल्यावस्था में उठाए गए दुखों को बार-बार उजागर करने की आदत पड़ जाती है साथ ही भविष्य में अधिकतमसुख प्राप्त करने की इच्छा भी जागृत हो जाती है। ऐसे लोग स्वकेंद्रित होते हैं, अपने सुख के अलावा उन्हें बाकी दुनिया से कोई लेना देना नहीं होता। परन्तु पंडितजी इस श्रेणी के नहीं थे।

उन्होंने अपने दुखों को कभी उजागर नहीं किया। अपने भूतकाल के विषय में वे कभी बात ही नहीं करते थे। खुद के दुखों को भूल कर वे समाज के दुख की चिंता करने लगे। संघ से उनका सम्पर्क हुआ और कुछ वर्षों में ही वे प्रचारक बन गए। जिस समय वे प्रचारक बने उसी समय मन और बुद्धि से उन्होंने संकल्प लिया कि यह पूरा जीवन राष्ट्रकार्य के लिए तथा संघ कार्य के लिए समर्पित करना है। देखते ही देखते पंडित दीनदयाल उपाध्याय संघमय हो गए। संघ के स्वयंसेवकों के लिए जीवंत आदर्श बन गए। संघ यानी पंडित दीनदयाल उपाध्याय, ऐसा समीकरण बन गया।

मानवीय दुखों की चिंता अनेक महापुरुषों ने की है। मानवीय दुखों के कारण खोजने तथा उसका निराकरण करने के लिए सिद्धार्थ ने राज्य त्याग दिया। कठिन तपश्चर्या के पश्चात ज्ञान की प्राप्ति भी की। ऐसे ही दूसरे महान व्यक्ति थे कार्ल मार्क्स, जिन्हें इंग्लैण्ड में आश्रय लेना पड़ा। वहां रह कर उन्होंने गरीबों के दुखों पर शोध किया और उनकी शोषण से मुक्ति का एक दर्शन प्रस्तुत किया।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने जिस प्रकार व्यक्तिगत दुखों का अनुभव किया, उसी प्रकार उन्होंने राष्ट्र के दुखों का भी अनुभव किया। हमारा यह सनातन हिन्दू राष्ट्र सैंकडों वर्षों से कष्ट सह रहा है। संघ ने यह विचार प्रस्तुत किया कि इस देश के पुत्र रूप हिन्दू समाज का संगठित होना आवश्यक है। जब वह संगठित हो जाएगा तो इन कष्टों का निवारण करने में समर्थ हो सकता है। इसीलिए इस पुत्रवत हिन्दू समाज को संगठित करना पड़ेगा।

राष्ट्र को किस प्रकार सुखी बनाया जा सकता है, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इस पर लम्बे समय तक गहन विचार किया और देश को दिशा दिखाई। इसे ही हम ‘एकात्म मानव दर्शन’ कहते हैं। यह आधुनिक काल का हिन्दू दर्शन है। हिन्दू दर्शन कभी भी मुट्ठीभर लोगों का विचार नहीं करता। वह हमेशा ही वैश्विक विचार करता है। इस दर्शन को हम चाहे तो वेदांत कहें, बुद्ध दर्शन कहें, जैन दर्शन कहें या नानक दर्शन कहें। प्रत्येक दर्शन मनुष्य को मनुष्य मानकर विचार करता है।

मनुष्य का विचार करते समय मानव कहां से आया, उसका अन्य मनुष्यों से क्या सम्बन्ध है, प्राणियों के साथ तथा सम्पूर्ण सृष्टि के साथ उसका क्या रिश्ता है, इन सारी बातों का विचार करना पड़ता है। जिस समाज में व्यक्ति रहता है उस समाज का भी विचार करना पड़ता है। प्रत्येक दर्शन इसका विचार करता है, और प्रत्येक दर्शन सत्य कहता है। यह कहा जाता है कि मनुष्य यह ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। जो दर्शन ईश्वर को नहीं मानता वह भी कहता है कि मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सभी मानते हैं कि मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ होना स्वयंसिद्ध है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी हमें बताते हैं कि मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है।

परन्तु यही मनुष्य आज संभ्रम की स्थिति में है, क्योंकि वह दुखी है, और पंडितजी उसी दुख के कारण की खोज करते है। वे कहते हैं कि मनुष्य का विचार टुकड़े टुकड़े में किया जाना उचित नहीं है। जैसे कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य यह सामाजिक प्राणी है, कोई उसे आर्थिक प्राणी, तो कोई उसे राजनीतिक प्राणी बताता है। मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहने वालों का जोर मनुष्य को सामाजिक अधिकार दिलाने पर होता है, मनुष्य को आर्थिक प्राणी कहने वाले केवल उसकी आर्थिक आवश्यकताओं की ही चिंता करते है। मनुष्य की आर्थिक आवश्यकता होती है भोग विलास के लिए। उन्हें पूरा करने के लिए सारे प्रयास होते हैं। वही से पूंजीवाद का निर्माण होता है। खाओ, पीओ, मजा करो, जीवन एक बार ही मिलता है, मरने के बाद सब समाप्त हो जाएगा, कल की चिंता क्यों करो, आज की चिंता करो, इस प्रकार का विचार किया जाता हैं।

मनुष्य को राजनीतिक प्राणी मानने के बाद उसके राजनीतिक अधिकारों की चर्चा होनी शुरू हो जाती है। यहां से लोकतंत्र का विचार प्रारम्भ होता है। मनुष्य को अमर्यादित स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए। मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में राजसत्ता को अधिक तांकझांक नहीं करनी चाहिए। इन राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू हो जाते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की कल्पना सर्वश्रेष्ठ है, सारी दुनिया को इसे स्वीकार करना चाहिए। अमेरिका अलग अलग देशों पर आक्रमण करके उन पर अपनी जीवनपद्धति लादने का प्रयास करता है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं कि इस प्रकार टुकड़े टुकड़े में मनुष्य का विचार नहीं किया जा सकता। मनुष्य का विचार करने के लिए वे तीन सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। पहला सिद्धांत कि मानव इस सृष्टि का अकेला प्राणी नहीं है। उसका अस्तित्व चराचर सृष्टि के साथ जुड़ा है। दूसरा सिध्दांत कि मनुष्य एकांगी नहीं है, मनुष्य के अस्तित्व के अनेक रूप है। एक ही समय में वह परिवार का सदस्य है, और अलग अलग रिश्तों से जुड़ा होता है। उसी समय वह समाज की भी एक इकाई होता है, शहर का नागरिक भी है, राष्ट्र का घटक भी है और अंत में वह पूरी दुनिया के मानव समूह का एक हिस्सा है। तीसरी बात, मनुष्य के चार अंग है १) शरीर, २) मन, ३) बुद्धि, ४) आत्मा। यदि मनुष्य को सुखी बनाना है तो इन सभी अंगों का संतुलन साधकर विकास करना होगा।

केवल शरीर का विचार करेंगे तो भोगवाद का जन्म होगा, केवल मन का विचार करेंगे तो मन के चंचल होने के कारण अस्थिरता पैदा होगी और यदि केवल बुद्धि का विचार किया तो कई बार बुद्धि विपरीत दिशा में भी ले जा सकती है। इसीलिए केवल बुद्धि विपरीत करके भी नहीं चल सकता। और यदि केवल आत्मा का विचार करेंगे तो संसार में कोई सार नहीं है, ऐसी अकर्मण्य वृत्ति का निर्माण होगा। इसीलिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का संतुलित विचार होना चाहिए। शरीर स्वस्थ हो तो मन, बुद्धि आत्मा भी ठीक रहती है। इसीलिए अन्न, वस्त्र, व्यायाम, आराम, दवाइयां आदि का शरीर के लिए विचार करना पड़ता है। मन पर संस्कार करने पड़ते हैं, और बुद्धि का विकास करने के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है। और आत्मा तत्व की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ‘जैसा मैं हूं वैसा ही तू है’ इस भाव के साथ सबसे व्यवहार करना पड़ता है।

यह सब करते समय हम मनुष्य होने के कारण परिवार से लेकर अखिल विश्व तक सबके साथ हमारा रिश्ता है, इस बात को भूलना नहीं चाहिए। दुर्भाग्य से आज सभी क्षेत्रों में यह भाव कमजोर होे गया है। अत: मानव समाज संकुचित विचार तथा स्वार्थ की सीमा में घिरता जा रहा है। हम विश्व स्तर पर इसके परिणामों को देख रहे है। अमेरिका को लगता है कि उनकी प्रजातंत्र की तथा पूंजीवाद की व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ है, इसीलिए सारी दुनिया ने इसे स्वीकार करना चाहिए। इसके लिए अमेरिका आक्रमण भी करता रहता है। जो देश अमेरिका की नहीं सुनता उसकी सत्ता को पलट दिया जाता है और फिर उस समाज में विद्रोह पैदा हो जाता है।

अमेरिका को चुनौती देने के उद्देश्य से मध्यपूर्व के इस्लामी राष्ट्रों में आंदोलन किए जा रहे हैंै। अलकायदा तथा इसीस इसी के रूप हैं। हमें अमेरिकी संस्कृति नहीं चाहिए। अमेरिकी भौतिकवाद नहीं चाहिए, और उनको समर्थन देने वाली सत्ता भी नहीं चाहिए। हमारी जीवन पद्धति अलग है, हम उसी के अनुसार जीयेंगे, इन्हीं  के कारण संघर्ष हो रहा है। इसे सांस्कृतिक संघर्ष कहा जाता है। जब इस संघर्ष के दोनों पक्ष स्वयं को ही सही मानकर चलते हैं तो इसका परिणाम केवल रक्तपात ही होता है। इसका भयानक चेहरा अरब से यूरोप की ओर बढ़ रहा विस्थापितों का सैलाब है।

पंडितजी की विचारधारा यह नहीं है। जैसा कि प्रारम्भ में कहा गया है, पंडित जी मनुष्य जाति के सभी प्रकार के दुःखों का विचार करते हैं। चाहे ये दुख गरीबी के कारण हो, प्रवंचना के कारण हो या वैचारिक असहिष्णुता के कारण पैदा हुए हों। आज मानव जाति अभूतपूर्व अंतर्विरोध की स्थिति में हैं। एक तरफ वायु की गति से शस्त्रों का तथा तकनीक का विकास हो रहा है। अभी तक अज्ञात अनेक रहस्यों को खोजा जा चुका है। २०-२५ साल पहले तक जिन बातों की हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे वे बातें आज प्रत्यक्ष दिखाई दे रही हैं। हाथ में मोबाइल लेकर दुनिया में कहीं भी सम्पर्क किया जा सकता है। एक हथेली में समा जाने वाले मोबाइल के द्वारा इंटरनेट के माध्यम से दुनिया का कोई भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। यदि २०-२५ साल पहले कोई यह बात करता तो उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता था। प्राणी शास्त्र में इतनी प्रगति हो गई है कि अब प्रयोग शालाओं में प्राणियों का निर्माण भी सम्भव हो गया है। इसीलिए  ऐसा भी कहा जाता है कि ‘‘पूरा विश्व एक ग्राम बन गया है’’।

पदार्थ विज्ञान शास्त्र ने तो कमाल ही कर दिया है। उसकी कॉन्टम फिजिक्स यह आधुनिक काल की शाखा है। और इस क्षेत्र में जो शोध कार्य हुए हैं वह मूल कणों तक पहुंच गए हैं। और उन्होंने सृष्टि के कुछ रहस्यों को उजागर किया है। सारा ब्रह्माण्ड एक है, पूरा ब्रह्माण्ड यानी उर्जा का फैलाव। यही उर्जा हम सब में है, जिसके द्वारा हम एक दूसरे से जुड़े हुये हैं। एक दूसरे के साथ एकात्म हैं। मानव जाति का विरोधाभास देखो, एक तरफ कहते हैं कि हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, और दूसरी ओर विज्ञान जो बोलता है ठीक उसके विपरीत मनुष्य और देश व्यवहार करते हैं। मानव जीवन की यह विदारक विसंगति है।

पंडितजी की विशेषता है कि उन्होंने भारतीय चिंतन की एकात्म दृष्टि को लोगों के सामने रखा। उन्होंने ऐसा दावा कभी नहीं किया कि मैं कुछ नया कह रहा हूं। यह सत्य भी है, एकात्म चिंतन का जो परिचय वेद-उपनिषदों से प्राप्त होता है वही बात बुद्ध के दर्शन में है, वही बात जैन दर्शन में है। वही बात गुरु ग्रंथ साहिब में हैं। एकात्म दृष्टि यह हमारी विशेषता है। सवाल केवल उसके साथ जीने का है। जब तक भारत के लोग अर्थात हिन्दू अपने दर्शन को जी रहे थे, तब तक भारत विश्व में अजेय था। और वह स्वर्णभूमि बन गया था। जिस क्षण हमने एकात्म दृष्टि से जीना छोड़ दिया है उसी क्षण से हमारे अंदर दुर्बलता आनी शुरू हो गई, और देश की अधोगति प्रारम्भ हो गई। इस से केवल भारत की ही हानि हुई ऐसा नहीं है वरन पूरी दुनिया की हानि हुई। क्यों कि जब तक भारत में एकात्म दृष्टि थी तब तक दुनिया में शांति थी। हमारे पूर्वज जब देश के बाहर निकलते तो साथ में अपनी एकात्म दृष्टि लेकर जाते। व्यापार के कारण सम्पर्क में आए लोगों को भी यह दृष्टि देते। इसीलिए कोरिया से लेकर ब्रह्मदेश तक आज भी हमारे पूर्वजों के पराक्रम के चिह्न जीवित दिखाई देते हैं। हमारे पूर्वज इसी दृष्टिकोण को  लेकर मिस्र तक गए। वहां उन्होंने यही ज्ञान दिया। पर कालचक्र की गति से भारत निद्रावस्था में चला गया, और पूरी दुनिया में अंधेरे का साम्राज्य फैल गया। युध्द, रक्तपात, और विध्वंस से मानवीय जीवन भर गया।

भारत का दुःख अज्ञान का है। भगवान बुध्द को जब साक्षात्कार हुआ तब उन्होंने भी दुखों के कारणों के जो बारह बिंदु रखे उसमें पहला विषय है अविद्या। इसके बाद भारत की अधोगति की मीमांसा की। उन्होंने और भी कारण बताए पर पहला कारण अज्ञान – अविद्या को ही बताया। इस अज्ञान को दूर करना ही वास्तविक देश सेवा, समाज सेवा तथा मानव सेवा है। इस अज्ञान को कैसे दूर किया जा सकता है इसके लिये पंडितजी का स्वतंत्र चिंतन है। उनका यह चिंतन आज भी प्रासंगिक है। यदि चेतना के धरातल पर या उर्जा के धरातल पर हम एक दूसरे के साथ जुड़े रहे तो जाति भेद, छूत-अछूत का कोई भेद नहीं रह जाएगा। दीनदयाल जी का कहना था कि इस भेद को समाप्त कर देना चाहिए।

समाज में गरीबी रहती है, गरिबी के असंख्य कारण हैं। विशेषज्ञ कहते है कि अनुत्पादक कृषि, कृषि पर अतिरिक्त मानवभार और उद्योगधंधों का अभाव, पारम्परिक उद्योगों की समाप्ति, सम्पत्ति का केन्द्रीकरण, शिक्षा का अभाव आदि गरीबी के कारण हैं। पंडितजी स्वयंम् को गरीब के साथ जोड़ते हैं। उसके साथ तादात्म्य बना लेते हैं। उनके जीवन में इस प्रकार के असंख्य उदाहरण हैं। पहनने की धोती उतने दिन तक उपयोग में लाते जब तक वह फट न जाए। उसे भी वे हाथ से सिलाई कर चला लेते। एसे अवसर पर जब पंडितजी किसी कार्यकर्ता घर रुकते तो वह कार्यकर्ता नहाने के स्थान पर एक नई धोती रख देता। और पंडितजी कहते अरे वह पुरानी धोती क्यों निकाल ली अभी दो महिना और उपयोग में आती। पैर की चप्पल भीं घिस जाती पर पंडितजी उसका उपयोग करते रहते। एक अखिल भारतीय पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री की ऐसी चप्पल देख कार्यकर्ता को दुख होता तो वह उन पुरानी चप्पलों को उठाकर नई चप्पले रख देता। ‘‘दीन दुखियों के लिये भी, अपार करुणाधार मन में’’ – दीनदयाल जी की यही मानसिकता थी।

यही कारण था कि गरीबी दूर होनी चाहिए इस विषय पर उनका चिंतन केवल किताबी नहीं था, वरन गरीबी के साथ तादात्म्य से उत्पन्न चिंतन था। वे कहा करते ‘‘जो कमाएगा वह खाएगा यह ठीक नही, जो कमाएगा वह खिलाएगा।’’ ऐसा क्यों? तो हम एकात्म हैं, जो गरीब हैं वह भी मेरा ही अंग है, वह मेरा ही एक रूप है। मुझसे वह  अलग नहीं। मैं उसको भोजन कराकर कोई उपकार नहीं कर रहा हूं, मैं उसको खिलाकर स्वयम् खा रहा हूं। हालांकि ठीक इसी भाषा में पंडितजी ना भी बोलते हों पर उनके चिंतन का तर्कसंगत अर्थ यही था। इसीलिए उनका आर्थिक चिंतन न तो समाजवादी था न ही पूंजीवादी। यदि इसे कोई नाम देना पड़ा तो कहेंगे की यथार्थवादी चिंतन था। जमींदारी समाप्त होनी चाहिए, जो जोतेगा उसकी जमीन होगी, प्रत्येक हाथ को काम मिले, और काम को मूलभूत अधिकार  प्राप्त हो। ऐसी उनकी चिंतन की दिशा थी। अधिकांश अर्थशास्त्रि आर्थशास्त्र की पाश्चात्य अवधारणा से प्रभावित थे। और पाश्चात्य अर्थशास्त्रीयों की नजर में मनुष्य एक अर्थिक प्राणी मात्र है, उसके आगे कुछ नहीं।

अर्थनीति यह मानव जीवन के लिए एक मात्र प्रेरणा नहीं हो सकती। समाज का आर्थिक विकास होना चाहिए, पर आर्थिक विकास करते समय ‘‘सांस्कृतिक मूल्य जाए भाड में़’’, ऐसा नजरिया रखा तो, हम पशुवत हो जाएंगे। पंडितजी एक गम्भीर उदाहरण देते हैं, एक परिवार को बहुत बड़ा आर्थिक लाभ होता है। लाखों डालर का धनादेश प्राप्त होता है। और बाद में एक पत्र प्राप्त होता है कि इस कम्पनी में काम करने वाला आपका पुत्र तकनीकी दुर्घटना में मर गया। उसकी भरपाई के रूप में यह धन भेज रहे हैं। धनादेश मिला, आर्थिक लाभ भी मिला, पर उसकी कीमत किस रूप में चुकानी पड़ी? आर्थिक प्रगति के नाम पर महिला को बाजारू वस्तु बनाकर उसका प्रदर्शन करना, विज्ञापन में पतिविहीन मां के दर्शन होना, मनुष्य जीवन के लिए अत्यंत हानिकारक खाद्य पदार्थों के आकर्षक बनाने के लिए विज्ञापन देना हो तो यह आर्थिक प्रगति हमें विनाश की ओर लेकर जाएगी। दीनदयाल जी इस प्रकार की प्रगति के पक्षधर नहीं थे। जैसा कि पहले कहा गया है कि मनुष्य केवल आर्थिक प्राणी नहीं है, उसे मन, बुद्धि और आत्मा भी है, इन सबका संतुलित विकास होगा तो ही मनुष्य सुखी होगा। और समाज सुखी रहेगा।

कुछ दिन पहले दिवंगत हुए अब्दुल कलाम के चिंतन व पं. दीनदयाल जी के चिंतन में सौ प्रतिशत समानता थी। वे स्वयं महान वैज्ञानिक थे। साथ ही गहन आध्यात्मिक चिंतक भी थे। विज्ञान के ज्ञान के कारण वे भौतिकवादी या निरीश्वरवादी नहीं बने। इसके विपरीत यह ध्यान में आता है कि, वे जैसे जैसे विज्ञान के सत्य से अवगत होते गए वैसे वैसे उनकी आध्यात्मिक रुचि बढ़ती गई। उन्होंने भी यही एकात्म दृष्टि प्रतिपादित की। परिवार, समाज तथा राष्ट्र में सुसंवाद होगा और वह सत्य पर आधारित होगा तो हर स्तर पर सुख होगा। यदि देश में सुख-शांति रहेगी तो पूरी दुनिया में सुख-शांति रहेगी। एपीजे कह गए कि दुनिया की महान संस्कृतियों का विनाश क्यों हुआ? तो सही समय पर अपने लक्ष्य को वे राष्ट्र जान नहीं पाए। इसीलिए मिस्त्र, असुरियन, पर्शियन, रोमन, एडीक, संस्कृतियां समाप्त हो गई। उनका शब्द है ‘मिशन’, आखिर हमारी संस्कृति का मिशन क्या है। इसका निरंतर विचार करना होगा। खाना, पीना, मौज उड़ाना, राजनीतिक झग़ड़े करते रहना, आरोप प्रत्यारोप करना, जातीय तथा धार्मिक विद्वेष फैलाना, यह हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य हो ही नहीं सकता। विश्व शांति का निर्माण यही हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य होना चाहिए।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म सामाजिक जीवन, एकात्म राजनीतिक जीवन, एकात्म आर्थिक जीवन खड़ा करने का लक्ष्य देश के सामने रखा। उसका एक वैश्विक आयाम है। यदि दुनिया के झगडे, रक्तपात, विश्व का विध्वंस करने वाली अण्वास्त्र स्पर्धा को रोकना है जो एकात्म मानव जीवन का एक आदर्श दुनिया के सामने रखना होगा। यह काम भारत को ही करना होगा। भारत यानी हम और आप। हमारे बिना भारत कुछ नहीं है। भारत कोे करना चाहिए इसका मतलब है भारतीय एकात्म जीवन हमारे रोजमर्रा के जीवन में दिखाई देना चाहिए। हमारे परिवार के जीवन का वह एक हिस्सा होना चाहिए। उसके लिए अपने परिवार को हिन्दू संस्कार के साथ जीने वाला परिवार बनाना चाहिए। हिन्दू संस्कार यानी क्या? हम सब एक परिवार का हिस्सा हैं, एक दूसरे के सुख-दुःख के साथ हमारा नाता है। मैं केवल अपना ही स्वार्थ नहीं देखूंगा। यदि आवश्यक हुआ तो परिवार के कल्याण के लिए मैं अपने स्वार्थ को मर्यादित कर दूंगा। सबका विकास हो ऐसा वातावरण परिवार में बनाए रखूंगा। संस्कारों का निर्माण करने वाली परम्पराओं का पालन करूंगा, जैसे मैं इन संस्कारों को ग्रहण कर रहा हूं, वैसे अगली पीढ़ी तक पहुचाऊंगा। एपीजे बहुत सुंदर शब्दों में अपनी कविता में इन भावों को प्रकट करते हैं।

 ‘‘जहां आत्मा सत्यवादी होती है

वहां चरित्र की सुंदरता होती है।

जब चरित्र सुंदर होता है।

तब परिवार में सामंजस्य बढ़ने लगता है।

जब परिवार में सामंजस्य बढ़ने लगता है,

तब राष्ट्र में भी सुव्यवस्था का निर्माण होता है।

जब राष्ट्र में सुव्यवस्था का निर्माण होता है,

तब दुनिया में शांति का साम्राज्य होता है।’’

यद्यपि पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक अखिल भारतीय राजनितिक पार्टी के महामंत्री थे, बाद में अध्यक्ष भी हुए, परन्तु उन्हें इस बात का कभी विस्मरण नहीं हुआ, कि वे संघ प्रचारक हैं। उनके रोजमर्रा के कपड़ों में हमेशा गणवेश भी साथ में रहता। मुगलसराय में उनकी जघन्य हत्या हुई। उस समय उनके कपड़ों में संघ की खाकी हाफपेंट, पट्टा और टोपी भी थे। उनका निवास कार्यकर्ताओं के घर में ही होता। जहां कार्यालय की व्यवस्था होती वहां कार्यालय में ही रुकते। दिल्ली में उनका आवास भाजपा कार्यालय में होता तो भी वे झण्डावाला स्थित संघ कार्यालय में कई बार भोजन के लिए जाते। एक बार एक कार्यकर्ता ने उनसे कहा – ‘‘चलिए बाहर चलकर भोजन करते हैं, कार्यालय का भोजन बहुत साधा होता है।’’ दीनदयाल जी ने उनसे कहा, ‘‘यह सच है कि कार्यालय का भोजन सादा होता है, पर उसी के कारण दिमाग ठिकाने पर रहता है।’’ दीनदयाल जी यह कहना चाहते थे कि, संघ कार्यालय में खाना खाने से कार्यकर्ता संघ विचार से विचलित नहीं हो सकता।

दीनदयाल उपाध्याय ने शून्य से शुरूआत एक सशक्त राजनितिक दल खड़ा किया। इस काम का जैसा मूल्यांकन होना चाहिए था नहीं हो सका। भारत में एक अखिल भारतीय दल खड़ा करना कोई साधारण काम नहीं है। दीनदयालजी के पास जब जनसंघ की जिम्मेदारी आई तब कांग्रेस देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल था, जिसने संघ विचारधारा के विरुध्द मानो युध्द का आव्हान ही किया हुआ था। उनके हाथ में सत्ता के शक्ति सूत्र भी थे। कांग्रेस के साथ कम्युनिस्ट भी थे। जिनके पीछे रूस की महाशक्ति थी। इनके अलावा समाजवादियों का एक गुट था, जो विध्वंस एवं पिछाड़ी मारने के लिए कुप्रसिध्द है। उसी काल में छोटे छोटे प्रादेशिक दल अपनी अस्मिता के साथ खड़े होने का प्रयास कर रहे थे। इन परिस्थितियों में एक जन, एक देश, एक संस्कृति के साथ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आधार मानकर, अर्थव्यवस्था का तीसरा विकल्प सामने रखते हुए कार्यकर्ता आधारित दल का निर्माण करना अत्यंत कठिन बात थी। दीनदयालजी ने वह कर के दिखा दिया। पहले उन्होंने अपना खून औटाया, फिर खून बहाया। जिसके कारण आज भारतीय जनता पार्टी की विजय सम्भव हो पाई। परन्तु केवल सत्ता प्राप्ति दीनदयालजी का उद्देश्य नहीं था। भारत को एक मिशन के साथ खड़ा करना यह दीनदयाल जी का सपना था। उस दिशा में अभी हमें मीलों तक चलना है।

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