राजस्थान, गुजरात, मालवा और हरयाणा में कहावत है : जिण घरै काळा तिल चाब्या, उण घरै जाणौ पड़सी ! मतलब है कि जहां पर कृष्णतिल खाए हों, वहां ब्याह होगा।
बेटियों के लिए खासकर यही कहा जाता है कि “कहां जाएगी?” ” जिण देहरी रा काला तिल चाबिया, वठै, अजु कठै!
“कौन आएगी?”
“जिण धीवड़ी इण आंगणै काळा तिल खाया हुवैला।”
है ना रोचक ! तिल चबाने से संबंध ! और वह भी अगले जन्म मे! नई वधू को थाल एँठाने (मुंह झूठा कराने) की परंपरा आज भी है जिसमें रोटियों में चिमटी भर तिल मिलाए जाते हैं सास के हाथों।
मकर संक्रान्ति के अवसर पर न्यौतकर तिल-गुड़ खिलाने, चबाने और अंगीरों पर तिड़तिड़ाने की परंपरा है तो तर्पण आदि के अवसर पर तिल के प्रयोग की रीति है। विदर्भ, कौंकण महाराष्ट्र में तिल-गुळ की परंपरा ऐसी ही है ।
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पिंडदान में भी आटे में तिल डाले जाते हैं। चित्तौड़गढ़ के 14 वीं सदी के एक शिलालेख में नदी की मछलियों के लिए कहा गया है कि वे ऐसे पिंड के विसर्जन पर खाने के लिए टूट पड़ती है जिनमें तिल डाला गया हो। विचार यह है कि तिलदान के पुण्य स्वरूप स्वर्गस्थ को छुटकारा मिलता है।
हमारी परंपराओं की पीठिका यूं ही तैयार नहीं हुई, उनको सुदीर्घ विश्वास के बाद निर्धारित किया गया है। इनमें तिल को लेकर जो विश्वास है, वे मूंगफली को लेकर नहीं क्योंकि वह बहुत बाद में हमारे जीवन का हिस्सा बनी। हां, सरसों को लेकर भी कई मान्यताएं हैं। तिल-तिल विश्वास ने तिल को तेवरदार किया है। है न? आपके आसपास भी ऐसी मान्यताएं होंगी ही, जानते हैं तो बताइयेगा और जानकारी न हो तो पूछकर पता कीजियेगा 🙂
जय-जय।
जाड़े की दस्तक और गुड का स्वाद…
जाड़े ने दस्तक दे दी है। सिर पर पंखों की पंखडि़यां थमती जा रही है और रजाई या कंबल चढ़ती जा रही है। मार्गशीर्ष आरंभ। आयुर्वेद तो कहता है : मार्गशीर्षे न जीरकम्। जीरा इस दौरान नहीं खाएं मगर कहने से कौन मानेगा, जीरा सेक कर गुड़ में मिलाकर खाएं तो खांसी जाए। हां, शक्कर से दूरी रखी जाए। गुड़ से याद आया कि इस दौर में तिल और गुड़ खाने और गन्ने चूसने की इच्छा हाेती है। ये इच्छा कालिदास की भी हाेती थी। तभी तो ऋतु वर्णन में उन्होंने इस बात का इजहार किया है :
प्रचुर गुडविकार: स्वादुशालीक्षुरम्य। (ऋतुसंहार 16)
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हमारे यहां गुड के कई व्यंजन बनाए जाते हैं। गुड़ में तिल को मिलाकर घाणी करवाई जाती है। आज घाणी को कोल्हू के नाम से जाना जाता है। कई जगह खुदाइयों में घाणियां मिली है। (देखिये चित्र में लेखांकित घाणी) इसे तेलयंत्र के नाम से नरक के वर्णनों में लिखा गया है। शिल्परत्नम् में घाणी बनाने की विधि को लिखा गया है।
घाणी में पिलकर तिलकूटा तैयार होता है… गजक तो खास है ही। गजकरेवड़ी, बाजरे का रोट और गुड़, गुड़धानी, गुडराब… और न जाने क्या-क्या। आपके उधर भी बनते ही होंगे। मगर, खास बात ये कि गुड एक ऐसा शब्द है जो संस्कृत में मीठे के लिए आता है।
दक्षिण के कुछ पाठों में ‘गुल’ शब्द भी मिलता है मगर वह गुड़ ही है। अनुष्ठानों में देवताओं की प्रसन्नता के लिए गुड़, गुडोदन, गुडपाक, गुलगुले आदि के चरु चढ़ाने का साक्ष्य कई अभिलेखों में भी मिलता है। सल्तनकालीन संदर्भों में इसके भाव भी लिखे मिलते हैं। बनारस के इलाके का गुड और खांड दोनों ही ख्यात थे। गुड शब्द देशज भी है और शास्त्रीय भी। मगर अपना मूल रूप मिठास की तरह ही बरकरार रखे हुए है, इस स्वाद का गुड़ गोबर नहीं हुआ। यदि अंधेरे में भी यह शब्द सुन लिया जाए तो भी जीभ उसकी मीठास जान लेती है, है न।
– श्रीकृष्ण “जुगनू”