भारतीय शस्त्रास्त्र निर्मिति एक चुनौती

मूलतः संशोधन करने वाली संस्थाओं के अतिरिक्त कुछ व्यक्ति, निजी संस्थाएं इस प्रकार की स्वदेशी निर्मिति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं परंतु लालफीताशाही का अनुभव व शस्त्रात्र निर्माण में गोपनीयता के कारण निजी संस्थाएं इस काम में आगे नहीं आती हैं। इसके उपाय के रूप में गोपनीय माने जाने वाले भागों के संशोधन एवं निर्माण की जवाबदारी सरकारी संशोधन केंद्र अथवा सरकार की भागीदारी वाली ऑटोनॉमस संस्था तथा अगोपनीय भागो के निर्माण की जवाबदारी निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी में यदि की जाए तो उद्योग क्षेत्र बढ़ेगा और वैसे ही रोजगार क्षेत्र को गति प्राप्त होगी।

भारतीय शस्त्रात्र निर्माण का इतिहास वैसे तो बहुत पुराना है परंतु गत 1500 वर्षों में भारतीय समाज को सतत आक्रमण की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जिसके कारण शस्त्र निर्मिति में किए जाने वाले अनुसंधान में हम पिछड़ गए। अंग्रेजों ने स्वयं के फायदे के लिए पहले वह दूसरे महायुद्ध के लिए भारत में बहुत दूर (ठशोींश) के स्थानों पर शस्त्र निर्माण के कारखाने शुरू किए थे परंतु जानकार लोग उससे दूर रखे गए। इसके कारण नए प्रकार के शस्त्र निर्माण करने में भारत को स्वतंत्रता के बाद भी गति नहीं मिल सकी जैसी अपेक्षित थी। एक दूसरा कारण याने, स्वतंत्रता के बाद 1947 से लेकर 1999 के समय में भारत को अपने पड़ोसियों के साथ 5 युद्ध लड़ने पड़े और उसमें भारत को आयातित शस्त्रों पर निर्भर रहना पड़ा। आज भी 70% शस्त्र आयात किए जाते हैं।

1980 के दशक में भारत में सही अर्थों में शस्त्र निर्माण का कार्य शुरू हुआ। भारतीय संसद ने 1983-84 साल में खॠचऊझ इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम को मान्यता दी तथा ऊठऊज ने अलग-अलग उपयोगों के लिए पांच प्रकार के मिसाइल विकसित किए। अग्नि, पृथ्वी, आकाश, त्रिशूल तथा नाग ये वे 5 मिसाइल हैं। साधारणत: 1984 में शुरू हुआ यह मिसाइल विकास कार्यक्रम सन 2000 में पूर्ण हुआ। इस कार्यक्रम में काम करने वाले लोगों ने आत्मविश्वास का अनुभव किया। आगे चलकर इन मिसाइल की संपूर्ण तकनीक स्वदेशी में परिवर्तित करने में सफलता मिली। इसी के साथ पिनाक राकेटरी सिस्टम, तेजस, अर्जुन (चरळप लरीींंश्रश ींरपज्ञ), रडार सिस्टम, ब्रम्होस, मिसाइल इंटरसेप्टिंग सिस्टम इत्यादि विकसित करने में हम सफल हुए। हाल ही में ब्रह्मोस मिसाइल के स्वदेश निर्मित कुछ भागों की मांग रूस ने की है।

सुविधा विकास निर्मिति

उपर उल्लेख किए अनुसार भारत में सच्चे अर्थों में शस्त्रास्त्र संशोधन में साधारणत: 80 के दशक में शुरुआत हुई। उसमें मुख्यतः दो भाग थे:-

 * भारत द्वारा अन्य देशों से आयात किए हुए रक्षा विषयक शस्त्र तथा उपकरणों की रिवर्स इंजीनियरिंग द्वारा हमारे शस्त्र उत्पादन करने वाले कारखानों में निर्मिति करना।

 * स्वदेशी बनावट के सेना को आवश्यक शस्त्रों की, मिसाइल की निर्मिति करना।

इन दोनों प्रकार की तकनीक में भारत ने विश्व में अग्रस्थान प्राप्त किया है। मुख्य चुनौती यह है कि उसके लिए आवश्यक प्राथमिक सुविधाओं का विकास, निर्माण में लगने वाला समय, निर्माण में लगने वाला विशेष सामान, होनेवाला निर्माण खर्च, शस्त्रों के परीक्षण के लिए लगने वाले उपकरण और उनके आपूर्ति की प्रक्रिया। इन सब का एकत्रित विचार करने पर किसी प्रकल्प के पूरा होने की कालावधि में वृद्धि होती है, तब तक तकनीक बदल जाती है वह संशोधको को गुणवत्तापूर्ण आवश्यकता (क्वालिटेटिव रिक्वायरमेंट) में बदल करना पड़ता है। वैसे ही प्रशासकीय पद्धति के कारण साहित्य मिलने का कालावधी बढ़ता है और समय ज्यादा लगता है। इस चुनौती का विचार करते समय उसमें आवश्यक बदल करने एवं पारदर्शिता है यह देखने के लिए प्रशासकीय मानसिकता में प्रशिक्षण के माध्यम से बदलाव करने की आवश्यकता है हालांकि वर्तमान सरकार इस दिशा में कार्य कर रही है ऐसा लगता है। आगामी समय में इसमें आवश्यक बदल होंगे ऐसी आशा है।

समन्वय एवं संशोधन

किसी भी कार्यक्रम की सफलता उसमें काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति एवं संस्था के सहभाग एवं सहयोग से ही संभव है। भारतीय शस्त्र निर्मिति में तीन प्रमुख घटकों की सहभागिता होती है। इसमें संशोधन संस्था, निर्माण करने वाले कारखाने तथा शस्त्रों का उपयोग करने वाली सेना शामिल है। यह एक त्रिकोण है और सेना त्रिकोण का ऊपरी बिंदु है। संशोधन करने वाली संस्था तथा निर्माण करने वाले कारखाने निचले दो बिंदु हैं। ये तीनों ही बिंदु शस्त्र उत्पादन के संदर्भ में यदि एक समांतर स्तर पर हो तो उसके कारण समन्वय, संशोधन एवं गुणवत्तापूर्ण शस्त्र निर्माण को गति मिल सकती है। इसमें निजी क्षेत्र को भागीदार बना कर शस्त्र निर्माण की गति, उत्पादन क्षमता तथा निर्यात में भी वृद्धि हो सकती है। भारत एक सामर्थ्यशाली राष्ट्र बन कर शस्त्र निर्माण में अग्रणी हो सकता है। वैसे ही, भारत सरकार की नीति के अनुसार स्वदेशी निर्माण (मेक इन इंडिया) कार्यक्रम के अंतर्गत निजी क्षेत्र की भागीदारी का सुयोग्य निर्णय लिया गया है। इसके कारण शस्त्र निर्माण की गति बढ़ेगी और निर्यात की नई राहें भी खुलेंगी। केवल आवश्यकता है योग्य समन्वय एवं उस दिशा में योग्य संशोधनों की।

अंतर्गत क्रियान्वयन एवं गुणवत्ता

सैन्य दलों को किस प्रकार के शस्त्रों की आवश्यकता है, यह अनेक वर्षों तक इस क्षेत्र में काम करने के कारण एवं अनुभव के कारण संशोधन संस्था को पता रहता है। सैन्य दल एवं निजी संस्था के बीच सरकारी संशोधन संस्था डोर का काम कर सकती है। सेना को कम से कम समय में इन शस्त्रों की आपूर्ति हो सके इसके लिए स्वतंत्र संस्था (थर्ड पार्टी इंस्टिट्यूशन) की आवश्यकता है। निजी संस्थाएं इस स्वतंत्र संस्था के पास अपना रजिस्ट्रेशन करा कर संशोधन के माध्यम से विकसित शस्त्रों-उपकरणों का निर्माण कर सकते हैं। निजी संस्थाओं द्वारा किए गए संशोधनों का लाभ शस्त्र निर्माण में हो सकता है। भारत सरकार को भी इससे आर्थिक लाभ मिल सकता है। किसी शस्त्र की गुणवत्ता उसके अंतिम उपयोग पर ही निर्भर होती है। उसके लिए सेना के विभिन्न विभागों में गुणवत्ता नियंत्रण किया जाता है। उस में आधुनिकता लाने की आवश्यकता है। यह क्षेत्र निजी उद्योगों को उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। रक्षा संशोधन करने वाली संस्थाओं तथा निजी उद्योगों की चेन (सांकल) निर्माण की जा सकती है।

 अन्य निजी क्षेत्र की भागीदारी

बरसों से एक ही प्रकार का संशोधन करते रहने से विचारों में कठोरता (रिजीडिटी) आती है तथा लचीलापन (फ्लैक्सिबिलिटी) समाप्त हो जाती है। अन्य क्षेत्रों की भागीदारी से संशोधनों में लचीलापन आता है तथा किसी प्रकल्प में संशोधन से लेकर उत्पादन तक की प्रक्रिया में लगने वाला समय कम हो जाता है। प्रकल्प की गुणवत्ता बढ़ती है। मूलतः संशोधन करने वाली संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति, निजी संस्थाएं इस प्रकार की स्वदेशी निर्मिति हेतु प्रयत्नशील रहते हैं परंतु लालफीताशाही के कारण प्राप्त अनुभव व शस्त्र निर्माण में गोपनीयता के कारण वे उस में अग्रसर नहीं होती। इस पर उपाय याने गोपनीय भागों का संशोधन एवं निर्माण सरकारी संशोधन केंद्र या सरकार द्वारा स्थापित ऑटोनॉमस संस्था करें तथा अगोपनीय भागों की निर्मिति की भागीदारी में हो। इससे उद्योग क्षेत्र बढ़ेगा एवं नये रोजगार निर्मित होंगे। संशोधन के क्षेत्र में भारत बहुत ऊंचाई तक पहुंच गया है परंतु जो संशोधन हुए उनके निर्माण में लक्ष्य प्राप्त न होने के कारण हमारे पास निर्माण क्षमता होते हुए भी कुछ चीजें हम आयात करते हैं तथा अमूल्य विदेशी मुद्रा को गंवा देते हैं। अन्य क्षेत्र की भागीदारी से इस तकनीक के बारे में हम स्वतंत्र हो सकते हैं, आत्मनिर्भर हो सकते हैं।

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