कांग्रेस के मटियामेट होने की जिम्मेदारी किसकी ?

कांग्रेस पार्टी ऐसी दशा में पहुंच गई है जहां उसके घोर समर्थक भी कहते हैं कि उस पर चर्चा के अब कोई मायने नही। पांच राज्यों के चुनावों में फिर मटियामेट होने के बाद कांग्रेस के पास कहने के लिए ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी तरह की उम्मीद जग सके। सोनिया गांधी परिवार के घोर समर्थक और उनके लिए मोर्चा लेने वाले भी कह रहे हैं कि इन्हें पार्टी से ही नहीं राजनीति से अलग कर लेना चाहिए ताकि कांग्रेस खड़ा होने का अवसर प्राप्त कर सके।

यानी इन सबकी दृष्टि में कांग्रेस के पुनर्जीवित व पुनर्गठित होने में सबसे बड़ी बाधा परिवार ही है। निश्चित रूप से सभी इससे सहमत नहीं होंगे किंतु यह प्रश्न तो उठेगा ही कि अगर आज कोई सक्षम कार्यकर्ता या नेता या कार्यकर्ताओं- नेताओं का समूह कांग्रेस को नए सिरे से खड़ा करने के लिए सामने आए तो क्या उसे ऐसा अवसर मिलेगा?

कह सकते हैं कि ऐसा कोई व्यक्ति तो दिख नहीं रहा। ऐसा व्यक्तित्व कौन है इसका फैसला कैसे होगा? कोई कोशिश करेगा तभी तो उसकी प्रतिभा और क्षमता का पता चलेगा। क्या अभी कांग्रेस में ऐसी कोशिश करने वाले को स्वतंत्रता और समर्थन मिलने की गुंजाइश है?इसी प्रश्न के उत्तर में कांग्रेस का अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों निहित है। पांचों राज्यों में रणनीति बनाने से लेकर उम्मीदवारों के चयन व नेतृत्व का चेहरा तय करने आदि का नियंत्रण किनके हाथों में था? इसके उत्तर में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा का नाम लेने में किसी को मिनट भर भी देर नहीं लगेगी। उत्तर प्रदेश की पूरी कमान प्रियंका वाड्रा के हाथों थी तो राहुल गांधी पांचो राज्यों के मुख्य प्रचारक।

निश्चित रूप से सोनिया गांधी अपनी अस्वस्थता के कारण सामने नहीं आ सकती लेकिन हर फैसले और विमर्श में उनकी भूमिका रही होगी। दुर्भाग्य यह है कि जब भी कोई गंभीरता से कांग्रेस के हित की दृष्टि से परिवार के अलग होने का सुझाव देता है तो उन्हें सीधे कांग्रेस विरोधी और किसी न किसी पार्टी का समर्थक या अन्य तरह के आरोपों से लाद दिया जाता है। जरा सोचिए, उत्तराखंड में हर 5 वर्ष पर सत्ता बदलने की परंपरा रही है। इस नाते कांग्रेस के पास पूरा अवसर था। वहां कांग्रेस ही मुख्य विपक्ष थी। बावजूद उसकी ऐसी दशा हो गई कि मुख्यमंत्री के उम्मीदवार हरीश रावत तक चुनाव हार गए। इसी तरह मणिपुर में लगातार तीन बार सत्ता में रहने के बाद 2017 में भाजपा से ज्यादा सीटें रहने के बावजूद वह।सरकार नहीं बना पाई और इस बार उसकी दशा जद यू और एनपीएफ की तरह हो गई।

कांग्रेस को जद यू और एनपीएफ के समान 5 सीटें मिली हैं। इनसे ज्यादा एनपीपी ने 7 सीटें प्राप्त की है। भाजपा को 32 सीटें तथा 37.83% मत मिला है तो कांग्रेस को केवल 16.83%। एनपीपी को 17.29% वोट मिला। यानी कांग्रेस वहां अब भाजपा के बाद दूसरे स्थान पर भी नहीं है। जो विधायक जीत कर आए हैं वो कितनी देर तक कांग्रेस के साथ रहेंगे यह भी नहीं कहा जा सकता। संभव है आने वाले दिनों में विधानसभा में कांग्रेस का नाम लेवा इस विधानसभा में ना रहे ।गोवा में भी उसके पास अवसर था लेकिन कांग्रेस 11 सीटों तक सीमित हो गई जबकि भाजपा 20 स्थान पाने में कामयाब रही। कांग्रेस के शीर्ष चेहरा पी चिदंबरम वहां जमे हुए थे। वे भी कुछ न कर सके। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इसके बाद फिर कांग्रेस इन राज्यों में खड़ी हो पाएगी?

पंजाब में कांग्रेस इसके पहले कभी 18 सीटें और 22.98 प्रतिशत मत के निचले स्तर पर नहीं गई। जिसे परिवार ने मुख्यमंत्री बनाया वही दोनों स्थानों से चुनाव हार गए। जिसे अध्यक्ष बनाया वह भी गए। अकाली दल और भाजपा के गठबंधन टूटने तथा अमरिंदर सिंह के बाहर निकलने के बाद कुछ विशेष न कर पाने की हालत में कांग्रेस के पास सत्ता में वापसी का पूरा अवसर था। लेकिन आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को धूलधुसरित कर दिया। सच कहा जाए तो कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को इतनी बड़ी जीत थाली में सौंप कर दे दी। उत्तर प्रदेश के बारे में कह सकते हैं कि  वहां कांग्रेस है ही नहीं। हालांकि यहां भी प्रश्न उठेगा कि क्यों नहीं है। कितने राज्यों में कहा जाएगा कि कांग्रेस है ही नहीं? कल कहा जाएगा कि बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, दिल्ली आदि में तो कांग्रेस है ही नहीं।

आखिर इन राज्यों की राजनीतिक मुख्यधारा से कांग्रेस गायब किसके काल में हुई और क्यों हुई? सोनिया गांधी के हाथों जब कांग्रेस का नेतृत्व आया तो इन सारे राज्यों में वह सशक्त थी। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, दिल्ली और उड़ीसा में मुख्य ताकत थी। यही सच्चाई बताती है कि कांग्रेस की वर्तमान दशा एक-दो दिन की नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस के सिमटते जाने की प्रक्रिया लगातार बढ़ती रही और उसे रोकने में नेतृत्व कामयाब नहीं हुआ। यह बात सही है कि कांग्रेस के पतन की शुरुआत बरसों पहले हो चुकी थी और 2004 एवं 2009 में परिस्थितिवश वह सत्ता में आ पाई। लेकिन जहां तक आए वहां से संभाल कर रखने और उसे सशक्त करने की जिम्मेवारी नेतृत्व की ही थी। सोनिया गांधी शीर्ष नेतृत्व पर थी। सरकार के प्रधान मनमोहन सिंह थे लेकिन सत्ता और राजनीति का पूरा सूत्र सोनिया गांधी के हाथों केंद्रित था।

इसलिए पूरी दुर्दशा की जिम्मेवारी किसके सिर जाएगी? पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को बाहर करने, सिद्धू को अध्यक्ष बनाने, उनके सारे आत्मघाती बयानों को सहन करने तथा चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने जैसे निर्णयों के पीछे किसी तरह की स्वीकार्य तार्किकता दिखाई देती है? इसके पीछे कोई एक कारण था तो यही कि अमरिंदर सोनिया परिवार के विरोधी न होते हुए भी संपूर्ण रूप से निष्ठावान नहीं हो सकते थे। सिद्धू परिवार को महत्व देते थे और चन्नी निष्ठावान फुल। अगर लक्ष्य कांग्रेस की मजबूती की जगह परिवार की सुरक्षा हो जाए तो पार्टी की यही दशा होगी। यह कोई एक जगह की बात नहीं है । आप पिछले ढाई दशक के अंदर केंद्र से राज्यों तक पार्टी में सामने आए चेहरों पर नजर दौड़ाइये पूरी तस्वीर स्पष्ट हो जाएगी।

इस समय कांग्रेस लगभग नष्ट होने की कगार पर है। जहां भी कांग्रेस है वहां ज्यादातर पार्टियां उसे निगल जाने के लिए प्रयासरत है। तृणमूल कांग्रेस पहले आगे थी। अब आम आदमी पार्टी भी सामने है। दिल्ली और पंजाब के बाद उसका निशाना हरियाणा और कर्नाटक है। वह गुजरात में भी कोशिश करेगी और गोवा में अगले चुनाव तक किसी तरह कांग्रेस का नामोनिशान मिटा देने के लिए काम करेगी। तृणमूल पश्चिम बंगाल में साफ करने के बाद पूर्वोत्तर के राज्यों से कांग्रेस की अंत्येष्टि का पूरा आधार तैयार कर चुकी है। अभी तक सोनिया गांधी परिवार और उनके रणनीतिकारों की ओर से एक ऐसा बयान नहीं आया जिससे पता चले कि इन पार्टियों का ग्रास बनने से कांग्रेस को बचाने की सोच तक इनके पास है।

यह बात समझ से परे है कि कि सोनिया गांधी , राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा तथा उनके समर्थकों को इसका आभास नहीं कि जब पार्टी खत्म हो जाएगी तो परिवार की हैसियत कुछ नहीं रहेगी। क्यों नहीं पार्टी में नया नेतृत्व या नेतृत्व मंडली विकसित करने की पहल हो रही है? राहुल गांधी ने त्यागपत्र दे दिया लेकिन बिना पद के ही संपूर्ण नीति निर्धारण का सूत्र उनके हाथों सीमित रहेगा। सोनिया गांधी प्रवास तक करने की स्थिति में नहीं लेकिन कार्यकारी अध्यक्ष तब तक वो रहेंगी जब तक राहुल गांधी के सिर सेहरा नहीं बंध जाता। जो नेता इसके विरुद्ध असंतोष प्रकट कर रहे हैं या बयान दे रहे हैं वह भी खुलकर सामने नहीं आते।

अगर वे सब कांग्रेस को बचाना चाहते हैं तो उन्हें खुलकर विद्रोह करना चाहिए तथा समानांतर कांग्रेस बनाकर नए सिरे से पुनर्रचना और पुनर्गठन के लिए जी जान लगाना चाहिए। जिन्हें कांग्रेस के पतन की पीड़ा और उसको बचाने की छटपटाहट है उनके सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं। ऐसा कोई करता नहीं दिख रहा है इसलिए इस समय  कांग्रेस के उठकर खड़े होने की किसी तरह की उम्मीद करना हास्यास्पद हो जाएगा।

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