वास्तव में यूक्रेन पर रूसी हमले से ऐसी विकट स्थिति पैदा हो गई है जिसमें क्या करें और क्या न करें का फैसला करना किसी देश, देशों के संगठन ,संघ ,समूह आदि के लिए आसान नहीं है। कायदे से तो इस मामले में रूस का विरोध होना चाहिए और उसे रोका जाना चाहिए। समस्या कितना भी जटिल हो इस तरह कोई देश सैन्य शक्ति की बदौलत दूसरे को अपनी बात मनवाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता । आप के प्रभाव में ही कोई देश रहे, इसके लिए आप ताकत की बदौलत उसकी बांहें मरोड़ें , वहां हमला कर सरकार को उखाड़ फेंके इसको स्वीकार नहीं किया जा सकता।
युद्धरत देश अपनी – अपनी तरह से एक दूसरे को क्षति पहुंचाने का दावा करते हैं। इसलिए रूस और यूक्रेन के परस्पर क्षति के दावों में किसे स्वीकार करें और किसे अस्वीकार इसका निष्कर्ष जरा कठिन है। इस समय का सच इतना ही है कि रूस ने अपने नाभिकीय हथियारों को अलर्ट मोड पर ला दिया है। रूस के इस रुख से पूरी दुनिया केवल चिंतित नहीं भयभीत होगी। उम्मीद कर सकते हैं कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन नाभिकीय हथियारों के प्रयोग की सीमा तक नहीं जाएंगे। उन्हें इसके भयावह दुष्परिणामों का शत-प्रतिशत ज्ञान होगा। निश्चय ही रूसी राष्ट्रवाद की सोच में वे विश्व का खलनायक नहीं बनना चाहेंगे। रूस की नीति यूक्रेन को अपने प्रभाव में लाने की है। इस कारण पुतिन नहीं चाहते कि वहां नागरिक ज्यादा संख्या में हताहत हो जाएं। इससे उसके विरुद्ध जन भावना तीव्र होगी।
पुतिन और रूसी युद्ध के रणनीतिकारों के लिए यह अवश्य चिंता का कारण होगा कि जितने कम समय में उन्होंने यूक्रेनी सेना के हथियार डालने और राजधानी कीव को अपने नियंत्रण में लेने की कल्पना की थी उसमें सफलता नहीं मिली। इसलिए आगे क्या करेंगे कहना कठिन है।अभी तक कोई एक पहलू निश्चित है तो वह यही कि रूस की सेना वापस जाने के लिए वहां तक नहीं आई है। आर्थिक प्रतिबंधों का प्रभाव रुस की मुद्रा रूबल पर साफ दिखाई पड़ा है। यूरोपीय संघ के देशों ने रूस के लिए एयरस्पेस बंद कर दिए हैं। कई देशों ने यूक्रेन को हथियार मुहैया कराना आरंभ कर दिया है। ऐसे बहुत कम देश होंगे जो चाहेंगे कि यूक्रेन वाकई हथियार डाल दे। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की का चरित्र और आचरण जैसा भी हो लेकिन कठिन समय में उन्होंने अपने देश का अभी तक साहसी नेतृत्व किया है। वे सारे अफवाहों का खंडन करते हुए स्वयं के राजधानी कीव में होने का दावा कर रहे हैं। यही सच लगता भी है।
उनके आह्वान से यूक्रेन के आम नागरिक भी रूसी सेना से युद्ध करने के लिए हथियार उठा रहे हैं। सब कुछ के बावजूद यूक्रेन के लिए अकेले रूस जैसे सैन्य महाशक्ति के समक्ष टिकना संभव नहीं है। दूसरी ओर रूस के लिए भी आसान नहीं है कि वह जनप् विरोध के बीच यूक्रेन को अपने नियंत्रण में शांति का माहौल बनाते हुए रख सके। इराक ,अफगानिस्तान में वर्तमान अमेरिकी हस्र तथा स्वयं रूस के पूर्वज सोवियत संघ का अफगानिस्तान में हुई फजीहत जरूर पुतिन को याद होगा। हालांकि उन्होंने इसके ज्यादातर परिणामों पर सोच विचार करके ही युद्ध की ओर कदम बढ़ाया होगा। रूसी राष्ट्रवाद की उनकी कल्पना में यूक्रेन सहित सोवियत संघ के ज्यादातर गणराज्य शामिल है। इन देशों पर अमेरिका, नाटो या अन्य देशों का प्रभाव हो या उनके द्वारा नियंत्रित और संचालित किसी संगठन समूह में वे शामिल हों इसे वे स्वीकार नहीं कर सकते। इस सोच में जिस खतरनाक सीमा तक वे चले गए उन्होंने पूरे विश्व को संकट में फंसा दिया है।
विश्व के प्रमुख देशों के लिए भी इस स्थिति में फैसला करना आसान नहीं है। अमेरिका, यूरोपीय संघ और नाटो के देश जानते हैं कि अगर उन्होंने रूस के विरुद्ध युद्ध का फैसला किया तो इसके परिणाम भयावह होंगे। यह युद्ध केवल रूस, यूक्रेन सीमा तक सीमित नहीं रह पाएगा। धीरे – धीरे अनेक देश इसमें शामिल होंगे या इसके शिकार होंगे। बाल्टिक देशों का आपसी झगड़ा किस तरह प्रथम विश्व युद्ध का कारण बना इसे हम भूले नहीं हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के पीछे भी उस क्षेत्र की प्रमुख भूमिका थी। कोरोना की मार से ग्रस्त दुनिया अपने को संभालने की कोशिश कर रही है। पुतिन ने यूक्रेन पर हमला कर पूरी दुनिया को कोरोना के बाद का सबसे जबरदस्त आघात किया है। दुनिया कभी ऐसी नहीं रही जिसमें किसी भी हमले का एक स्वर से सक्रिय विरोध हो सके। संयुक्त राष्ट्रसंघ की अपनी सीमाएं हैं।
जब भी ऐसा संकट आता है संयुक्त राष्ट्रसंघ की भूमिका को लेकर भावुक लोग छाती अवश्य पीटते हैं लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि इसके पास कोई सैन्य शक्ति नहीं है। युद्ध में इसकी मोर्चाबंदी की भूमिका नहीं हो सकती। यह विश्व के देशों का संगठन है और इसका मूल चरित्र एक वैश्विक एनजीओ का है जिसके केवल फलक व्यापक हैं। उसमें किसी देश के आक्रमण करने की स्थिति में अपने सदस्य देशों से अनिवार्य रूप से सेना लेकर निर्दोष देश के पक्ष में खड़ा होने की भूमिका संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रावधान में शामिल नहीं। सुरक्षा परिषद सबसे शक्तिशाली ईकाई है। वहां ह पांच देशों को वीटो पावर है जिसमें रूस शामिल है। यूक्रेन पर हमले की निंदा प्रस्ताव तक को उसने वीटो कर दिया। सुरक्षा परिषद में इस पर चर्चा करने का निर्णय हूआ है परंतु उससे ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
वास्तव में यूक्रेन पर रूसी हमले से ऐसी विकट स्थिति पैदा हो गई है जिसमें क्या करें और क्या न करें का फैसला करना किसी देश, देशों के संगठन ,संघ ,समूह आदि के लिए आसान नहीं है। कायदे से तो इस मामले में रूस का विरोध होना चाहिए और उसे रोका जाना चाहिए। समस्या कितना भी जटिल हो इस तरह कोई देश सैन्य शक्ति की बदौलत दूसरे को अपनी बात मनवाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता । आप के प्रभाव में ही कोई देश रहे, इसके लिए आप ताकत की बदौलत उसकी बांहें मरोड़ें , वहां हमला कर सरकार को उखाड़ फेंके इसको स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जो भी देश इसमें कूदेगा उसे रूस का सीधा सामना करना पड़ेगा। क्या कोई देश इस स्थिति में है कि यूक्रेन के लिए रूस से युद्ध का खतरा मोल ले सके? हम चाहे बातें जितनी बड़ी करें ऐसा जोखिम कोई देश नहीं लेगा। संभव है उसके साथ युद्ध छेड़ने पर कुछ दूसरे देश उसके साथ आ खड़े हों।
सबसे ज्यादा खतरा चीन की ओर से है। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी विस्तारवाद की नीति पर अमल करने वाले नेता हैं। भारत के साथ ही नहीं पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में जमीन और समुद्र के अंदर सीमाओं को लेकर उनकी आक्रामकता विश्व के सामने है। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का फैसला भी उन्हें दक्षिण चीन सागर पर अपने कदम खींचने के लिए मजबूर नहीं कर सका। वे अमेरिका का स्थानापन्न कर चीन को विश्व की महाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने के मंसूबे के साथ अपनी सैन्य ,आर्थिक और कूटनीतिक रणनीति को अंजाम दे रहे हैं। राष्ट्रपति पुतिन और शी जिनपिंग के बीच बेहतर संबंध हैं जिसे आप वैचारिक मजदूरों का मेल भी कह सकते हैं। संभव है चीन आगे रूस की मदद को भी आए और इसका लाभ उठाकर वह ताइवान को हड़पने की कोशिश करे। क्या हम और पूरी दुनिया इस तरह के सैन्य टकराव के लिए तैयार है? क्या किसी ने भी इस सीमा तक यूक्रेन रूस युद्ध के विस्तारित होने की कल्पना की है?
पुतिन और उनके रणनीतिकारों मानते हैं कि अमेरिका नाटो या यूरोपीय देश गीदड़भभकी दे सकते हैं ,सीधे युद्ध में नहीं कूद सकते। इसी सोच के तहत उन्होंने हमला किया है। किंतु युद्ध छेड़ने के बाद परिस्थितियां किसी भी दिशा में जा सकती है और वह आपके हाथ में नहीं होती। ऐसा न हो कि इस रवैया से अमेरिका, नाटो और यूरोपीय संघ के सामने मजबूरी पैदा हो जाए और न चाहते हुए भी उन्हें युद्ध में कूदना पड़े। ठीक है कि वे हर हाल में सीधे युद्ध से बचना चाहते हैं और आगे भी उनके इसी रणनीति पर कायम रहने की उम्मीद है। किंतु यूक्रेन को जिस ढंग से युद्ध सामग्रियों से लेकर अन्य मदद आरंभ हो गई है वह भी एक प्रकार से युद्ध ही है । इससे विश्व में नए सिरे से सैनिक गुटबंदी के विकसित होने का आसन्न खतरा उत्पन्न हो गया है। वर्तमान स्थिति एवं भविष्य की तस्वीर इतनी जटिल है कि अगले क्षण क्या होगा कहा नहीं जा सकता।