सेवा के लिए संवेदना आवश्यक है। ऐसे ही एक संवेदनशील व्यक्ति थे विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मंत्री तथा सेवा प्रमुख श्री सीताराम अग्रवाल, जिनका जन्म 16 मार्च, 1924 को औरैया (इटावा, उ.प्र.) में श्री भजनलाल एवं श्रीमती चंदा देवी के घर में हुआ था।
1942 में वे ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में सक्रिय हुए। सुभाष चंद्र बोस से वे बहुत प्रभावित थे। आगरा में वीर सावरकर के सामने उन्होंने देश न बंटने देने की प्रतिज्ञा ली थी। वहीं बी.एस-सी. के दौरान श्री दीनदयाल उपाध्याय, नाना जी देशमुख तथा विभाग प्रचारक भाऊजी जुगादे से सम्पर्क के कारण वे संघ में सक्रिय हो गये। इस दौरान उन्होंने विभिन्न दायित्व लेकर काम किया।
छात्र जीवन में सब तरह के विद्यार्थियों से मित्रता होती है। उनके एक मित्र राणाप्रताप सिंह संघ के घोर विरोधी थे; पर जब वे बीमार हुए, तो सीताराम जी ने उनकी भरपूर सेवा की। फलतः वे भी स्वयंसेवक बन गयेे और आगे चलकर उ.प्र. में सरस्वती शिशु मंदिर कार्य के आधार स्तम्भ बने।
बी.एस-सी. के बाद कानपुर से रसायन अभियन्ता की शिक्षा पूरी कर वे विस्तारक हो गये। परिवार केे आग्रह पर उन्होंने इस शर्त के साथ विवाह किया कि पहले दो वर्ष प्रचारक रहेंगेे। 1947 में वे मैनपुरी में प्रचारक थे। 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी की हत्या के बाद वे वहीं छह माह जेल में रहे। बाहर आकर उन्होंने फिर सत्याग्रह कर दिया। प्रतिबंध हटने पर भाऊराव देवरस की आज्ञा पर अलीगढ़ में घर रहकर संघ कार्य करते हुए रसायन शास्त्र में एम.एस-सी. किया। इसके बाद वे बदायूं (उ.प्र.) में अध्यापक हो गये।
1957 में जे.के.रेयन फैक्ट्री, कोटा (राजस्थान) में उन्हें काम मिल गया। 1967 में वहां उन्होंने वि.हि.प. की इकाई स्थापित कर 1970 में हाड़ौती में एक भव्य सम्मेलन कराया। आपातकाल में कोटा की झुग्गियों में कई बाल संस्कार केन्द्र, एक विद्यालय, चिकित्सालय तथा हनुमान मंदिर स्थापित कराये। 1979 में प्रयाग के ‘द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन’ में वे 70 प्रमुख लोगों के साथ आये। 1982-83 में फैक्ट्री में मजदूर आंदोलन के कारण उनकी नौकरी छूट गयी। तब तक उनके दोनों बेटे काम में लग गये थे, अतः उन्होंने पूरा समय वि.हि.प. के कार्य में लगाने का निर्णय किया।
1983 की ‘एकात्मता यात्रा’ में कोटा की जिम्मेदारी उन्होंने सफलतापूर्वक निभाई। वहीं श्री अशोक सिंघल ने उनसे सेवा कार्य संभालने को कहा, जिसे इन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने महीने में 20 दिन तक प्रवास कर पूरे देश में सेवा कार्यों की एक विशाल शृंखला खड़ी की। वे पूर्वोत्तर भारत में सुदूर गांवों तक गये। उनका अब तक का जीवन बहुत सुविधापूर्ण रहा था; पर सेवाव्रत स्वीकार करने के बाद उन्होंने किसी कष्ट की चर्चा नहीं की।
उन्होंने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण वर्ग लगाये तथा सेवा कार्यों के लिए अनेक न्यास बनाकर देश-विदेश से धन जुटाया। 1992 में वे अमरीका में हुए हिन्दू सम्मेलन में भी गये। उनकी देखरेख में 4,200 स्थायी तथा 1,500 अन्य सेवा प्रारम्भ हुए। यह उनकी दूरगामी सोच का ही परिणाम है।
1996 में हृदयाघात के बाद वे दिल्ली में केन्द्रीय कार्यालय पर रहकर ही सब प्रकल्पों की देखभाल करने लगे। उन्होंने परिवार चलाने के लिए 25 साल नौकरी की; पर समाज सेवा में 26 साल लगाये, इसका उन्हें बहुत संतोष था। संतुष्टि और शांति के इस सुखद अहसास के साथ 3 नवम्बर, 2009 को कोटा के एक चिकित्सालय में उनका देहांत हुआ।