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शक्ति के विस्तार का अध्याय है सुंदर कांड

शक्ति के विस्तार का अध्याय है सुंदर कांड

by हिंदी विवेक
in अध्यात्म, विशेष, संस्कृति
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स्मृति का विस्मृति में बदलना, शक्ति होते हुए भी शक्ति का भान ना होना ही, हमारे दुःख का कारण होता है..इसलिए ऐसी मन:स्थिति को असुंदर माना गया है। वहीं जब हमारी विस्मृति स्मृति में बदल जाती है, जब हमें स्वयं में प्रतिष्ठित शक्ति का बोध होता है तब हम में सुख का संचार होता है। सुख की अवस्था को सर्वाधिक सुंदर माना जाता है।

जीवन में जैसे सात जन्म, विवाह में सात फेरे, सात वचन, लोकों में सात लोक, सात समुद्र, संगीत में सात सुर वैसे ही रामायण में सात कांड हैं। जिसमें सुंदरकांड पाँचवे पायदान पर आता है। संगीत में जैसे पाँचवे सुर “प” को पराक्रमी सुर माना जाता है, वैसे ही सुंदरकांड भी अपने अंदर पंच महाभूतों के श्रेष्ठतम योग हनुमान जी महाराज की पुण्यता, पवित्रता, प्रवीणता, पराक्रम, पुरुषार्थ की गाथा है।

श्री जामवंत जी के द्वारा हनुमान जी को उनकी शक्ति का बोध ( स्मरण ) कराए जाने के बाद, सुंदरकांड की शुरुआत ही हनुमान जी के इस कथन से होती है, “जामवंत के वचन सुहाए, सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।” और वे अपनी भूली हुई शक्ति को याद करके खड़े हो जाते हैं सामने फैले हुए १०० योजन लम्बे समुद्र को पार करने के लिए।

“युग सहस्र योजन पर भानू, लील्यो ताही मधुर फल जानू।” वाले हनुमान जी के लिए स्वयं के शक्ति बोध के बाद इस समुद्र को पार करना सामान्य सी बात थी।

पुण्यता, पवित्रता, पराक्रम, पुरुषार्थ को प्रलोभन की कसौटी पर ही परखा जाता है, सो बीच मार्ग में ही रसों का श्रेष्ठतम स्वरूप सु-रस अर्थात “सुरसा” से उनका सामना होता है, रस की प्रकृति होती है की वह पुरुषार्थ को उदरस्थ करना चाहता है।

किंतु महाबली हनुमान जो पुरुषार्थ और पराक्रम के प्रतिमान नहीं स्वयं पराक्रम और पुरुषार्थ हैं को उदरस्थ करना सुरसा के वश की बात नहीं थी, प्रलोभन रूपी सुरसा जैसे-जैसे अपने रूप का विस्तार करती जाती उसके दोगुने अनुपात में रूद्र के ग्यारहवें अवतार श्री हनुमान लाल जी भी अपने रूप को विस्तारित करते जाते। सफल होने के लिए सिर्फ़ बड़ा होने की कला ही नहीं छोटा होने का हुनर भी आना चाहिए और शिव तो स्वयं सफलता हैं सो वे इसमें दक्ष थे, साथ ही वे प्रलोभन की प्रकृति से भी भली भाँति परिचित थे, प्रलोभन या सु-रस सदैव विशाल, विराट शक्तिशाली की ओर ही आकर्षित होता है क्षुद्र, सूक्ष्म या लघु में उसकी रुचि नहीं होती। प्रलोभन बढ़ तो सकता है किंतु बढ़ जाने के बाद वह कम या छोटा नहीं होता। सो हनुमान जी ने अपनी बुद्धिमत्ता से पहले प्रलोभन रूपी सुरसा को अपने प्रति आकर्षित कर उसे बढ़ने के लिए विवश किया और फिर स्वयं को छोटा कर उसके सामने अपने को नगण्य बना दिया।

“जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।

तासु दून कपि रूप देखावा॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।

अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥”

सुरसा विस्मित चकित होकर रसराज रामदूत श्री हनुमान के कौशल को प्रणम्य भाव से देखती रही।

किसी को नष्ट करना हो तो उसे नहीं, उसकी “इमिज” को नष्ट कर दीजिए व्यक्ति स्वमेव समाप्त हो जाएगा, यह आज का नहीं अत्यंत पौराणिक नुस्ख़ा है इसका प्रमाण सुंदरकांड में मिलता है। समुद्र लाँघते हुए महावीर श्री हनुमंत लाल जी का सामना एक ऐसे ही राक्षस से हुआ जो आकाश में उड़ते हुए किसी भी पक्षी की समुद्र जल में उभरी हुई परछाई ( इमिज ) को पकड़ता था, जिससे वह पक्षी अवश होकर आकाश में ही जड़ हो जाता और समुद्र जल में गिर जाता तब राक्षस बहुत सरलता से उसे अपना शिकार बना लेता। सो यही पैंतरा उसने बजरंगलाल जी महाराज पर आज़माया ..

“गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।

एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।

तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥”

अतुलित बलशाली बजरंगी के लिए स्वयं का कोई अस्तित्व ही नहीं था वे तो प्रभु श्रीराम की परछाईं थे, तो वे अपने प्रभु की इमिज पर चोट कैसे बर्दाश्त करते सो वे उस मिथ्याचारी कपटी का वध कर राममुद्रिका ले लंका पहुंच गए जगदम्बा सीता की खोज में।

मेरे लिए सुंदरकांड भक्ति के नहीं, शक्ति के विस्तार का अध्याय है। इसके शक्ति प्रदर्शन में युक्ति का समावेश है, सुंदरकांड मुक्ति के मार्ग का “प्रवेश द्वार” है। मुक्ति माँ सीता के लिए भी और लंकाधिपति रावण के लिए भी। सीता जी “भावसागर” से उबरना चाहती हैं, तो रावण “भवसागर” से छुटकारा पाना चाहता है। माया ( सीता जी ) और मायावी ( रावण ) दोनों ही मायापति ( श्रीराम ) से मिलने को आतुर हैं।

हनुमान जी महाराज, युक्ति व भक्ति के प्रतीक हैं। युक्ति और भक्ति जब संयुक्त होते हैं तब ही वे शक्ति कहलाते हैं। श्री हनुमान जी शक्ति का पर्याय हैं। युक्ति व भक्ति से युक्त शक्ति सदैव सुंदर होती है। सुंदर क्या है ? सत्यम शिवम् सुंदरम अर्थात सत्य ही “शिव” है और शिव ही “सुंदर” हैं। तो शिव कौन हैं ? हनुमान चालीसा में उल्लेखित है की “शंकर सुवन ( स्वयं ) केसरीनंदन”..महादेव शिव ने ही अपने आराध्य परमात्मा श्रीराम की सेवा के लिए हनुमान जी के रूप में जन्म लिया था। चूँकि इस अध्याय में शिव ( हनुमान जी ) का प्रयाण है शक्ति ( मातृशक्ति जगदम्बा सीता ) के संधान के लिए, इसलिए इसे “सुंदरकांड” कहा गया है।

विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करबे को आतुर वाले महावीर विक्रम बजरंगी, संकल्प और समर्पण जिनका मूल है, भक्ति, शक्ति, युक्ति, मुक्ति के दाता, बल बुद्धि विद्या विवेक के स्वामी श्री हनुमान जी महाराज आपके श्री चरणों में बारम्बार प्रणाम है। हे दयानिधि आपसे प्रार्थना है कि हम अकिंचनों के सभी पापों को क्षमा करते हुए आप समस्त चराचर जगत का कल्याण करें।

– आशुतोष राणा

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