फिसलती जिव्हा

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉक्टर मोहन जी भागवत का “अखंड भारत” इस विषय पर दिया गया वक्तव्य आज भी गरमा गरम चर्चा का विषय बना हुआ है। एक अर्थ में यह अच्छा भी है। इस समय महाराष्ट्र में राज ठाकरे, शरद पवार, जितेंद्र आव्हाड, देवेंद्र फडणवीस, शिव शाहिर स्वर्गीय बाबासाहेब पुरंदरे, लेखक लेंस, इन सब विषयों पर रोज कुछ ना कुछ चर्चा हो रही है। आरोप-प्रत्यारोप, स्पष्टीकरण एक दूसरे के बोलने की नकल करना, किसका चेहरा नाग के जैसा है तो दूसरे का मुर्गी के पीछे के भाग जैसा है, यह सब अपनी-अपनी दृष्टि का प्रश्न है।

परंतु, हम सब क्या देख रहे हैं, महाराष्ट्र की राजनीति अत्यंत निचले स्तर पर पहुंच गई है। इसे ही ‘हीन स्तर’ कहते हैं। इसलिए जिसे अपनी अभिरुचि स्वस्थ रखनी है उन्हें इन वक्तव्यों की बहुत अधिक चर्चा नहीं करनी चाहिए। इस वातावरण में अखंड भारत की चर्चा कुछ वैचारिक आधार पर और कुछ ऐतिहासिक आधार पर हो रही है, उसका हमें स्वागत करना चाहिए। हमेशा की तरह कुछ लोगों ने चर्चा को राजनीतिक रंग देने का प्रयास किया है। कोई राजनीतिक नेता कहता है की, ‘अखंड भारत बाद में बनाइए, कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में सुरक्षित भेजिए। उनके सुरक्षा की व्यवस्था कीजिए।’ दूसरा कहता है,’15 वर्षों में जो होगा सो होगा परंतु पहले मस्जिदों पर के लाउडस्पीकर हटाइए।’ और कोई उठकर कहता है डॉ मोहन जी भागवत ने मुस्लिम धर्म को लक्ष्य करने के लिए सनातन धर्म का सहारा लिया है। अखंड भारत होने से मुस्लिमों की संख्या 45 करोड़ के आसपास हो जाएगी। अभी 15 करोड़ ही संभाले नहीं जा रहे हैं तब 45 करोड कैसे संभालेंगे? ऐसे अनेकों प्रश्न उपस्थित किए गए हैं।

पाकिस्तान, नेपाल, भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश, अफगानिस्तान ये सब देश स्वतंत्र और स्वायत्त हैं। उन्हें अखंड भारत में कैसे समाविष्ट किया जाएगा? अखंड भारत के वक्तव्य का अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर क्या परिणाम होगा? इसकी भी चर्चा कुछ लोगों ने शुरू की है। कुछ लोगों को लगता है की प्रधानमंत्री संघ स्वयंसेवक है और डॉक्टर मोहन जी भागवत संघ के सरसंघचालक।  सरसंघचालक जी का वक्तव्य याने स्वयंसेवक को दिया गया आदेश है। इस आदेश का पालन स्वयंसेवक प्रधानमंत्री करेंगे क्या? कौन, कब और कहां चर्चा करेगा, यह कहा नहीं जा सकता। इस चर्चा को एक स्तर प्राप्त है। कोई भी एक दूसरे पर व्यक्तिगत टीका टिप्पणी नहीं कर रहा है या एक दूसरे की ‘मिमिक्री’ नहीं कर रहा है। वे अपनी अपनी ओर से युक्तिवाद कर रहे हैं, तर्क रख रहे हैं। उस युक्तिवाद और तर्क में कोई तथ्य नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

इस विवाद में अब श्री प्रवीण तोगड़िया भी कूद पड़े हैं। उनका नाम सर्वविदित है। एक समय वे विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे कहते हैं,  “अब आप के स्वयंसेवक की सरकार है, उनके पास 15 लाख की सेना है। अब करके दिखाने का समय आ गया है। आपका स्वागत समर्थन करते समय 7 वर्षों से कश्मीरी हिंदुओं को उनके मूल निवास वापस नहीं भेजा जा सका। इस की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा इन हिंदुओं को उनके मूल गांव वापस भेजा जाए, उसके बाद उन्हें स्वत: उन कश्मीरी हिंदुओं के साथ कश्मीर के गांव में रहना चाहिए। यह अखंड भारत का पहला पड़ाव होगा।”

प्रवीण तोगड़िया आगे कहते हैं, ” पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर अधिकार प्राप्त करें, वहां मोहन जी भागवत संघ की शाखा शुरू करें। स्वयंसेवक के रूप में प्रवीण तोगड़िया ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे’ कहने के लिए वहां आएगा। रशिया यूक्रेन में घुस सकता है तो पाक व्याप्त कश्मीर तो हमारे बाप का है। यह दूसरा पड़ाव हुआ। तीसरे पड़ाव में पाकिस्तान पर हमला करें। इस समय डॉक्टर मोहन जी भागवत को स्वता टैंक में बैठकर जाना चाहिए। उनका टैंक जहां जहां से जाएगा वहां की सफाई करने का काम यह प्रवीण तोगड़िया करेगा।”

प्रवीण तोगड़िया एक समय संघ के समर्पित, निष्ठावान एवं ध्येयनिष्ठ स्वयंसेवक थे। ऐसे स्वयंसेवक एक अलिखित नियम का पालन अपने आप करते हैं। वह याने सर संघचालक जी के वक्तव्य पर किसी भी प्रकार की सार्वजनिक टीका टिप्पणी ना करना। उनका वक्तव्य भले ही हमें अनुकूल ना लगे फिर भी शांत रहना। अपना कहना योग्य अधिकारी के सामने व्यक्त करना या पत्र लिखकर अपना मत उन्हें सूचित करना। मेरे संघ जीवन में यह काम मैंने अनेक बार किया है। सरसंघचालक का स्थान तो श्रद्धा और संघनिष्ठा का प्रतीक है। सभी स्वयंसेवक इस पद के विषय में अत्यंत पूज्य भाव मन में रखते हैं। इसीलिए संघ में सरसंघचालक के पद का उल्लेख परम पूजनीय सरसंघचालक के रूप में किया जाता है। प्रवीण तोगड़िया के संदर्भ में सभी प्रकार का आदर भाव मन में रखते हुए भी यह कहना पड़ेगा की प्रवीण जी आप फिसल गए हैं! आपकी जिव्हा जितनी नहीं फिसलना चाहिए उससे ज्यादा फिसल गई है। स्वयंसेवक की मर्यादा का उल्लंघन आपने किया है। यह अच्छा नहीं है।

विश्व हिंदू परिषद आपको छोड़नी पड़ी, वह क्यों, इसका आत्मचिंतन आपको करना चाहिए था। वह क्यों नहीं किया? यह आपका प्रश्न है। एक तरफ मैं आपके साथ ‘नमस्ते सदा वत्सले’ कहूंगा यह कह कर मैं स्वयंसेवक हूं यह व्यक्त करना और दूसरी ओर आप ‘टैंक में बैठकर जाएं’ व्यंगात्मत रूप से कहना इसका कोई अर्थ नहीं है। आपके संपूर्ण वक्तव्य से यही ध्वनित होता है कि आप कहना चाहते हैं की, मोहन जी, आप का संपूर्ण वक्तव्य हास्यास्पद है। उसको व्यवहार में उतारना आपके लिए संभव नहीं है। यह केवल मुंह से निकली हुई भाप है। परंतु आप सीधे सीधे ऐसा नहीं कह रहे हैं। आपको जो कहना है वह आपने व्यंगात्मक शैली में कह कर दिखाया है।

आपने यदि स्वयंसेवकत्व का त्याग कर दिया है तो ऐसा कहने का आप को पूर्ण अधिकार है। राहुल गांधी, गहलोत, दिग्विजय सिंह इत्यादि की पंक्ति में बैठने का सम्मान यदि आपको चाहिए तो उसके लिए मना करने वाले हम कौन? एक बार यदि स्वयंसेवकत्व छोड़ दिया तो सरसंघचालक, शंकराचार्य, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सभी समान और फिर सभी पर जो कुछ मन में आएगा उसे कहने का अनिर्बंध अधिकार प्राप्त हो जाता है। परंतु एक और ‘नमस्ते सदा वत्सले’ कहना और दूसरी ओर सरसंघचालक जी को निशाना बनाना यह विसंगति है। इसे आप तत्काल दूर करिए।

आप के रुप में सरसंघचालक जी पर वागबाण चलाने वाला एक और वक्ता मिल गया इसका आनंद सीताराम येचुरी एंड कंपनी, राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह एंड कंपनी, ओवैसी एंड कंपनी को निश्चित ही हुआ होगा। इन सब के साथ हाथ मिलाने से आपको कोई नहीं रोक सकता। भाषण की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ये संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकार हैं। यदि सभी लोग आगामी समय में एक सभा का आयोजन कर उसने आपको वक्ता के रूप में बुलाते हैं तो वहां जाने में आपको कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। परंतु एक स्वयंसेवक के रूप में आपकी और देखने का हमारा दृष्टिकोण नहीं बदलेगा।

संघ यही सिखाता है की जो हमारे साथ है वह हमारा ही है। हमें छोड़ कर गए हुए भी हमारे ही हैं और हमारे विरोधी भी हमारी ही हैं। सभी अपने ही होने के कारण किसी के भी प्रति बैर, द्वेषभावना स्वयंसेवक अपने मन में रख ही नहीं सकता। संघ का मत ऐसा है कि कई बार कुछ बातें हमारे मन के विपरीत होती हैं फिर भी अनुशासन का पालन करते हुए मैं उन मतों का पालन करूंगा। यह स्वयंसेवक का स्वभाव है। इसलिए आपका मत अलग होते हुए भी एक समय आप संघ के कट्टर स्वयंसेवक थे यह आप भूल नहीं सकते। इसलिए अपनत्व का यह नाता हमेशा कायम रहेगा। क्या कह सकते हैं, कल आप शांत हो जाएं और संघ के मूल प्रवाह में शामिल होना चाहिए, ऐसा आपको लगने लगे! उस समय का हम लोग इंतजार करेंगे।

This Post Has One Comment

  1. Anonymous

    क्रोध के द्वारा मन में अविवेक उत्पन्न हो जाता है और व्यक्ति का मानस अनियंत्रित होने पर कटु वचन की अभिव्यक्ति होती है; जिसे आत्म-मंथन के द्वारा वश में करना चाहिए।🙏

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