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गुरुजी: मैं तो मराठी भाषी हूं लेकिन मुझे हिन्दी पराई भाषा नहीं लगती है

गुरुजी: मैं तो मराठी भाषी हूं लेकिन मुझे हिन्दी पराई भाषा नहीं लगती है

by हिंदी विवेक
in विशेष, संघ
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20वीं शताब्दी में जिन राष्ट्र पुरुषों मनीषियों और चिंतकों ने भारत के समग्र विकास एवं उसे शक्तिपुंज बनाने के लिए जो विचार दर्शन दिया, उसके लिए महात्मा गांधी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी का नाम इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। श्री गुरु जी के पास हिन्दू राष्ट्र, संस्कृति की संकल्पना थी तथा हिन्दू समाज की एकात्मकता, संगठन तथा उसके समग्र विकास के लिए पूर्णतः तर्कसंगत विचार दर्शन था। इस विचार दर्शन के अनुसार भारत एक हिन्दू राष्ट्र था और है। उनके राष्ट्र दर्शन का आधार राष्ट्रीयता थी लेकिन इसके लिए वह वाणी और कर्म में एकता चाहते थे जिससे कार्य को सजीव रूप देकर जीवन की पद्धति को उचित दिशा में मोड़ा जा सके। 
 
सन 1966 फरवरी में गुरु जी ने एक शिविर में कहा था कि, हमारे कार्य में कोरी बातों का कोई स्थान नहीं है, भाषणों में भी हमारी रुचि नहीं है, लगातार बोलने में भी हमारा विश्वास नहीं है, शब्दों का जाल फैलाना भी हमें नहीं पता लेकिन फिर भी बोलना पड़ता है और हम निश्चयपूर्वक बोलते हैं और जो भी बोलते है उसे अपने कार्यों से सजीव करते हैं। अपने कार्यों द्वारा ही जीवन की पद्धति को मोड़ देते हैं। गुरुजी का पूरा बल अपने कार्य और कार्य पद्धति पर रहा, जिसके बाद वह व्यक्ति, समाज तथा पूरे राष्ट्र को संस्कारित एवं प्रभावित करते रहे। राष्ट्र जीवन का संपूर्ण क्षितिज उनके दृष्टि-पथ एवं विचार-पथ में था। श्री गुरुजी के सम्मुख भाषा और साहित्य की स्थिति ऐसी है, देश में जब भी भाषा को लेकर कोई समस्या उत्पन्न हुई, भाषा के आधार पर आंदोलन हुए, भाषा के आधार पर प्रांतों के बंटवारे की बात कही गयी या फिर कुछ साहित्यिक कृतियों से उनका सामना हुआ तो यही तथ्य उभरा कि निर्णय एवं मूल्यांकन की कसौटी के लिए राष्ट्र की एकता और अखंडता सर्वोपरि है एवं देश की संस्कृति तथा परंपरा पर कोई भी आघात असहनीय है। 
गुरुजी ने यह माना कि वह ना तो भाषाविद है और ना ही साहित्यकार, लेकिन उसके बावजूद वे साहित्य के अध्येता तथा सहृदय पाठक थे तथा देश की भाषा समस्या को गहराई से समझा था। जहां तक साहित्य का संबंध है उनका अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी और मराठी आदि भाषाओं से गहरा परिचय था। श्री गुरुजी ने अपने वक्तव्यों में शेक्सपियर के मैकबेथ, जूलियस सीजर तथा अमेरिकी उपन्यास अंकल टॉम्स केबिन की भी चर्चा की है। संस्कृत में वेद, उपनिषदों के साथ कालिदास के रघुवंश, आदि कृतियों संत कवियों में तुलसीदास, कबीरदास, मीरा, रामानंद, चैतन्य महाप्रभु आदि तभा मराठी कवि समर्थ रामदास, बांग्ला साहित्यकारों में रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र तथा गिरीश चंद्र घोष आदि का कई बार उल्लेख करते थे। गुरुजी ने कहा था कि हिन्दी को स्वीकार करने में कौन सी कठिनाई है मैं तो मराठी भाषी हूं लेकिन मुझे हिन्दी पराई भाषा नहीं लगती है हिन्दी मेरे अंतःकरण में उसी धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता का स्पंदन उत्पन्न करती है जिसका प्रसार मेरी मातृभाषा मराठी द्वारा होता है। 
गुरू जी हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती को भी नियमित पढ़ते थे और निराला की प्रसिद्ध कविता ‘वीणावादिनी वर दे’ का भी उल्लेख करते रहे। गुरुजी ने हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी सहित कई पुस्तकों की प्रस्तावना भी लिखी थी। श्याम नारायण पांडेय की काव्य कृति छत्रपति शिवाजी महाराज की भूमिका उन्होंने ही लिखी थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तक पॉलिटिकल डायरी का विमोचन उनके हाथों ही हुआ था। बंकिम चंद्र के प्रसिद्ध गीत वंदे मातरम की प्रशंसा में उन्होंने कहा कि इसमें राष्ट्र जीवन की सभी भावनाएं प्रकट हुई है। रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक ‘संस्कृत के चार अध्याय’ की कुछ स्थापनाओं से असहमत होते हुए भी उन्होंने ऐसे विद्वानों की राजभक्ति पर गहरी टिप्पणी की, उनका निष्कर्ष था कि पुस्तक में इतिहास में घटित हुई घटनाओं के साथ अघटित घटनाओं का भी वर्णन किया गया है। यह सभी को पता है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने, अंग्रेजी को भाषा बनाए रखने तथा भाषावार प्रांतों की रचना आदि को लेकर देश के विभिन्न भागो में तीव्र आंदोलन हुए, जिस पर गुरुजी ने गहराई से विचार रखा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक का भाषा दर्शन प्रस्तुत किया। इस भाषा दर्शन में संस्कृत भाषा पर उनके विचार राष्ट्रीय महत्व के हैं।  
गुरुजी की नजर में संस्कृत देववाणी है उसमें भारतीय जीवन के आधारभूत ज्ञान का मूल रूप विद्यमान है। वह भारत की आंतरिक एकता की अभिव्यक्ति करती है। वह सर्व प्राकृतिक भाषाओं की जननी है तथा उसका अध्ययन महान राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति करने वाला है। श्री गुरुजी के अनुसार संस्कृत सर्वोत्तम भाषा है। राष्ट्रीय एकता के लिए उसकी शिक्षा अनिवार्य है। प्राचीन समय में संस्कृत भाषा ही सार्वदेशिक व राजकीय व्यवहार की भाषा थी। परंतु संस्कृत से प्राकृत व अन्य भाषाओं का जन्म हुआ तो संस्कृत की कन्या हिन्दी ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया। 2 मार्च 1950 को एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन में गुरुजी ने कहा कि, ”इस देश की सभी भाषाएं हमारी और हमारे राष्ट्र की है पूर्व काल में जब हमारा देश स्वतंत्र था तब यहां का सब व्यवहार संस्कृत में होता था लेकिन धीरे धीरे संस्कृत की जगह प्राकृत ने ली और फिर संस्कृत भाषा से अनेक प्रांतीय भाषाओं का जन्म हुआ” 
 साभार-पाञ्चजन्य 

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