मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से लिंक करना अब कानून का रुप ले चुका है। यह जिस तरह विवाद और राजनीतिक बहस का मुद्दा बन गया है उससे साफ है कि लंबे समय तक इस पर तीखी बहस होती रहेगी। हमारे देश में आधार कार्ड या ऐसे सभी पहचान पत्रों से संबंधित कारणों को लेकर विवाद हमेशा से रहे हैं। जो पार्टी विपक्ष में होती है वह प्रश्न उठाती है और सत्तारूढ़ पार्टी सही ठहराती है। जब चुनाव आयोग ने मतदाता पहचान पत्र का प्रस्ताव सामने लाया तो अनेक राजनीतिक दल ही नहीं मजहबी आधार पर भी उसका विरोध हुआ। पैन कार्ड आरंभ करने का भी विरोध हुआ। आधार कार्ड को लेकर तो इसके आरंभ से अभी तक लगातार विवाद बना हुआ है। नीचे से ऊपर तक के न्यायालयों में कई मामले गए। इससे संबंधित उच्चतम न्यायालय के कई फैसले आ चुके हैं। इन सब विवादों और विरोधों के बावजूद देश के ज्यादातर लोगों ने ये सारे पहचान पत्र बनवा लिए हैं और जिनके पास नहीं है वो इसकी कोशिश कर रहे हैं। इसका अर्थ यही है कि भले राजनीति और एक्टिविज्म के स्तर पर आशंकाओं और विरोध किए जाएं देश का बहुमत पर इसका असर न के बराबर है। यही इस मामले में भी होगा। इस समय भी करीब 20 करोड़ के आसपास ऐसे मतदाता हैं, जिनका मतदाता पहचान पत्र आधार कार्ड से जुड़ चुका है।
अगर आदर्श सिद्धांतों की बात करें तो किसी भी व्यवस्था में समाज के आम आदमी के लिए हमेशा सरलता, सुगमता सहजता की स्थिति होनी चाहिए। जितने हम पहचान पत्रों के लिए कार्ड बनाते हैं ,आम आदमी की समस्याएं उतनी बढ़ती है। दुर्भाग्य से इन ज्यादातर कार्ड में अंग्रेजी नाम को प्रमुखता दी जाती है। इस कारण अनेक भारतीय नाम बिगड़ जाते हैं। एक ही व्यक्ति के अलग-अलग पहचान पत्रों में नाम के स्पेलिंग में अंतर हो जाते हैं और इस कारण उसे भारी परेशानियां उठानी पड़ती हैं। कोई राजनीतिक दल, जन संगठन या एक्टिविस्ट, न्यायालय इस समस्या की ओर ध्यान नहीं देता।
इस मूल विषय को छोड़ कर हम अगर आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र पर लौटे तो सारे विवादों का पहला निष्कर्ष यही होगा कि ज्यादातर मुद्दे राजनीतिक तौर पर और विरोध के लिए विरोध करने की मानसिकता से उठाए जा रहे हैं। हर प्रकार के कार्ड का दुरुपयोग उसको मांगने वाली एजेंसियों द्वारा किए जाने की संभावना रहती है और रहेगी। लेकिन यह न भूलें कि भारत में मतदाता पहचान पत्रों की सुरक्षा का चुनाव आयोग का वायदा अभी तक संतोषजनक रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में पिछली बार मतदाताओं के पहचान पत्रों के व्यापक गड़बड़ी की शिकायत हुई। यहां तक आरोप लगा कि किसी दूसरे देश ने सारे डेटा लेकर चुनाव में हस्तक्षेप किया। चुनाव आयोग यह वचन दे रहा है कि आधार कार्ड से पहचान पत्र को लिंक करने के बावजूद सभी व्यक्तियों की पूरी जानकारी सुरक्षित रहेगी तो इस पर विश्वास किया जाना चाहिए। हां ,इसकी निगरानी करने इस पर नजर रखने की आवश्यकता अवश्य है।
सरकार ने विपक्ष के साथ विचार-विमर्श नहीं किया या वह इस पर बहस नहीं होने देना चाहती इस विषय पर दो राय हो सकते हैं। इस संदर्भ में भी यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि आज से तीन दशक पहले तत्कालीन कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता में चुनाव सुधार संबंधी एक समिति बनी। तब से अभी तक स्वयं चुनाव आयोग चुनाव सुधारों को लेकर न जाने कितने प्रस्ताव दे चुका है। वह सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों की अनेक बैठकर बुला चुका है। इन बैठकों में मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोड़े जाने का प्रस्ताव भी शामिल रहा है। 2012 में जब इसका प्रस्ताव आया तब से 9 वर्ष बीत चुके हैं। कोई कहे कि इस पर विचार विमर्श बहस नहीं हुआ तो यह उसकी मान्यता होगी चुनाव आयोग और चुनाव सुधार संबंधी प्रस्तावों पर दृष्टि रखने वालों के लिए इस तर्क में कोई दम नहीं है। संसद में स्थाई समिति के पास किसी विषय को भेजना वैधानिक रूप से मान्य हो सकता है पर कुछ ऐसे मामले हैं जिन पर तत्काल निर्णय किया जाना चाहिए।
मूल बात यह नहीं है कि इस पर बहस हुई या नहीं हुई ,जल्दीबाजी में लाया गया या देर से किया गया महत्वपूर्ण यह है कि इसकी आवश्यकता थी या नहीं। मार्च, 2015 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा ने राष्ट्रीय मतदाता सूची शुद्धिकरण और प्रमाणीकरण कार्यक्रम यानी एनईआरपीएपी नामक एक कार्यक्रम शुरू किया था। इसका एक लक्ष्य आधार और मतदान पहचान पत्र को लिंक करना भी था। उसी समय एक जनहित याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने अंतरिम आदेश पारित किया था। इसमें कहा था कि आधार का इस्तेमाल राज्य द्वारा खाद्यान्न और रसोई बनाने के ईंधन के वितरण की सुविधा प्रदान करने के अलावा किसी और उद्देश्य नहीं किया जा सकता है। इस समय भी उस फैसले को उद्धृत करके कहा जा रहा है कि वर्तमान कदम उसके विरुद्ध है। यह तर्क दिया जा सकता है लेकिन ध्यान रखिए कि तब न्यायालय के सामने मतदाता पहचान पत्र के साथ इसे लिंक करने का मामला सामने नहीं आया था।
कोई ऐसा विषय नहीं है जिसके विरोध में तर्क न दिया जाए। कुछ लोग इसमें भारतीय संविधान और जनप्रतिनिधि अधिनियम 1951 के तहत मतदान के अधिकार तक का हनन मानने लगे हैं। तो इन सब पर बहस हो सकती है लेकिन ऐसा कोई ठोस तर्क नहीं जिसके आधार पर चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव को पूरी तरह खारिज किया जा सकता था।
चुनाव आयोग ने इसके पक्ष में जो तर्क दिए हैं उसके अनुसार इससे मतदाताओं की पहचान सत्यापित होगी और फर्जी मतदान रोका जा सकेगा। राजनीतिक पार्टियां ही मतदाता सूचियों में गड़बड़ी का प्रश्न उठाते रहे हैं। उसे रोकने के कई तरीके हो सकते हैं जिसमें वर्तमान ढांचे में आधार कार्ड से उसको लिंक करना शायद सर्वाधिक सुरक्षित रास्ता है। दूसरे , इससे चुनाव प्रक्रिया आसान होगी और भविष्य में इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट आधारित मतदान प्रक्रिया लागू करने में सहायता मिलेगी। तीषरे, प्रवासी मतदाताओं को मतदान करने का अवसर मिलेगा और प्रॉक्सी मतदान को आसान बनाने के लिए मतदान का सत्यापन करना आसान हो जाएगा। इस समय लगभग 50 लाख अनिवासी भारतीयों को मतदान करने की इजाजत मिली है। देश के अंदर ही करोड़ों की संख्या में ऐसे मतदाता हैं जो अपने मूल स्थान से बाहर आते हैं और उन्हें मतदान का अवसर नहीं मिलता। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स इनका आंकड़ा 28.5 करोड़ यानी कुल पंजीकृत मतदाताओं का 38% बताता है। हालांकि चुनाव आयोग का कहना है कि यह 10 से 12 करोड़ के आसपास होगा। अगर संख्या इन दोनों के बीच में हो तब भी यह बहुत बड़ी आबादी है जो मतदान से वंचित रह जाती है। ऐसे अनेक पहलुओं से मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोड़ने का मामला सही ठहर जाता है।
निजता से जुड़े प्रश्न आधार कार्ड के साथ हमेशा जुड़े रहे हैं। हालांकि इसकी सच्चाई यही है कि देश के ज्यादातर लोग मोबाइल का सिम लेने में भी बिना किसी संकोच के आधार कार्ड दे देते हैं। देश में इसका आंकड़ा निकाला जाए तो भारत में ज्यादातर मोबाइल प्रयोग करने वालों ने अपना आधार कार्ड कंपनी को दिया हुआ है। आज आधार कार्ड आम व्यक्ति के लिए मुख्य पहचान पत्र बन चुका है और लोग इसका सहजता से इस्तेमाल करते हैं। बहुत सारे लोगों का तर्क होता है कि मेरा डाटा या मेरी जानकारी किसी के पास पहुंची ही जाए तो उससे समस्या क्या है? निजता की रक्षा का तर्क देने वाले लोग भारत के आम व्यक्ति को ही इसकी आवश्यकता ठीक से समझा नहीं सके।
आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का ध्यान रखते हुए सरकार के इरादे पर प्रश्न उठाया जा सकता है। प्रश्न किया जा सकता है कि ठीक चुनाव के पहले ही सरकार को इसकी याद क्यों आई? हो सकता है सरकार के इरादे में राजनीतिक लाभ का भी विषय हो, परंतु चुनाव आयोग को यह कदम सही लगता है तो देश को उस पर विश्वास करना चाहिए। वैसे भी मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोड़ने को अनिवार्य नहीं बनाया गया है। इसे स्वैच्छिक रखा गया है। इसमें इतना ही है कि मतदान पहचान पत्र बनाने वाले कर्मचारी लोगों से आधार कार्ड मांग सकते हैं। जब भी ऐसे कदम उठाएंगे उसको राजनीतिक लाभ-हानि से जोड़कर देखा जाएगा और सत्तारूढ़ पार्टी हमेशा निशाने पर रहेगी। हमारे देश में हर वर्ष विधानसभाओं या स्थानीय निकायों के चुनाव कहीं न कहीं होते रहते हैं और इसके आधार पर महत्वपूर्ण कदमों को रोका जाना किसी दृष्टि से उचित नहीं होगा। इसी संदर्भ में देश के संपूर्ण चुनावों को एक निश्चित अवधि के तहत निणणपटा देने का प्रस्ताव आया हुआ है जिस पर भी अनेक राजनीतिक दल एनजीओ और एक्टिविस्ट प्रश्न उठा रहे हैं। बाहर हाल धीरे-धीरे देश को यह कार्ड एक पहचान पत्र की ओर बढ़ना चाहिए। एक ही ऐसा पहचान पत्र बने जिसमें आधार नंबर पैन नंबर मतदाता पहचान पत्र संख्या आदि शामिल हो ताकि अलग-अलग कारणों को एक दूसरे से जोड़ने और उन सबको साथ लेकर चलने की आवश्यकता खत्म हो जाए।