पाकिस्तान में ईशनिंदा का शोर मचा कर बर्बरतापूर्वक मारे गए श्रीलंकाई नागरिक प्रियंथा कुमारा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ चुकी है। यह रिपोर्ट किसी का दिल दहला देगा। इसके अनुसार उनकी मृत्यु खोपड़ी और जबड़े के टूटने के कारण हुई थी। उनके एक पैर को छोड़कर शरीर की सारी हड्डियां टूट गई थी। कुमारा के सभी प्रमुख अंग ,लीवर, पेट व किडनी बुरी तरह क्षतिग्रस्त थी। रीड की हड्डी तीन भागों भें टूटी थी । 99 प्रतिशत भाग झुलस गया था। कल्पना कर सकते हैं कि भीड़ ने किस बर्बरता से उनकी हत्या की। पाकिस्तान में ईशनिंदा के नाम पर यह कोई पहली हत्या नहीं है। हां, इस तरह की मजहबी हिंसा का शिकार ज्यादातर गैर इस्लामी पाकिस्तानी होते थे। इस बार एक पेशेवर विदेशी उसका शिकार हुआ है। प्रियंथा वहां सियालकोट में क्रीड़ा सामग्री का निर्माण करने वाली एक फैक्ट्री के प्रबंधक थे। जिन मजदूरों ने घेर कर बेरहमी से उनकी पिटाई की और मरने के बाद शव को जला दिया वह सब उनके साथ काम करते थे। जाहिर है, उनमें से अनेक का व्यक्तिगत रिश्ता भी उनके साथ रहा होगा। एक वीडियो फुटेज में दिख रहा है कि प्रियंथा का एक सहयोगी भीड़ में कूदकर बचाने की कोशिश करता है लेकिन सब ने उसे भी पीटना शुरू कर दिया। एक व्यक्ति भीड़ से अपील कर रहा है कि प्रियंका के शव को ना जलाएं। उसे भी धकेल कर भगा दिया गया।
उन्मादी भीड़ ऐसे ही कर सकती थी। सच तो यह है कि उन्मादी भीड़ एक जश्न की तरह हत्या को अंजाम दे रहा था। बताया जा रहा है कि उग्रवादी की तहरीक-ए- लब्बैक या टीएनपी ने एक पोस्टर फैक्ट्री की दीवार पर लगाया था। कुमारा ने उसे हटा दिया था। उसमें कुरान की कुछ पंक्तियां लिखी थी। फैक्ट्री के किसी मजदूर ने उसे पोस्टर हटाते देख लिया और हल्ला कर दिया कि उसने कुरान को अपमानित कर ईश निंदा की है। श्रीलंकाई नागरिक होने के कारण शायद वह लिखी बातों को पढ़ भी नहीं पाया होगा। उसे पता भी नहीं होगा कि उस पर कुरान की पंक्तियां है। वैसे भी फैक्ट्री पर बहुत सारे पोस्टर लगाए जाते हैं और लोग फाड़ कर फेंक देते हैं जो सामान्य घटना होती है। कोई एक कल्पना का वीजा कैसे सकता है कि पोस्टर फाड़ देना ईशनिंदा का कारण हो जाएगा। मजदूरों ने शोर मचाया और सबने मजहबी फर्ज मान उसकी हत्या कर दी।
हत्या करते समय जो नारे लग रहे थे वे वही हैं जो हम भारत के अन्य भागों में भी यदा-कदा सुनते लगे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर थू-थू होने के बाद प्रधानमंत्री इमरान खान ने इसकी निंदा की। पुलिस कार्रवाई कर रही है। काफी संख्या में लोग गिरफ्तार किए गए हैं। लेकिन इससे यह मत मानिए कि पाकिस्तान में ऐसी घटना का विरोध होगा या गिरफ्तार होने वाले स्वयं को दोषी मानेंगे। अगर जनमत सर्वेक्षण करा लिया जाए तो भारी बहुमत इस हत्याकांड का समर्थन करेगा। मजहब का अपमान करने वाली की सार्वजनिक पिटाई से हत्या उनकी नजर में गलत हो ही नहीं सकता । हां ऐसा नहीं होता तब उसे अवश्य गलत माना जाता । इमरान खान चाहे निंदा के जैसे शब्द प्रयोग करें, उन्होंने स्वयं रियासत-ए- मदीना जैसा मजहबी नारा दिया है। इसके पहले राष्ट्रपति जिया उल हक ने निजाम- ए -मुस्तफा जैसा मजहबी नारा दिया था। इन मजहबी नारों से कैसा समाज और देश बन सकता है इसके बारे में अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।
इमरान खान नया पाकिस्तान बनाने के नारे से सत्ता में आए थे। वह एक अक्षम प्रधानमंत्री साबित हुए हैं लेकिन कोई योग्य प्रधानमंत्री भी हो तो पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी इस्लामिक अवधारणा की चासनी में सराबोर हो चुका है उसमें उदार लोकतांत्रिक समाज वाले देश की कल्पना संभव नहीं है। इमरान खान एक चेहरे में कई चेहरा छुपाए रखते हैं जैसे व्यक्तित्व ही साबित हुए हैं। उनकी वैसी तकरीरें सामने आ रही हैं जिनमें वे बताते हैं कि किस प्रकार से रसूल का झंडा केवल विजय दिलाता है। यानी एक दिन संपूर्ण दुनिया में इस्लाम की विजय होगी। वे तहरीक-ए-लब्बैक या ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों की सार्वजनिक रूप से मुखालफत कर रहे हैं। इन्हीं इमरान खान ने तौहीन-ए- रिसालत यानी रसूल के अपमान के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय कानून बनाने की मांग उठाई है।
जो व्यक्ति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे कानून चाहता है वह अपने देश में इसके विपरीत सोच कैसे रख सकता है ? सच यही है कि इमरान खान स्वयं इस्लाम के बारे में मध्ययुगीन विचार वाले हैं और उन्होंने अपने आवाम को अब तक मजहबी कट्टरता और उन्माद के अंधेरी सुरंग की ओर ही ले जाने की कोशिश की है। भारत के सेक्यूलर लिबरल समूह को थोड़ा ठंडे मन से विचार करना चाहिए कि आखिर निजाम -ए -मुस्तफा या रियासत -ए -मदीना की असलियत क्या है? हमारे देश में भी यदा-कदा यह नारा सुनने को मिल जाता है कि गुस्ताख -ए -रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा ,सर तन से जुदा। अभी महाराष्ट्र में हुई हिंसा के दौरान ये नारे सुने गए। यह बात अलग है कि भारत में इसका व्यापक विरोध होता है और कार्रवाई भी होती है।
वास्तव में भारत का संपूर्ण वातावरण ऐसा है ,जिसमें इस तरह के मजहबी कट्टरपंथ और उन्माद को समाज में कभी समर्थन नहीं मिल सकता। लेकिन एक बड़ा समूह कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के लिए लगातार सक्रिय है। कुछ लोग इनकी उदार व्याख्या करके देश की आंखों में धूल झोंकने की भी कोशिश करते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने अयोध्या पर अपनी विवादित पुस्तक के संदर्भ में कई साक्षात्कार दिए। एक साक्षात्कार में वे टीवी पर बोल रहे हैं कि हमारे यहां निजाम- ए -मुस्तफा और गांधीजी का रामराज्य एक ही बात है। निजाम -ए -मुस्तफा जहां भी है वहां की कट्टरता पूरा विश्व देख रहा है। निजाम -ए -मुस्तफा में किसी दूसरे पंथ या मजहब के लिए कोई स्थान नहीं है। अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च ने अपने शोध में बताया है कि दुनिया के 26 प्रतिशत देशों में पाकिस्तान की तरह का कठोर ईशनिंदा कानून है। इनमें अगर साबित हो जाए कि आरोपी ने मजहबी भावनाओं को ठेस पहुंचाया है या मजहब का अपमान किया है तो उसे भयानक सजा मिलेगी। ऐसे 70 प्रतिशत से ज्यादा इस्लामी देश है।
सऊदी अरब और ईरान में ईशनिंदा के विरुद्ध मौत की सजा की खबरें समय- समय पर आती रहती है। इनमें सऊदी अरब सुन्नी है तो ईरान शिया। इसलिए इस्लाम का दोनों मुख्य पंथ इन मामलों में एक ही स्थान पर खड़ा है। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए कानून नहीं है। है, पर उनमें सामान्य दंड के प्रावधान है। पाकिस्तान या अन्य इस्लामी देशों में ईशनिंदा जैसा कानून पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा विभाजित मध्ययुगीन व्यवस्था का विस्तार ही है। सच यही है कि ये देश मजहबी और सामाजिक व्यवहारों में उस काल से निकलने को ही इस्लाम विरुद्ध मानते हैं। इस मानसिकता से गढी गई व्यवस्था और खड़ा हुआ समाज खुलेपन और उदारता को स्वीकार नहीं कर सकता । वह मजहबी अंधता की बंद चारदीवारी के भीतर ही स्वयं को कैद रखेगा । तभी तो मोहम्मद साहब पर कार्टून या किसी प्रकार इस्लाम के सामान्य आलोचनात्मक लेख या पुस्तक क हत्या के फतवा से लेकर आतंकवादी हमले का कारण बन जाते हैं। क्या भारत में यह कल्पना की जा सकती है कि दीवार से चिपकाया गया पोस्टर हटा देना ईशनिंदा माना जाएगा और पूरा समूह बर्बर हत्या को अंजाम दे देगा?
भारत और पाकिस्तान में यही मौलिक अंतर है। दोनों अपनी स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। एक देश ऐसे मजहबी जुनून का उदाहरण बन गया है जो विश्व भर में घटित अनेक आतंकवादी हमलों का स्रोत साबित होता है तो दूसरा अपनी विविधताओं के बावजूद विश्व में सफल लोकतंत्र और उदार समाज और संस्कृति का उदाहरण बना हुआ है। भारत में जहां इस्लाम और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदाय को पूरा अधिकार है तथा उनकी आबादी लगातार बढ़ी है वहीं पाकिस्तान में गैर मुस्लिमों के लिए मनुष्य की गरिमा को बनाए रखना असंभव हो गया और इनकी संख्या लगातार घटती गई है। वहां किसी हिंदू, सिख या ईसाई लड़की को उठाकर जबरन धर्म परिवर्तन और निकाह का विरोध आम समाज का बहुमत नहीं करता। प्रियंथा कुमारा की बर्बर हत्या के विरुद्ध आपको आम पाकिस्तानियों द्वारा निकाला गया कोई जुलूस किया विरोध प्रदर्शन नहीं दिखेगा। इस मानसिकता में आप इससे परे मानव जनित व्यवहार की कल्पना कर ही नहीं सकते। वास्तव में यही वहां के लिए स्वाभाविक मानवीय व्यवहार है। अगर इसके विपरीत कभी कुछ हो जाए तो फिर मानना पड़ेगा कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है।