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संघ दर्शन की साक्षात प्रतिमूर्ति बालासाहब देवरस

संघ दर्शन की साक्षात प्रतिमूर्ति बालासाहब देवरस

by अमोल पेडणेकर
in दिसंबर २०२१, विशेष, व्यक्तित्व
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धर्मांतरण केवल पैसों के कारण नहीं होता, अपने समाज में जो कुछ गलत धारणाएं एवं परंपराएं है, उनके कारण भी होता है। अगर धर्मांतरण की समस्या सुलझानी है तो, उसकी ओर देखने का हमारा दृष्टिकोण बदलना होगा। हमारी यह सोच गलत है कि केवल बाहरी शक्तियां ही धर्मांतरण का कारण हैं। बालासाहब का दृष्टिकोण स्पष्ट था। इसी चिंतन से आगे चलकर सामाजिक समरसता विषय प्रारंभ हुआ।

वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश और विदेश में मिलने वाला व्यापक समर्थन समाज चिंतकों को आश्चर्यचकित करने वाला है। भविष्य के सामाजिक एवं राजनीतिक उत्थान के लिए विश्व अभी भी संघ से बहुत अपेक्षाएं रखता है। वर्तमान में संघ जिस ऊंचाई पर खड़ा दिखाई देता है, उस ऊंचाई को समझने के लिए संघ के राष्ट्र एवं समाज समर्पित  व्यक्तित्वों को समझना अत्यंत आवश्यक है। आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ की स्थापना की और 15 वर्षों के अपने संघ समर्पित जीवन में अत्यंत आदर्श व्यवस्था निर्माण की। उनके बाद सर संघचालक पद का दायित्व निभाने वाले महानुभावों ने डॉक्टर हेडगेवार द्वारा निर्माण की गई व्यवस्था को इतना महान बनाया। आज पूरा विश्व इस व्यवस्था को समझने का प्रयास कर रहा है। संघ को इस स्थिति तक ले जाने में डॉक्टर हेडगेवार से लेकर मोहनराव भागवत तक के सभी सर संघचालकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।

बालासाहब देवरस संघ के तृतीय सरसंघचालक थे। उनका कालखंड राष्ट्र एवं सामाजिक स्तर पर विभिन्न तरंगें निर्माण करने वाला था। अपने समय की समस्याओं को सुलझाने की आवश्यकताओं के अनुसार उन्होंने जो अद्भुत निर्णय लिए, उन्हीं के कारण हिंदुस्तान, हिंदू और हिंदुत्व को स्वाभिमान प्राप्त हुआ है।

रा.स्व.संघ की स्थापना 1925 में हुई। बालासाहब ने 1926 में संघ की शाखा में जाना प्रारंभ किया। उस समय उनकी आयु मात्र 11 वर्ष की थी। अपने कर्तृत्ववान व्यक्तित्व के कारण किशोरावस्था में ही बालासाहब डॉक्टर हेडगेवार के आकर्षण का केन्द्र बन चुके थे। वे 14 साल तक उनके सहवास में रहे। जटिल से जटिल समस्याओं का सहजता से निराकरण करना, समाज एवं राष्ट्र हित के संकल्प के लिए विभिन्न कल्पनाओं को सहज और सरल रूप में प्रस्तुत कर उन्हें यशस्वी करना, दूरदर्शिता, कर्तृत्व व निष्ठा, नियोजन कौशल्य, लोगों के हृदय को जीत लेने वाली बातें इत्यादि से बालासाहब परिचित होने लगे थे। संघ का विकास हो रहा था, साथ ही बालासाहब देवरस की जिम्मेदारियां भी बढ़ती जा रही थीं। संघ की स्थापना नागपुर में हुई। संघ का प्रचार-प्रसार करने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में नागपूर से प्रचारक रवाना किए जाने लगे। संघ कार्य से देव दुर्लभ कार्यकर्ताओं को जोडने में बालासाहब की भूमिका महत्वपूर्ण थी। अपनी विलक्षण संगठन कुशलता के बल पर एक द्रष्टा के रूप में संघ कार्य के साथ-साथ राष्ट्र जीवन को स्पर्श करने वाले अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उन्होंने कार्यकर्ताओं का बड़ा समूह खड़ा किया।

1940 से 1949 के दौरान बालासाहब ने संघ की दृष्टि से महत्वपूर्ण  भूमिका का निर्वहन किया है। संघ के महाल कार्यालय का निर्माण,  संघ पर लगे प्रतिबंध के संबंध में नेहरू सरकार से बातचीत, संघ के संविधान का प्रारूप तैयार किया जाना तथा नागपुर में दैनिक तरुण भारत का अधिग्रहण करते हुए पत्रकारिता जगत में संघ के प्रवेश को सुनिश्चित करना, इत्यादि सभी कार्य बालासाहब के संगठनात्मक कौशल्य के परिचायक हैं। 1953 से 1960 तक बालासाहब को संघ की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त रखा गया था। वे केवल संघ कार्यालय में उपस्थित रहते थे। संघ के गणवेश में संघ के सारे कार्यक्रमों में भाग लिया करते थे। बालासाहब इस अर्थ में भी महान थे कि उन्होंने इस कालखंड में भी आदर्श आचरण प्रस्तुत किया जबकि उनके पास संघ का कोई दायित्व नहीं था।

श्रीगुरुजी के निधन के बाद बालासाहब को रा.स्व.संघ के तृतीय सरसंघचालक का दायित्व सौंपा गया। सामाजिक कुरीतियों में परिवर्तन लाने हेतु समाज में सामाजिक समरसता निर्माण का कार्य करने का निर्देश उन्होंने स्वयंसेवकों को दिया। 8 मई 1974 को पुणे में आयोजित प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला में ‘सामाजिक समरसता तथा हिंदू एकीकरण’ विषय पर बालासाहब ने एक सारगर्भित भाषण दिया। वह भाषण भारत देश में सामाजिक चिंतन के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुआ। संघ पर सदैव यह टिप्पणी होती थी कि संघ देश की जाति व्यवस्था के संदर्भ में कुछ नहीं कहता। बालासाहब के इस भाषण से संघ के आलोचकों के मुंह हमेशा के लिए बंद हो गए। बालासाहब के लिए समानता और समरसता मात्र आकर्षित करने वाले शब्द नहीं थे अपितु वे समाज को जोड़ने वाली, संगठित करने वाली, मजबूत करने वाली महत्वपूर्ण कड़ी थे।

बालासाहब की यह भूमिका थी कि संघ हिंदू समाज का संगठित रूप है। अत: समाज के लिए आवश्यक जो कार्य हैं, उन सभी कार्यों में संघ स्वयंसेवकों का सम्मिलित होना अत्यंत आवश्यक है। इस बात का समाज को लाभ ही होगा। उनका झुकाव सामाजिक एवं राजनीतिक स्थितियों का निरीक्षण करने पर अधिक था। बालासाहब में समाज एवं राजनीति की बारीकियां समझने की शक्ति थी। बाला साहब इस अर्थ में भिन्न थे। इस कारण उनके कार्य एवं विचारों का प्रकटीकरण भी उसी दिशा में हो रहा था। उन्होंने सभी क्षेत्रों में आग्रह पूर्वक संघ का सामाजिक आशय रखा।

मीनाक्षीपुरम का धर्मांतरण विषय भारत के राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में हलचल मचाने वाला विषय था। धर्मांतरण केवल पैसों के कारण नहीं होता, अपने समाज में जो कुछ गलत धारणाएं एवं परंपराएं है, उनके  कारण भी होता है। अगर धर्मांतरण की समस्या सुलझानी है तो, उसकी ओर देखने का हमारा दृष्टिकोण बदलना होगा। उस दृष्टिकोण में प्रामाणिकता अत्यंत आवश्यक है। अपने ही समाज बंधुओं की ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है, उनके साथ हम अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। यही बातें धर्मांतरण कामूल कारण हैं। इस पर हमें कुछ सोचना चाहिए। हमारी यह सोच गलत है कि केवल बाहरी शक्तियां ही धर्मांतरण का करण हैं। बालासाहब दृष्टिकोण स्पष्ट था। इसी चिंतन से आगे चलकर सामाजिक समरसता यह समाज को जोड़नेवाला विषय प्रारंभ हुआ।

उन्होंने संघ शाखा की संकल्पना को बहुत सटीक शब्दों से वर्णित किया है। संघ की शाखा केवल खेल खेलने या कदमताल करने का स्थान नहीं है, बल्कि समाज की रक्षा की अनकही शपथ है। युवाओं को नशाखोरी से दूर रखने का एक संकल्प है। संकट के समय लोगों की बिना शर्त सेवा तथा त्वरित कार्रवाई के लिए आशा की एक किरण है। महिलाओं के निर्भय होकर विचरण करने तथा उनके प्रति असभ्य व्यवहार करने वालों को रोकने की एक सशक्त गारंटी है। अमानवीय तथा राष्ट्रविरोधी ताकतों के समक्ष ताकत है। इसका महत्वपूर्ण अर्थ यह है कि संघ शाखा  कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की एक पाठशाला है, जो कि राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए युवा स्वयंसेवकों को तैयार करती है। सभी स्वयंसेवकों को राष्ट्र एवं समाज के प्रति जागृत करने वाली ऊर्जा संघ की शाखा में मिलती है। इस ऊर्जा को प्राप्त करने का माध्यम है शाखा में होने वाले खेल, जिन्हें हम संघ शाखा के दौरान खेलते हैं।

सही मायने में बालासाहब का नेतृत्व आपातकाल के कालखंड में संपूर्ण देश के सम्मुख समर्थ रूप में उभरा। आपातकाल में जब संघ पर प्रतिबंध लगा तब देश के सभी राज्यों में संघ स्वयंसेवकों को मीसा बंदी बनाया गया। किसी देश में आपातकाल घोषित करने का मतलब होता है, संविधान द्वारा देश के नागरिकों को प्रदान की गई स्वतंत्रता को दबा देना। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए किए गए दुस्साहस के कारण करोड़ों भारतीयों की स्वतंत्रता समाप्त की गई थी। इस काले कानून के विरोध में खड़ा रहना अत्यंत आवश्यक था। अपने संगठन से भी ज्यादा देशहित को अग्रक्रम देने की संघ स्वयंसेवकों की मनोवृति होती है। स्वयंसेवकों की इस राष्ट्र समर्पित मनोवृति का जागरण करके बालासाहब ने अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ संघ स्वयंसेवकों को इस आंदोलन में कूदने का आवाहन किया। घर-घर से संघ को समर्थन मिला। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व सापेक्ष वातावरण देश में निर्माण हो गया। संसदीय चुनाव घोषित हुए। बालासाहब ने भारतीय समाज में जो जागृति की थी, उससे भारतीय समाज में दमनकारी सरकार का पतन करने का दृढ़ निश्चय निर्माण हुआ था। उस दृढ़ निश्चय के प्रगटीकरण के कारण आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को करारी हार प्राप्त हुई थी। भारतीय नागरिकों में लोकतंत्र और व्यक्ति स्वतंत्रता को लेकर जो भाव था, उसकी प्रतिक्रिया संपूर्ण विश्व में दिखाई दी। विश्व भर में  सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत को मान्यता प्राप्त हुई। इस संपूर्ण परिवर्तन में बालासाहब देवरस का नेतृत्व कौशल अत्यंत महत्वपूर्ण था।

बालासाहब के नेतृत्व में आपातकाल में संघ ने अपने संगठन के बचाव के लिए नहीं, अपितु देश के लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने के लिए सर्वतोपरि संघर्ष किया था। आपातकाल के कालखंड में बालासाहब के विभिन्न नेतृत्व गुणों का दर्शन भारतीय समाज को हुआ। समाज को संघ में एक आधार दिखाई देने लगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सरसंघचालक यह पद अब तक संघ के स्वयंसेवकों तक ही सीमित माना जाता था, अब सरसंघचालक पद भारत के सार्वजनिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण माना जाने लगा।

बालासाहब का चिंतन वसुधैव कुटुंबकम की सोच रखता था। बालासाहब ने विदेश में संघ के कार्य को गति देने का संकल्प किया। उन्होंने इस काम को गति देने के लिए संघ प्रचारकों की विदेश में नियुक्ति की। इससे विश्व के विभिन्न देशों में हिंदू स्वयंसेवक संघ के कार्य को गति मिली। अब भारत में संपन्न होने वाले सेवा कार्यों को विदेश से बहुमूल्य योगदान मिलने लगा। प्रवासी भारतीयों से संबंध प्रस्थापित हो गए। लगातार 21 वर्ष सरसंघचालक के रूप में बालासाहब ने संपूर्ण देश में अनेक बार प्रवास किया। आग्रहपूर्वक आचरण और विचारों से उन्होंने सार्वजनिक जीवन में हिंदुत्व को फिर से प्रतिष्ठा का स्थान प्राप्त करवाया। बालासाहब का व्यक्तित्व आदर्शवाद एवं व्यवहारवाद का एक अद्भुत मिश्रण था।

एकात्मता रथ यात्रा,  राम जन्मभूमि का आंदोलन इ. सभी 1980 से 1990 के दशक की घटनाएं हैं। इस दशक में हिंदू शक्ति जागरण का दर्शन सारे विश्व में महसूस किया। समाज से जोड़ने वाले विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से स्वयंसेवकों के साथ हिंदू समाज का भी विश्वास दृढ होता गया। हिंदू समाज को जागृत करने की प्रक्रिया में बालासाहब का मार्गदर्शन अत्यंत महत्वपूर्ण था। 1989 में पू. डॉक्टर हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष के निमित्त बालासाहब ने संघ स्वयंसेवकों को सेवा रूपी नया आयाम दिया। सही मायने में संघ के लिए सेवा कोई नया विषय नहीं था। समस्या के समय, नैसर्गिक आपदा के समय, स्वयंसेवक वहां उपस्थित होकर कार्य करता ही था। अपने समाज का बहुत बड़ा हिस्सा निरंतर संकट में रहने वाला है। वह हमारी सेवा का केंद्र होना चाहिए। उनकी समस्या हमें जान लेनी चाहिए। इसी चिंतन से समाज के दुर्बल और उपेक्षित घटकों की ओर सेवा की दृष्टि से देखने का आयाम बालासाहब ने संघ स्वयंसेवकों के सामने प्रस्तुत किया। उसी  चिंतन में से आज लाखों सेवा कार्यों का विस्तार भारत में दिख रहा है।

राम जन्मभूमि आंदोलन में देश भर से आए राम भक्तों ने बाबरी ढांचे का पतन किया था। तब केंद्रीय शासन ने तीसरी बार संघ पर प्रतिबंध लगाया था। उस समय अस्वस्थ होने बाद भी उन्होंने स्वयंसेवकों का कुशल मार्गदर्शन किया। अपने खराब स्वास्थ्य कारण उन्होंने अपने ही जीवन काल में सरसंघचालक पद से स्वेच्छा से निवृत्ति ली थी और राष्ट्र कार्य को निरंतर आगे बढ़ाने के लिए रज्जू भैया को सरसंघचालक पद का दायित्व सौंपा था। उन्होंने अपना अंतिम संस्कार दोनों सरसंघचालकों की समाधि के निकट न करने का आग्रह किया था। उनकी इच्छा थी कि सामान्य नागरिकों का अंतिम संस्कार जहां किया जाता है, वहीं उनका अंतिम संस्कार किया जाए। संघ का सरसंघचालक सामान्य समाज में किस प्रकार समरस होता है, इस बात का आदर्श उन्होंने अपने कृति से प्रस्तुत किया।

बालासाहब का जीवन संघ के सात दशकों का इतिहास है। बालासाहब संघ दर्शन की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। वास्तव में बालासाहब के जीवन को संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार द्वारा गढ़ी गई एक सुंदर मूर्ति के रूप में देखा जा सकता है। डॉ हेडगेवार ने अपने संस्कारों से बालासाहब को तैयार किया और बालासाहब ने संघ को दिशा प्रदान की। संघ और संघ के स्वयंसेवकों पर उनका प्रभाव अमिट है और भविष्य में भी रहेगा। बालासाहब ने विस्तार की दिव्य दृष्टि दी। जो आदर्श व्यवस्था डॉक्टर हेडगेवार ने  निर्माण की थी, उस व्यवस्था को विस्तारित करने का काम बालासाहब ने किया। इससे जो परिवर्तन का युग प्रारंभ हुआ, वह आज हमारे सम्मुख विशाल रूप में प्रस्तुत है। वह कार्य आने वाले भविष्य में निरंतर आगे बढ़ेगा, यह विश्वास ही बालासाहब को सर्वोत्तम श्रद्धांजलि हो सकती है।

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