सच्चे प्रेम में स्वार्थ नहीं होता

श्री रामकृष्ण परमहंस नरेंद्र के प्रति बहुत अनुराग रखते थे। जब कई दिन तक नरेंद्र नहीं आते तो स्वामीजी स्वयं उन्हें बुलवा लेते थे। नरेंद्र नहीं चाहते थे कि स्वामीजी उनके साथ इतने ज्यादा जुड़ जाएँ कि फिर उन्हें ईश्वर की साधना में बाधा आए और उनके हृदय को कष्ट हो। वे उन्हें समझाने की तरकीब सोचने लगे।

इसीलिए एक बार नरेंद्र ने स्वामीजी से नाराजगी दिखाते हुए कहा, ‘‘आप मेरे लिए इतने अधीर क्यों हो जाते हैं? आप जैसे महान पुरुष के लिए यह ठीक नहीं!’’

स्वामी रामकृष्ण नरेंद्र की बात सुनते रहे।

नरेंद्र ने कहा, ‘‘आपको राजा भरत का दृष्टांत तो ज्ञात ही होगा। राजा भरत दिन-रात अपने द्वारा पाले गए हिरन के बारे में ही सोचते रहते थे। परिणति यह हुई कि वे भी मृत्यु के पश्चात् हिरण की गति को ही प्राप्त हुए। इसीलिए आपको भी मेरे बारे में इतना नहीं सोचना चाहिए।’’

नरेंद्र की बात सुनकर स्वामीजी दुःखी हो गए और मंदिर के भीतर चले गए।

कुछ क्षणों के बाद ही वे हँसते हुए लौट आए और नरेंद्र से बोले, ‘‘मैं तेरी कोई बात नहीं मानूँगा। मैंने भीतर जाकर देवी माँ को तेरी बात बताई तो माँ ने कहा कि तू तो नरेंद्र में नारायण को देखता है, इसीलिए तो उससे इतना स्नेह करता है। तू नरेंद्र को नहीं, उसके भीतर के नारायण को प्यार करता है।’’

नरेंद्र अपने प्रति गुरु के प्रेम को देखकर भाव-विभोर हो गए।

एक पारखी गुरु ही अपने शिष्य को पहचानता है। सच्चा प्रेम नारायण के समान होता है, उसमें स्वार्थ नहीं होता।

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