मंसूर अली खान पटौदी से शादी करने से पहले शर्मिला टैगोर ने इस्लाम कबूल किया था, जिसके बाद शर्मिला का नाम रखा गया आएशा बेगम! प्यार सच्चा था तो इस्लाम कबूल करवाने की जिद किस लिए ? और अगर इस्लाम कुबूल कर ही लिया है तो खुद को शर्मिला टैगोर कहने की जिद किसलिए ?
अक्सर हिन्दुओं और बाकी विश्व को मूर्ख बनाने के लिये मुस्लिम और सेकुलर विद्वान(?) यह प्रचार करते हैं कि कम पढ़े-लिखे तबके में ही इस प्रकार की तलाक की घटनाएं होती हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है। क्या इमरान खान या नवाब पटौदी कम पढ़े-लिखे हैं? तो फ़िर नवाब पटौदी, रविन्द्रनाथ टैगोर के परिवार से रिश्ता रखने वाली शर्मिला से शादी करने के लिये इस्लाम छोड़कर हिन्दू क्यों नहीं बन गये? सैफ़ अली खान को अमृता सिंह से इतना ही प्यार था तो सैफ़ हिन्दू क्यों नहीं बन गया? अब अमृता सिंह को बेसहारा छोड़कर करीना कपूर से विवाह किया और बेटे का नाम रखा तैमूर. इससे अनुमान लगा ले इनका आदर्श वही खुनी तैमूर लंग है जिसने भारत में कत्लेआम मचाया था.
आँख बंद कर लेने से रात नहीं होती- प्रेम अन्धा होता है, सभी धर्म समान हैं, शादी ब्याह में धर्म नहीं दिल देखा जाता है, मुसलमान भी तो इंसान हैं, यह कहने वाली एक बार विचार करें. जो हिन्दू लड़कियां सोचती हैं कि लव जेहाद जैसा कुछ नहीं होता तो उन्हें सोचना चाहिए क्या कोई मुस्लिम लड़की लव मैरिज करके हिन्दू लड़के की पत्नी बन सकती है 😕 इस्लाम के तथाकथित विद्वान ज़ाकिर नाइक खुद फ़रमा चुके हैं कि इस्लाम “वन-वे ट्रेफ़िक” है, कोई इसमें आ तो सकता है, लेकिन इसमें से जा नहीं सकता… क्या दोनो एक ही घर में अपने-अपने धर्म का पालन नहीं कर सकते? मुस्लिम बनना क्यों जरूरी है? और यही बात उनकी नीयत पर शक पैदा करती है.
अंकित सक्सेना का सडक पर उसे माँ बाप के सामने क़त्ल कर दिया गया क्योंकि वह एक मुस्लिम लड़की से शादी करने वाला था. उस लड़की के माँ बाप और चाचा ने सडक पर अंकित सक्सेना का गला काट कर हत्या कर दी.
जेमिमा मार्सेल गोल्डस्मिथ और इमरान खान – ब्रिटेन के अरबपति सर जेम्स गोल्डस्मिथ की पुत्री (21), पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान (42) के प्रेमजाल में फ़ँसी, उससे 1995 में शादी की, इस्लाम अपनाया (नाम हाइका खान), उर्दू सीखी, पाकिस्तान गई, वहाँ की तहज़ीब के अनुसार ढलने की कोशिश की, दो बच्चे (सुलेमान और कासिम) पैदा किये… नतीजा क्या रहा… तलाक-तलाक-तलाक। वापस ब्रिटेन। फ़िर वही सवाल – क्या इमरान खान कम पढ़े-लिखे थे? या आधुनिक(?) नहीं थे?
24 परगना (पश्चिम बंगाल) के निवासी नागेश्वर दास की पुत्री सरस्वती (21) ने 1997 में अपने से उम्र में काफ़ी बड़े मोहम्मद मेराजुद्दीन से निकाह किया, इस्लाम अपनाया (नाम साबरा बेगम)। सिर्फ़ 6 साल का वैवाहिक जीवन और चार बच्चों के बाद मेराजुद्दीन ने उसे मौखिक तलाक दे दिया और अगले ही दिन कोलकाता हाइकोर्ट के तलाकनामे (No. 786/475/2003 दिनांक 2.12.03) को तलाक भी हो गया। अब पाठक खुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि चार बच्चों के साथ घर से निकाली गई सरस्वती उर्फ़ साबरा बेगम का क्या हुआ होगा, न तो वह अपने पिता के घर जा सकती थी, न ही आत्महत्या कर सकती थी…
प्रख्यात बंगाली कवि नज़रुल इस्लाम, हुमायूं कबीर (पूर्व केन्द्रीय मंत्री) ने भी हिन्दू लड़कियों से शादी की, क्या इनमें से कोई भी हिन्दू बना? अज़हरुद्दीन भी अपनी मुस्लिम बीबी नौरीन को चार बच्चे पैदा करके छोड़ चुके . बाद में संगीता बिजलानी से निकाह कर लिया, कुछ साल बाद उसे भी तलाक दे दिया.उन्हें कोई अफ़सोस नहीं, कोई शिकन नहीं। ऊपर दिये गये उदाहरणों में अपनी बीवियों और बच्चों को छोड़कर दूसरी शादियाँ करने वालों में से कितने लोग अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे हैं? तब इसमें शिक्षा-दीक्षा का कोई रोल कहाँ रहा? यह तो विशुद्ध लव-जेहाद है।
वहीदा रहमान ने कमलजीत से शादी की, वह मुस्लिम बने, अरुण गोविल के भाई ने तबस्सुम से शादी की, मुस्लिम बने, डॉ ज़ाकिर हुसैन (पूर्व राष्ट्रपति) की लड़की ने एक हिन्दू से शादी की, वह भी मुस्लिम बना, एक अल्पख्यात अभिनेत्री किरण वैराले ने दिलीपकुमार के एक रिश्तेदार से शादी की और गायब हो गई।
इस कड़ी में सबसे आश्चर्यजनक नाम है भाकपा के वरिष्ठ नेता इन्द्रजीत गुप्त का। मेदिनीपुर से 37 वर्षों तक सांसद रहने वाले कम्युनिस्ट (जो धर्म को अफ़ीम मानते हैं), जिनकी शिक्षा-दीक्षा सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज दिल्ली तथा किंग्स कॉलेज केम्ब्रिज में हुई, 62 वर्ष की आयु में एक मुस्लिम महिला सुरैया से शादी करने के लिये मुसलमान (इफ़्तियार गनी) बन गये। सुरैया से इन्द्रजीत गुप्त काफ़ी लम्बे समय से प्रेम करते थे, और उन्होंने उसके पति अहमद अली (सामाजिक कार्यकर्ता नफ़ीसा अली के पिता) से उसके तलाक होने तक उसका इन्तज़ार किया। लेकिन इस समर्पणयुक्त प्यार का नतीजा वही रहा जो हमेशा होता है, जी हाँ, “वन-वे-ट्रेफ़िक”। सुरैया तो हिन्दू नहीं बनीं, उलटे धर्म को सतत कोसने वाले एक कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्त “इफ़्तियार गनी” जरूर बन गये।
इसी प्रकार अच्छे खासे पढ़े-लिखे अहमद खान (एडवोकेट) ने अपने निकाह के 50 साल बाद अपनी पत्नी “शाहबानो” को 62 वर्ष की उम्र में तलाक दिया, जो 5 बच्चों की माँ थी… यहाँ भी वजह थी उनसे आयु में काफ़ी छोटी 20 वर्षीय लड़की (शायद कम आयु की लड़कियाँ भी एक कमजोरी हैं?)। इस केस ने समूचे भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ पर अच्छी-खासी बहस छेड़ी थी। शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने के लिये सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को राजीव गाँधी ने अपने असाधारण बहुमत के जरिये “वोटबैंक राजनीति” के चलते पलट दिया. मुल्लाओं को वरीयता तथा आरिफ़ मोहम्मद खान जैसे उदारवादी मुस्लिम को दरकिनार किया गया… तात्पर्य यही कि शिक्षा-दीक्षा या अधिक पढ़े-लिखे होने से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता, शरीयत और कुर-आन इनके लिये सर्वोपरि है, देश-समाज आदि सब बाद में…।
शेख अब्दुल्ला और उनके बेटे फ़ारुख अब्दुल्ला दोनों ने अंग्रेज लड़कियों से शादी की, ज़ाहिर है कि उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने के बाद, यदि वाकई ये लोग सेकुलर होते तो खुद ईसाई धर्म अपना लेते और अंग्रेज बन जाते…? और तो और आधुनिक जमाने में पैदा हुए इनके पोते यानी कि जम्मू-कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी एक हिन्दू लड़की “पायल” से शादी की, लेकिन खुद हिन्दू नहीं बने, उसे मुसलमान बनाया, तात्पर्य यह कि “सेकुलरिज़्म” और “इस्लाम” का दूर-दूर तक आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है और जो हमें दिखाया जाता है वह सिर्फ़ ढोंग-ढकोसला है।
एक बात और है कि धर्म परिवर्तन के लिये आसान निशाना हमेशा होते हैं “हिन्दू”, जबकि ईसाईयों के मामले में ऐसा नहीं होता, एक उदाहरण और देखिये – पश्चिम बंगाल के एक गवर्नर थे ए एल डायस (अगस्त 1971 से नवम्बर 1979), उनकी लड़की लैला डायस, एक लव जेहादी ज़ाहिद अली के प्रेमपाश में फ़ँस गई, लैला डायस ने जाहिद से शादी करने की इच्छा जताई। गवर्नर साहब डायस ने लव जेहादी को राजभवन बुलाकर 16 मई 1974 को उसे इस्लाम छोड़कर ईसाई बनने को राजी कर लिया। यह सारी कार्रवाई तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय की देखरेख में हुई। ईसाई बनने के तीन सप्ताह बाद लैला डायस की शादी कोलकाता के मिडलटन स्थित सेंट थॉमस चर्च में ईसाई बन चुके जाहिद अली के साथ सम्पन्न हुई।
इस उदाहरण का तात्पर्य यह है कि पश्चिमी माहौल में पढ़े-लिखे और उच्च वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले डायस साहब भी, एक मुस्लिम लव जेहादी की “नीयत” समझकर उसे ईसाई बनाने पर तुल गये। लेकिन हिन्दू माँ-बाप अब भी “सहिष्णुता” और “सेकुलरिज़्म” का राग अलापते रहते हैं, और यदि कोई इस “नीयत” की पोल खोलना चाहता है तो उसे “साम्प्रदायिक” कहते हैं। यहाँ तक कि कई लड़कियाँ भी अपनी धोखा खाई हुई सहेलियों से सीखने को तैयार नहीं, हिन्दू लड़के की सौ कमियाँ निकाल लेंगी, लेकिन दो कौड़ी की औकात रखने वाले मुस्लिम जेहादी के बारे में पूछताछ करना उन्हें “साम्प्रदायिकता” लगती है…
ऐसी हज़ारों दास्तानों में से एक है सिरोंज के महेश्वरी समाज की दास्तान। सिरोंज यह स्थान विदिशा से ५० मील की दूरी पर एक तहसील है। 200 साल पहले सिरोंज टोंक के एक नवाब के आधिपत्य में था। एक बार नवाब ने इस क्षेत्र का दौरा किया। उसी रात की यहाँ के माहेश्वरी सेठ की पुत्री का विवाह था। संयोग से रास्ते में डोली में से पुत्री की कीमती चप्पल गिर गई। किसी व्यक्ति ने उसे नवाब के खेमे तक पहुँचा दिया। नवाब को यह भी कहा गया कि चप्पल से भी अधिक सुंदर इसको पहनने वाली है। यह जानने के बाद नवाब द्वारा सेठ की पुत्री की माँग की गई। यह समाचार सुनते ही माहेश्वरी समाज में खलबली मच गई। बेटी देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। अब किया क्या जाये? माहेश्वरी समाज के प्रतिनिधियों ने कुटनीति से काम किया। नवाब को यह सूचना दे दिया गया कि प्रातः होते ही डोला दे दिया जाएगा। इससे नवाब प्रसन्न हो गया। इधर माहेश्वरियों ने रातों- रात पुत्री सहित शहर से पलायन कर दिया तथा उनके पूरे समाज में यह निर्णय लिया गया कि कोई भी माहेश्वरी समाज में न तो इस स्थान का पानी पिएगा, न ही निवास करेगा। एक रात में अपने स्थान को उजाड़ कर महेश्वरी समाज के लोग दूसरे राज्य चले गए। मगर अपनी इज्जत, अपनी अस्मिता से कोई समझौता नहीं किया। आज भी यह एक परम्परा माहेश्वरी समाज में अविरल चल रही है। आज भी माहेश्वरी समाज का कोई भी व्यक्ति सिरोंज जाता है तो वहाँ का न पानी पीता है और न ही रात को कभी रुकता हैं। यह त्याग वह अपने पूर्वजों द्वारा लिए गए संकल्प को निभाने एवं मुसलमानों के अत्याचार के विरोध को प्रदर्शित करने के लिए करता हैं।
दरअसल मुस्लिम शासकों में हिंदुओं की लड़कियों को उठाने, उन्हें अपनी हवस बनाने, अपने हरम में भरने की होड़ थी। उनके इस व्यसन के चलते हिन्दू प्रजा सदा आशंकित और भयभीत रहती थी। ध्यान दीजिये किस प्रकार हिन्दू समाज ने अपना देश, धन, सम्पति आदि सब त्याग कर दर-दर की ठोकरे खाना स्वीकार किया। मगर अपने धर्म से कोई समझौता नहीं किया। अगर ऐसी शिक्षा, ऐसे त्याग और ऐसे प्रेरणादायक इतिहास को हिन्दू समाज आज अपनी लड़कियों को दूध में घुटी के रूप में दे तो कोई हिन्दू लड़की कभी लव जिहाद का शिकार न बने।
सवाल उठना स्वाभाविक है कि ये कैसा प्रेम है? यदि वाकई “प्रेम” ही है तो यह वन-वे ट्रैफ़िक क्यों है? इसीलिये सभी सेकुलरों, प्यार-मुहब्बत-भाईचारे, धर्म की दीवारों से ऊपर उठने आदि की हवाई-किताबी बातें करने वालों से मेरा सिर्फ़ एक ही सवाल है, “कितनी मुस्लिम लड़कियों (अथवा लड़कों) ने “प्रेम”(?) की खातिर हिन्दू बनना स्वीकार किया है?”