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लंकाकाण्ड की प्रतीक्षा

लंकाकाण्ड की प्रतीक्षा

by आर. वी. सिंह
in राजनीति, विशेष
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प्रथम विश्वयुद्ध क्या यूरोप के किसी संविधान या कानूनी व्यवस्था के अन्तर्गत हुआ था ? युद्ध हुआ, पुराने साम्राज्य खंडित हुए, नये देश बने| बिस्मार्क और कैसर, मेजिनी, गैरीबाल्डी क्या संविधान के संशोधनों की प्रतीक्षा कर रहे थे कि यह हो जाए तब संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार हम राष्ट्रीय क्रांतियों का आगाज करें ? द्वितीय विश्वयुद्ध भला किस वैश्विक संविधान या मैण्डेट के तहत हुआ था ? शक्ति संतुलन का पुराना सिद्धांत है जो भौगोलिक आर्थिक सामाजिक व सांस्कृतिक आधारों के सहारे बदलता रहता है| आज के 57 इस्लामिक देशों में से तो बहुत से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आटोमन साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर नक्शे की लकीरें खींच कर पैदा किये गये थे|

जब देश बन जाता है तो वे जिन्हें सत्ता मिलती है वे अपनी व्यवस्था संचालन के लिये संविधान लिखते हैं, कानून के शासन की व्यवस्था बनाते हैं| यह शांतिकालीन यथास्थितिवादी व्यवस्था है| अर्थात युद्ध भी उतने ही सत्य हैं जितना शांतिकाल व शांति कालीन ग्रंथ, संविधान| संविधान युद्धों अथवा अशांतियों के मध्य के काल की व्यवस्था बनता व उसका संचालन करता है| इस्लामिक शासन से पहले भारत का अपना सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक परंपरागत नैतिक संविधान था जिसका मजहबी वर्चस्व के बाद लोप होता गया व फिर लम्बे समय तक इस्लामिक शासकों की पोषक हितबद्ध व्यवस्था चली| वह हमारी गुलामी का एक संविधान था| ऐसा ही संविधान भारत के आर्थिक दोहन शोषण के लिए अंग्रेजों ने बनाया था| वह भी हमारी गुलामी का संविधान था जो 1947 तक कायम रहा| संविधान इतिहास नहीं लिखता, वह इतिहास का परिणाम होता है|

सन् 1947 में हमें गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के तहत सत्ता अधिकार का हस्तांतरण हुआ| हमारी आजादी के अंतिम अभियान, ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का सन् 1942 में ही अंत हो चुका था| उसके बाद का समय तो मुस्लिम लीग के ब्लैकमेल, तुष्टीकरण, हिंदू-मुस्लिम दंगों, अंग्रेजों की चालों व विभाजन के हिंसक दौर में व्यतीत हुआ था| फिर सैन्य विद्रोह की आशंका के मद्देनजर विभाजन के साथ सत्ता हस्तांतरण की योजना अमल में लाई गयी| हमने खुशियां मनाई कि हमें बिना खड्ग बिना ढाल के आजादी जो मिल गयी है| हम आजाद हो गये| हमने संविधान लिखा, चुनाव हुए और देश चलने लगा|

संविधान विधि-व्यवस्थाएं राष्ट्र के लिये होती है, संविधान के लिये राष्ट्र नहीं होता| अर्थात राष्ट्रहित सर्वोच्च होता है| संविधान का उद्देश्य राष्ट्र की विभाजनकारी शक्तियों की सुरक्षा, उनका सशक्तीकरण तो हो ही नहीं सकता| न ही संविधान का उद्देश्य भारत के धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण व चरित्र को बदलने का ही हो सकता है| संविधान का या विधि-व्यवस्था का उद्देश्य भारत की जनसांख्यिकी या डेमोग्राफी या आबादी के आपसी अनुपात को बदलने का भी नहीं हो सकता| अर्थात हमारे संविधान का उद्देश्य हिंदू धर्म का समापन, मजहबी शासन की स्थापना, धर्म परिवर्तन कराना तो कदापि नहीं हो सकता| क्या संविधान निर्माता चाहते थे कि देश के हिंदू अपना धर्म छोड़कर ईसाई-मुस्लिम हो जाएं ? यदि नहीं तो यह संविधान ऐसा होने कैसे दे रहा है ? ऐसा प्रावधान इसलिए नहीं डाला गया क्योंकि तब ऐसी आशंकाओं की जो आज हमारे सामने खड़ी हैं, कोई कल्पना भी नहीं थी| यह कैसे हुआ कि हमारे संविधान की उदारता ने राजनीति के घोर अपराधीकरण का मार्ग प्रशस्त किया ? हमारी संसद व विधानसभाओं में इतने अधिक अपराधी क्यों हैं ? उत्तर प्रदेश के अपराध जगत से आए एक क्षेत्रीय नेता पर इतने आपराधिक मुकदमे थे कि वे वीपी सिंह जी के काल में एनकाउंटर सूची में सरे फेहरिस्त थे|

हमारे मेहरबान संविधान की बदौलत वे राजनीति की सीढ़ियां चढ़ते हुए बस प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गये थे| बहुलतावाद क्यों अलगाववाद में परिवर्तित होने लगा ? एकात्म होने की दिशा में बढ़ने से भारत को रोकने के कार्य को संवैधानिक सहारे क्यों मिलते गये ? एक शिक्षा नीति हमारे एकात्म संविधान का लक्ष्य क्यों नहीं रहा ? संविधान ने कभी पूछा कि वे दल जो मात्र एक राज्य एक भाषा तक सीमित व राज्य की क्षेत्रीयता पर ही आधारित हैं, क्या उनमें भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति श्रद्धा व समर्पण कभी जाग्रत हो भी सकेगा ? क्या वे अपने छुद्र स्वार्थों को राष्ट्रहित के ऊपर नहीं रखेंगे ? वे क्या केंद्रीय सत्ता को लगातार चुनौती देने व गठबंधनों का दबाव बनाकर ब्लैकमेल करने का कार्य नहीं करेंगे ? संविधान इस प्रकार से व्यवहार क्यों करता है जैसे देश के राज्यों ने एक संघ बनाकर समझौते से यह देश बनाया हो ? संविधान में ऐसी विषमताओं के प्रकट होने पर तात्कालिक समाधान के प्रावधान क्यों नहीं हैं ? राजनैतिक परिवारवाद की परंपरा के संकट पर संवैधानिक प्रतिबंध क्यों नहीं सोचा गया ? चलिए, मान लिया कि आगे इतना बुरा वक्त आएगा, यह उदात्त विचारों के हमारे संविधान निर्माता भला कैसे सोच पाते| फिर पुनर्विचार का कोई प्रावधान डाला गया ? नहीं| अर्थात आपकी महानताओं की ही सजा तो देश भुगत रहा है| जिस तरह भारतीय संविधान की आधारभूत अवस्थापनाएं हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता उसी तरह भारतीय धर्म संस्कृति को भी परिवर्तित नहीं किया जा सकता, यह हमारे संविधान का भाग क्यों नहीं बना| हमारा संविधान यदि हमारा है तो वह विदेशी धर्मों संस्कृतियों के पोषण व विस्तार के लिये नहीं है| लेकिन हमारी आंखों के सामने यह अभियान पूरी ताकत से चल रहा है| जो राष्ट्रशत्रु हैं इसी संविधान की दुहाई दे रहे हैं|

हिंदू समाज कितने मजहबों, पंथों की अनायास की शत्रुता झेलेगा, भला कौन सोच पाता ? आज का यह अपराधबोध हमारा समाधान नहीं है| हमारा संविधान तो एक जीवंत सजीव ग्रंथ होना चाहिए जो राष्ट्र-निरपेक्ष या राष्ट्रविरोधी शक्तियों पर बलपूर्वक प्रहार में सक्षम हो| वह संचेतन आत्मायुक्त ग्रंथ होना चाहिए| यह ग्रंथ राष्ट्रशत्रुओं को संदेह का लाभ देने के लिए नहीं है| यदि ऐसा नहीं हो पा रहा है तो यह अत्यंत अस्वाभाविक, दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है| आज संविधान का उपयोग राष्ट्रीय हित की विरोधी शक्तियां इस प्रकार कर रही है जैसे वह राष्ट्रशत्रुओं के लिए ही लिखा गया हो| ||| जिससे राष्ट्र को ही स्थायी रूप से अशक्त विकलांग बनाया जा सके| हमारे संविधान निर्माता समझ क्यों नहीं सके कि भारत के शरीर में जीवित रह गयी अलगाववादी शक्तियां, बहुलतावादी विचारों को क्रमशः विभाजनकारी तर्कों में तब्दील कर देंगी| ऐसा लग रहा है कि जैसे हमारी व्यवस्था का नियंत्रक कोई रोबोट हो जिसे सेल्फ-डिस्ट्रक्शन अर्थात स्वयं को नष्ट करने देने का कमांड दे दिया गया हो| हम असामान्य स्थितियों की ओर बढ़ रहे हैं जो एक भावी शक्तिसंघर्ष की आशंकाओं के घने बादलों की ओर इशारा कर रहा है|

हमें आजादी, युद्ध के परिणामस्वरूप नहीं बल्कि अंग्रेज शासकों से समझौते के तहत, उनकी विभाजनकारी शर्तों के अनुसार प्राप्त हुई है| यदि आजादी का युद्ध हुआ होता तो अंग्रेजों के साथ उनको सहयोग देने वाली, देश बांटने वाली शक्तियों का भी विनाश, पलायन हो जाता| त्रिपक्षीय समझौते से प्राप्त पंचायती आजादी के कारण राष्ट्रशत्रुओं का विनाश नहीं हो सका| जब आजादी का कोई युद्ध ही नहीं हुआ, तो परिणामस्वरूप वे यहीं पर सुरक्षित बचे रह गये| हमारे सामने अमेरिका का उदाहरण है| बात वर्ष 1861 से 1865 तक की है जब अमेरिका में राष्ट्रपति लिंकन के काल में गुलामी के मुद्दे पर भीषण गृहयुद्ध हुआ था| फर्ज करें कि भारत में भी मजहबी विभाजन के मुद्दे पर यदि गृहयुद्ध छिड़ गया होता तो वर्ष दो वर्ष के युद्ध के उपरांत निश्चय ही बहुत सी विभाजनकारी शक्तियों का विनाश हो गया होता और वे कभी राष्ट्र के लिए समस्या न बनतीं| लेकिन ऐसा हुआ नहीं| सत्ताधिकार गांधी-नेहरू के पास आया जिसे उन्होंने नैतिकताओं के उच्चतर प्रतिमानों के आवरण के अंदर क्षुद्रताओं के हित साधन के लिए चलाना चाहा|

गांधी अपनी कल्पनाओं के ग्रामों के संसार में जाकर आदर्शवादी आत्मनिर्भर व सदा के लिए यथास्थित ग्राम व्यवस्था की बात करते हैं| लेकिन वे तो आजादी के नेतृत्वकर्ता व एक विशाल देश के परोक्ष संचालक थे| यह विशाल देश कैसे चले, इस पर वे कुछ नहीं कहते| संविधान सभा की बैठकें हो रही हैं| आपने उसकी कार्यवाहियों से किनारा कर लिया है| भला क्यों ? आप संविधान सभा के अध्यक्ष क्यों नहीं हैं ? इतिहास कहता है कि आपने देश आजाद कराया है| तो आप स्वयं के द्वारा आजाद कराये गये देश को व्यवस्था देने के दायित्व से बच क्यों रहे हैं ? क्या कारण है ? यह देश खंडित कैसे हो गया ? जाहिर है कि देश आपकी अतिशय अहिंसक नीतियों के प्रभाव से खण्डित होने की दिशा में बढ़ रहा था| यह अहसास आपको निश्चय ही 1942 के असफल आंदोलन के बाद हो गया था| आपने क्या किया ? आपने सत्य के साथ अपने प्रयोगों में अपनी असफलता के इस विशाल सत्य को स्वीकार क्यों नहीं किया ? राजनैतिक लक्ष्य के लिये अहिंसा का सिद्धांत असफल रहा, यह स्वीकार करना चाहिए था| आपकी अहिंसा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था अखण्ड भारत का भविष्य ! आपके ईश्वर अल्ला तेरो नाम के फरेब से बहुत बड़ी हैं भारत की सांस्कृतिक परंपराएं ! जो हमें मिली, क्या वह आजादी थी ? एक खण्डित आजादी ! आपके नकली सिद्धांत की बलिवेदी पर यह देश चढ़ गया| हमें राजघाट पर गांधी जी की समाधि पर अवसाद हो उठता है| यह शहादत तो लिंकन के समान भारत के विभाजन को रोकने के लिए होनी थी| तब यह स्थल अखण्ड भारत का महान् तीर्थ होता !

जब नेताओं ने विभाजित देश स्वीकार कर लिया और उच्च नैतिक आदर्शों की लक्ष्यविहीन दायित्वबोध विहीन व्यवस्था स्थापित की तो उस व्यवस्था में लोकतंत्र पहले ही चुनावों से मजाक बन गया जब दिल्ली ने किसी को जिताने, किसी को हराने के निर्देश देने प्रारंभ किये| चुनाव हारे हुए मौलाना आजाद को जिता दिया गया| शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में 75 में से 73 सीटें पर्चा खारिज करा के जीत लीं| उसी दिन से भविष्य में युद्ध का होना अवश्यंभावी हो गया था| आज हम बंगाल, कश्मीर, पंजाब, केरल में विभाजनकारियों को सशक्त होते देखते हैं| विदेशी मजहबी शक्तियों को यहां नियंत्रण की स्थितियों में आते हुए देखते हैं तब अहसास होता है कि अरे, यह तो युद्धकाल आ गया है| यह शांति के ढकोसलों व भाईचारे के नकली नारों से नहीं जाने वाला| यह बलिदान लेगा| आपकी गलतियों से यह भूमि पुन: रक्तप्लावित होगी| अब जब युद्ध होना निश्चित है तो उसकी तैयारियां होनी चाहिए| दूसरे खेमा तो अपनी तैयारियां बहुत आगे जा चुका| यहां शांतिकालीन भरम कायम है|

शांति के समय युद्ध की तैयारियों को भूले रहने का परिणाम हमने सन् 1947-48,1962 के कश्मीर व चीन से युद्धों में देखा ही है| मूर्ख नेताओं की जमातें सेनाओं को लक्ष्य कर उन्हें ही खत्म करने पर आमादा हो रही थी| हमारे नेतृत्व की कायरता व गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1947 की बदौलत पैदा हुआ देश पाकिस्तान कश्मीर को अपना लक्ष्य बनाता है और हमसे आकार में 1/5 साइज का होने के बावजूद हम पर चार-चार हमले करता है| हमारे यहां वह कश्मीर में, पंजाब में, पूर्वोत्तर में आतंकवाद फैलाता है, परोक्ष युद्ध करता है| हमारे कायर नेता उस पर आक्रमण करने की सोच भी नहीं पाते| ‘हमला करो, खत्म करो पाकिस्तान नाम के इस कोढ़ को’| यह कहने वाला हम कायरों के इस समाज में कोई पैदा ही नहीं हुआ| बल्कि तर्क एक से एक| अरे, पाकिस्तान भी देश है, कैसे खण्डित हो जाएगा ? क्यों ? क्या उसके बाप अंग्रेज तुम्हें उसका लोकल गार्जियन बना गये है ? क्या करें हम, हम संविधान से चलने वाले देश है|

युद्ध हमारी नीति नहीं है| गुलामी भी तो हमारी नीति नहीं थी ? क्यों गुलामी करते रहे 8 सौ साल ? हमारे-आपके संविधान में राष्ट्र की रक्षा का लक्ष्य तो लिखा है| नहीं, हम पहले आक्रमण नहीं करेंगे वरना हम हिंदुओं की अहिंसा की उस घोषित भीरुता कायरता की गांधीबाबा की नीति का क्या होगा जिसके लिए हम प्रसिद्ध हैं| हम अपने चारों ओर तारबाड़ लगाकर बैठ जाएंगे पर शत्रु पर आक्रमण नहीं करेंगे| हमारा गठबंधनी प्रधानमंत्री जो हमारी संवैधानिक व्यवस्था की उपज हुआ करता था, वह इतना कमजोर असहाय क्यों होता है ? चीन कह देता है कि नहीं, दौलतबेग ओल्डी में एयरफोर्स का अड्डा नहीं बनेगा तो हमारे पूर्व अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जी वह प्रोजेक्ट ही रोक देते हैं| अमेरिका में कभी गठबंधनी राष्ट्रपति देखे गये ? नहीं| क्यों ? क्योंकि उन्हें सत्ता की बंदरबांट तो करनी नहीं थी, बल्कि अमेरिका को वैश्विक वर्चस्व की शक्ति बनाना था| और हमें तो शक्ति नहीं चाहिए थी बल्कि सत्ता की मलाई बहुत से हिस्सेदारों में बांटनी थी इसलिए हमने कमजोर बंधुआ, जनप्रतिनिधि आधारित मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों वाली व्यवस्था चुनी कि सब सुख से रहें| पाकिस्तान का घोषित लक्ष्य रहा है कश्मीर| हमारा, हमारे संविधान का, हमारे राष्ट्र का लक्ष्य क्या है ? इस विश्व में क्या लक्ष्य है हमारा ? ?

संविधान सभा की बैठकों के दौरान ही भारत विभाजन हुआ| संविधान सभा के प्रतिनिधि इस पर आश्चर्यजनक रूप से शांत व प्रतिक्रियाविहीन हैं| हम देखते हैं कि विभाजन, विभाजन के भीषण दंगों, रक्तपात, शरणार्थियों के रेले के उपरांत भी पाकिस्तान बनवाने वाली मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि रंग बदल कर इसी संविधान सभा में बैठे हैं और अभी भी उनकी वही मांगें हैं जो जिन्ना की रही थीं| संविधान सभा की बैठकों के दौरान ही पाकिस्तान कश्मीर पर आक्रमण करता है| हमारे गांधीवादी नेताओं की अनिच्छा के बावजूद युद्ध प्रारंभ होता और आगे चलता है| कश्मीर का एक तिहाई इलाका पाकिस्तान के कब्जे में चला जाता है| हमारे संविधान के लिखने वालों पर इस प्रारंभिक युद्ध की त्रासदी का क्या प्रभाव पड़ा ? क्योंकि यहीं से तो नवसृजित भारत राष्ट्र के तेवर निर्धारित होने हैं| हमारी संविधान सभा, नेहरू तत्कालीन प्रधानमंत्री को यह निर्देश देने में नाकाम रही कि जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रों को मुक्त करना हमारी संवैधानिक बाध्यता है| क्यों ? क्या इस खण्डित हो गये भारत का जो भी स्वरूप बना उसे और खण्डित होने से बचाना संवैधानिक दायित्व नहीं था ?

नेहरू ही तो बढ़ रही सेनाओं की प्रगति को रोक कर पाकिस्तान के कब्जे में चले गये कश्मीर को पाकिस्तान को समर्पित कर देने का षड़यंत्र करते हैं| यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि नेहरू ही थे जो पाकिस्तान के कब्जे में गये पश्चिमी कश्मीर के 10 जिलों व गिलगिट-बालतिस्तान को भूलकर इस युद्धविराम रेखा को ही भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा के रूप में स्वीकार करने का प्रस्ताव करते हैं| हमें नहीं मालूम कि दुनिया के किसी और भी देश में कभी किसी प्रधानमंत्री ने अपने ही देश के विरुद्ध षड़यंत्र किया हो| क्या हमारा संविधान हमारे शासकों को भारत की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा व उसे वापस लाने के लिए बाध्य करता है ? क्या संविधान भारत की धार्मिक सांस्कृतिक पहचान को सशक्त करने के लिए शासकों को बाध्य करता है ? नहीं| लेकिन संविधान को तो इन लक्ष्यों के विपरीत जाकर समाजवादी और सेकुलर बना दिया गया| जब आपने धार्मिक सांस्कृतिक अस्मिता से निरपेक्ष होकर संविधान को सेकुलर बना दिया तो राष्ट्रीय अस्मिता का संकट तो हमारे अपने संविधान ने ही खड़ा कर दिया| हमें सचेत हो जाना चाहिए कि धर्मप्रचार के अनैतिक अभियानों के कारण भारत ईरान बनने की तरफ बढ़ सकता है| अफ्रीका के नवईसाई देशों के समान ईसाई होने की तरफ भी बढ़ सकता है| कल भारत इन बढ़ रही इस्लामिक व ईसाईयत की शक्तियों की युद्धभूमि भी बन सकता है| लेकिन हमारा संविधान तो इन सब आशंकाओं के प्रति निस्पृह निर्विकार है| अर्थात यदि यह देश कल धर्मपरिवर्तित होने लगा तो हमारा आदर्श संविधान इसके विरुद्ध नहीं खड़ा हो सकेगा|

हमारे नेताओं से शांति पर व्याख्यान दिलवा लो| बस, माइक होना चाहिए, वे कथावाचक के समान कहीं भी बोलने लग जाएंगे| वाह साहब ! क्या बोलते हैं||| कितने महान वक्ता हैं| वे वक्ता ही रह गये| जो कभी दहाड़ते थे, जब सत्तासुख का अवसर मिला तो वे भीगी बिल्ली बनते भी देखे गये हैं| एमरजेंसी की प्रतिक्रिया में बने अस्थायी जनता दल की सरकार का अस्तित्व ही जैसे मात्र संविधान की रक्षा के लिए था| सीमापार से हजारों प्रशिक्षित आतंकी आ रहे है| षड़यंत्र में शामिल, गोल्फ खेलते हुए समय बिताने वाले फारूख अब्दुल्ला को जैसे कुछ और दिखता ही नहीं था| वहां दिल्ली में सेकुलरिज्म से ब्याही नेहरू से भी पवित्र चरित्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बैठी है| वे देश की नहीं, नियमों की रक्षा करने वाले आध्यात्मिक पुरुष थे| वे अपने खण्डित राजयोग को बचाने में लगे रहे| उनको पता ही नहीं था कि नियमों कानूनों, आदर्शों, प्रतीकों, संविधान व वोट बैंकों की आरक्षणधर्मी बाजीगरी के बीच में कोई एक देश भी है| वे अपने पूरे काल में सेकुलर बने रहने के सिवा और कुछ कर ही नहीं पाए| कांग्रेस स्वार्थ से बीमार थी ये गैरकांग्रेसी, आदर्शों के ढकोसले से बीमार थे| राष्ट्रहित की न तो समझ थी न वह किसी का लक्ष्य ही था|

कितनी आश्चर्यजनक बात है कि जो राष्ट्र 1857 में आजादी के लिए सशस्त्र संग्राम खड़ा करता है वह मात्र 60 वर्षों में 1917 आते आते निर्वीर्य होकर दया का पात्र बनता हुआ डोमेनियन स्टेटस की दरख्वास्तें देने लगता है| अब हमारे नेता गांधी जी बन जाते हैं|  हम दैवयोग से वर्तमान असामान्य कालखण्ड की दिशा में सशक्त होते हुए बढ़ रहे हैं| लक्ष्य स्पष्ट नहीं है| शत्रुबोध का अभाव है| राष्ट्रीय जागरण का कार्य अवशेष है| बहुत कुछ करना रह गया है| मान लें कि यह जैसे रामचरित मानस के ‘सुन्दर कांड’ का समय काल चल रहा है| सेतुबंध के उपरांत ‘लंका कांड’ प्रारंभ होगा| यह आक्रमण या युद्ध संवैधानिक प्रावधानों के तहत नहीं होना है| न इसके लिए कोई संशोधन होना है| यह हमारे धर्म-राष्ट्र-सभ्यता के अस्तित्व का संघर्ष है| यह युद्ध उनके विरुद्ध है जो भारत राष्ट्र के घोषित शत्रु है और सदा से चली आ रही हमारी अखण्डता की राह में दीवार बन कर खड़े हैं और अब उनके सर्वनाश के अतिरिक्त हमारे पास कोई उपाय ही नहीं है|

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