कुबेरनाथ राय : साहित्य जगत के विशाल वट वृक्ष

ललित निबंध हिन्दी साहित्य की एक अनुपम विधा है। इसमें किसी विषय को लेखक अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर आगे बढ़ाता है। इन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो पाठक नदी के प्रवाह में बिना प्रयास स्वयमेव बह रहा हो। गद्य को पढ़ते हुए पद्य जैसे आनन्द की अनुभूति होती है। अच्छे ललित निबंध को एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद समाप्त किये बिना उठने की इच्छा नहीं होती। हिन्दी साहित्य में अनेक ललित निबंधकार हुए हैं। इनमें श्री कुबेरनाथ राय का अप्रतिम स्थान है।

श्री कुबेरनाथ का साहित्यिक व्यक्तित्व एक ऐसा विशाल वट वृक्ष है, जिसकी दूर-दूर तक फैली जड़ें भारत के वैष्णव साहित्य, श्रीराम कथा और गांधी चिन्तन से जीवन रस ग्रहण करती हैं। भारतीयता पर दृढ़तापूर्वक खड़े होकर भी उनका चिन्तन सम्पूर्ण विश्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्रेमपूर्ण बन्धन में बाँधने को तत्पर दिखाई देता है। हिन्दी ललित निबन्ध को उन्होंने एक नया आयाम दिया, जिससे पाठक के मन को भी भव्यता प्राप्त होती है।

श्री कुबेरनाथ राय का जन्म 26 मार्च, 1933 को मतसा (गाजीपुर, उत्तर प्रदेश) में एक सुसंस्कृत वैष्णव परिवार में हुआ था। उनके छोटे बाबा पंडित बटुकदेव शर्मा अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान और उच्च कोटि के पत्रकार थे। उनका संकल्प था कि गुलाम भारत में मैं सन्तान उत्पन्न नहीं करूँगा। इसलिए किशोरवस्था में ही उन्होंने घर छोड़ दिया और आजीवन अविवाहित रहकर देशसेवा की।

उन्होंने देश, तरुण, भारत, प्रताप, लोक संग्रह, प्रणवीर जैसे राष्ट्रव्यापी ख्याति प्राप्त पत्रों का सम्पादन किया। महात्मा गांधी, डा0 राजेन्द्र प्रसाद, गणेश शंकर विद्यार्थी, सहजानन्द सरस्वती, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि से उनके निकट सम्बन्ध थे।

श्री कुबेरनाथ जी पर अपने इन छोटे बाबा के व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी का श्रेष्ठ ज्ञान और राष्ट्रीयता के संस्कार उन्हें छोटे बाबा से ही मिले। कक्षा दस में पढ़ते समय ही उनकी रचनाएँ ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ जैसे विख्यात पत्रों में छपने लगी थीं। इनमें छपने के लिए तत्कालीन प्रतिष्ठित साहित्यकार भी लालायित रहते थे। स्पष्ट है कि कुबेरनाथ राय के मन में साहित्य का बीज किशोरवस्था में ही पल्लवित और पुष्पित हो चुका था।

प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1958 से 86 तक वे असम के नलबाड़ी कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। 1986 में उनकी नियुक्ति अपने गृह जनपद गाजीपुर में स्वामी सहजानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य के पद पर हुई। इसी पद से वे 1995 में सेवानिवृत्त भी हुए।

उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं – प्रिया नीलकण्ठी, रस आखेटक, मेघमादन, निषाद बाँसुरी, विषाद योग, पर्णमुकुट, महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, मन वचन की नौका, किरात नदी में चन्द्रमधु, दृष्टि अभिसार, त्रेता का बृहत साम, कामधेनु मराल आदि। विशेष बात यह है कि श्री कुबेरनाथ ने सदा अंग्रेजी का अध्यापन किया; पर साहित्य द्वारा अपने मन की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को ही श्रेष्ठ माना।

वे भारतीय ज्ञानपीठ के प्रतिष्ठित ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत किये गये। 5 जून, 1996 को हिन्दी के इस रससिद्ध साधक का हृदयगति रुकने से देहान्त हो गया।

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