बिहारी लोकगीतों में संस्कृति संरक्षण

प्रत्येक प्रांत के लोकगीत वहां की संस्कृति के दर्पण होते हैं। सच तो यह है कि स्थान भेद से सांस्कृतिक परिवेश और भाषा-बोली भले ही भिन्न प्रतीत हो, किंतु प्रत्येक प्रांत के लोकगीतों की आत्मा एक ही होती है।

लोकगीत श्रुति परंपरा के संवाहक हैं, इस दृष्टि से उन्हें हमारी सांस्कृतिक परंपरा का पोषक कहा जा सकता है। बिहार के लोकगीतों की भूमिका भी यहां की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने में प्रभावी बन पड़ी है। ये गीत मनोरंजन, शिक्षा, समाजीकरण, सामाजिक कुरीतियों के विरोध और प्रचार-प्रसार के माध्यम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
लोकगीत गांवों, कस्बोें और शहरों की जीवनशैली को मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। इन गीतों से मनोरंजन के साथ श्रम का परिहार भी होता है। खेतों में काम करते समय औरतें सोहनी, रोपनी और निरवाही के गीत गाती हैं तो घरों में चक्की के स्वर के साथ उनके भी स्वर गूंजते हैं।

शिक्षा की दृष्टि से भी इन लोकगीतोें का महत्व है। सरल धुनों के साथ ये लोकगीत हमारे इतिहास, भूगोल और हमारी संस्कृति को जीवंत करते हैं। पारंपरिक लोकगीतों के अतिरिक्त अब लोकसाहित्य के अंतर्गत सामयिक विषयों और समस्याओं पर आधारित गीत भी आ रहे हैं, जो हमें एक दृष्टि देते हैं।

ग्रामीण स्त्रियों या बेटियों के बीच सबसे बड़ी समस्या अशिक्षा रही है, किंतु अब बिहार के गांव जाग उठे हैं। अब गृहिणियां भी पढ़ने को उत्सुक हो उठी हैं ताकि उन्हें कुछ मामलों में किसी के आश्रित न होना पड़े। एक गीत में कुछ ऐसा ही भाव है-

चलऽ ए सजनी हमनियो पढ़ेला,
खेतवा में दिन भर खुरपिया चलाएम
आके सिलेटिया पर पिलसिन घुमाएम,
दुनिया जमाना के साथे बढ़ेला
हमनी के कोई तब ठगवा न ठगते
सीख लेम अपन-अपन दसखत करेला
अपने से चिट्ठी लिखे के पढ़े के
बैंक पोस्ट आफिस में फारम भरे के
बीडियो कलट्टर से सलटब झमेला।

एक गीत में शिक्षा के लिए हर पुरुष-स्त्री को जागरुक करने का प्रयास किया गया है-

शिक्षा पहिल शर्त ओ भैया जी सरकारी में
सत्ता के हिस्सेदारी में ना
शिक्षित होएबा कर तैयारी
चटपट शुरू करू भैया री
शिक्षा समता लाओत बाल वृद्ध नर नारी में।

लोकगीतों के माध्यम से सांप्रदायिक सद्भाव को भी बढ़ावा मिलता है। कोई स्त्री कहती है-

मंदिर मस्जिद के भेद के भुलवा पिया
जग के बताव पिया ना
हिंदू मुस्लिम महान, एक माटी के संतान
मिलि जुलि एकरा इज्जत के जोगाव पिया
सब मजहब के ऐलान सुन पिया खोली कान
मानवता का बाग के सजाव पिया।

लोकगीतों के माध्यम से आज गांव शहर के लोग, पर्यावरण के प्रति भी सचेत हो उठे हैं। कल-कारखानों के धुएं से आज धरती का वातावरण दूषित हो रहा हैं, इससे बचने के लिए लोकगीतों में आहृवान किया गया है-

बचावे के परी हो बचावे के परी
प्रदूषण से धरती बचावे के परी
चिमनियन के करिया धुंआ से
दूषित भइल असमनवां
खतम करऽ ना हरियाली के
मत काटऽ अब वनवां
अब डेगे डेगे गछिया लगावे के परी
पर्यावरण के शुद्ध बनावे के परी।

बिहार के लोकगीतों की नारी कहीं अपने किसान पति के प्रति गर्व से भर जाती है, वह एक सैनिक से अपने किसान पति की तुलना करती हुई कहती है-

तोहरो बलमवा के कंधे बंदूकवा
सीमा के बांका जवान
हमरो बलमवा के कंधे कुदलिया
खेतवा के बांका जवान।

और जब देश को बलिदान की आवश्यकता होती है तो किसान की पत्नी उसे सिपाही बनने को प्रेरित करती है।

छोड़ किसानी बाना सैंया बन गइले सिपहिया
कांधा पर बंदूक सजल वा माथे पगरिया।
छोड़ फिकिरया खेतवा के खलिहान गेहूं
धनवा के
बिसर गइल ऊ नीक म़डइया बिसरल
गरो सुखवा के
उनकर मनवा बसल देस के सोंधी
सोंधी मटिया

लोकगीतों में सामाजिक कुरीतियों के चित्र भी उकेरे गए हैं। कहीं बाल विवाह का दुख है, कहीं वृद्ध विवाह का संताप। धन के लोभ में किसी पिता और भाई ने तरुणी कन्या का विवाह बालक से कर दिया-

हमरो जे बाबा भैया धनवा के लोभिया
से करि दिहले हो राम लड़का से बियहवा।

यों तो ग्रामीण मानसिकता में परिवर्तन लाना सहज नहीं है, किंतु आधुनिक गीतों में परिवार नियोजन से होने वाले लाभ के प्रति सजग होने में गांव की महिलाएं भी आगे आ रही हैं-

करी लऽ नियोजित परिवार बलमुआ मोरे
आपन परिवार तुहुं जेतने बढ़इसऽ
जिनगी में सुख तुहुं कुछुओं न पइबऽ
भारत विधाल बनल छोट परिवार के
करी ल ऽ नियोजित तू मन में विचार के
देसवा के होइहें सुधार।

इतिहास गवाह है कि भोजपुर के गीतों ने आजादी की लड़ाई में शहीदों के मन में उत्साह जगाने में अहं भूमिका निभाई थी-

भोजपुर के तप्पा जाग चलल
मस्ती में गावत राग चलल
बांका सेनानी कुंवर सिंह
आगे फहरावत पाग चलल
खौलल जब खून किसानन के
जागल जब जोश जवानन के
छक्का छूटल अंगरेजन के
गोरे गोरे कपतानन के।

स्वराज प्राप्ति के बाद भारत में किसानों का राज्य और समाज में सद्भाव जगाने की कल्पना की गई थी-

हम राज किसान बनइतीं हो
धनी गरीब अमीर सभे के एके राह चलइतीं हो
छुआ छूत के भूत भगइतीं सरिता प्रेम बहइतीं हो
हिंदू मुस्लिम भाई के हम एके मंत्र पढ़इतीं हो
जब जब जनम लेतीं भारत में बलिवेदी पर
जइतीं हो।

लोकजीवन में प्राय: पुत्र की कामना की जाती है। पुत्र के होने पर पूर्णमासी होती है और पुत्री होने पर लोगों के मन पर अमावस छा जाती है, किंतु एक भोजपुरी गीत में ऐसा वर्णन है कि पुत्री के बिना जीवन सार्थक नहीं होता-

पांच रुपइया बाबा पोखरा खनवले
चुनवे चुनवटल घाट ए
ताही पइसी बाबा होम करवले
तइयो धरमो ना होइ ए
दूध बिनु बेटी ए जउरो ना सीझले
घीव बिनु झुमौ ना होई ए
एक रे पुतर बिनु जग अन्हार भइले
घिया बिनु धरमो ना होइ ए

एक छठ गीत में भी बायना फेरने के लिए छठी मैया से बेटी देने की प्रार्थना की गई है-

बयना बहुरि लागे मांगले बिटिया
पंडित मांगील दमाद।

यों तो विवाह गीत सभी प्रांतों में गाए जाते हैं, किंतु बिहार में कोहबर और डोमकच जैसे गीत अपनी विशेष पहचान बनाते हैं और इन लोकगीतोें में परिवार का भरापूरापन देखने को मिलता है। बेटे की बारात के प्रस्थान करने के बाद घर की सुरक्षा का भार महिलाओं पर आ पड़ता है। ऐसे में हास-परिहास के बीच डोमकच करते हुए स्त्रियां अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
बिहार के लोकगीतों में हमें जीवन की परार्थता भी देखने को मिलती है। पनिहारिनों को पानी भरने के लिए कुआं खनाया जाता है, राही बटोही को छांह देने के लिए बाग लगाए जाते हैं। इस तरह लोकगीतों में व्यक्ति से परे समष्टि चेतना पाई जाती है। इन लोकगीतों में समाज में सब की साझेदारी दिखाई पड़ती है। पर्व, त्योहार, जन्म, विवाह संस्कार इसके उदाहरण हैं। इन गीतों में आत्मीयों के लिए बड़ी विकलता भी दिखाई पड़ती है।

बिहार में यों तो व्रत-त्योहारों की एक लंबी श्रृंखला है किंतु कुछ व्रत ऐसे हैं जिनकी सीमा बिहार तक ही है। ऐसे व्रतों में छठ पर्व को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। लोक आस्था का यह पर्व बिहार का राष्ट्रीय पर्व जैसा है और बिहार की संस्कृति का निर्मल दर्पण भी। इस अवसर पर जाति, धर्म, ऊंच-नीच के बंधन टूट जाते हैं। टोले मोहल्लों के लोग मिल जुलकर सफाई एवं पूजा में सहयोग करते हैं। इस पर्व की पवित्रता के साथ जैसे सभी के मन भी पवित्र हो जाते हैं। वातावरण में एक अजीब उत्साह, पवित्र, धार्मिक भावना, सराहनीय सहयोग भाव और विश्व बंधुत्व देखने को मिलता है। एक गीत मेंे इसे देखें-

कांचहिं बांस के बहंगियां, बहंगी लचकैतजाय
भरिया होवऽ ना सेवक जन, बहंगी घाटे पहुंचाव।

बिहार की संस्कृति को राष्ट्रीय फलक पर ज्योतित करने में छठ पर्व की अहं भूमिका है। यह पर्व सूर्य पूजा और गंगा की महिमा से जुड़ा हुआ है। सूर्य के रूप में प्रत्यक्ष देवता के प्रति इतनी आस्था बिहार की ही देन है। पर्यावरण की दृष्टि से भी इस व्रत का महत्व है। इस व्रत से स्वास्थ्य लाभ और आत्मशोधन भी होता है।

बिहार के लोकगीत बड़े कर्णप्रिय और हृदय को छू लेने वाले होते हैं। इन गीतोें में माटी की सोंधी सुगंध है, नि:संदेह बिहार की सांस्कृतिक पहचान इनमें सुरक्षित और संरक्षित है।

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