चीन से दोस्ती, जी का जंजाल

किसी राष्ट्र की आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की सुरक्षा इस बात पर निर्भर करती है कि उस राष्ट्र के आस-पास के राष्ट्रों में कितनी शांति है तथा वे कितने सुरक्षित हैं। भारत के आसपास के राष्ट्रों पर अगर नजर डालें तो पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत, अफगानिस्तान इत्यादि राष्ट्रों में पिछले कुछ समय से जिस प्रकार उथल-पुथल मची हुई है, उसका असर भारत पर भी होता रहा है। ‘प़ड़ोसी प्रथम’ की विदेश नीति को अपनाने वाला भारत वर्तमान में जब इन राष्ट्रों की ओर देखता है तो उसके अंदर नैसर्गिक और स्वाभाविक रूप से ही सहायता करने का भाव जाग्रत हो जाता है।

नैसर्गिक और स्वाभाविक इसलिए क्योंकि इन राष्ट्रों से भारत के सम्बंध बहुत पुरातन हैं। हम सभी की नाल एक दूसरे से जुड़ी हुई है। हमारी सभ्यताओं-परंपराओं का विकास एक साथ हुआ है। राजनैतिक घटनाक्रमों ने भले ही हमें अलग कर दिया हो और हमारी जमीनों पर सीमाओं की रेखाएं खींच दी गई हों, परंतु सांस्कृतिक धरातल पर हम सभी आज भी एक दूसरे से जुड़े हैं। मोदी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में जब हमारे प़ड़ोसी राष्ट्र के प्रमुखों को आमंत्रित किया गया था, तभी भारत की ‘प़ड़ोसी प्रथम’ की नीति तय होती दिख गई थी।

हमारे प़ड़ोसी राष्ट्रों में से अफगानिस्तान को छोड़ कर बाकी सभी राष्ट्रों को सबसे अधिक नुकसान चीन ने ही पहुंचाया है। चाहे वह पाकिस्तान हो, श्रीलंका हो, तिब्बत हो या नेपाल हो। सभी चीन के भ्रम जाल में फंसे हुए हैं। विस्तारवादी चीन की दूरदृष्टि भांपने में असफल रहे ये राष्ट्र आवश्यकता पड़ने पर आज पुन: भारत की ओर आशावादी दृष्टिकोण से देख रहे हैं।

चीन ने इन सभी राष्ट्रों को अपने कब्जे में लेने के उद्देश्य से ही इन राष्ट्रों की आर्थिक सहायता करनी शुरू की थी। परंतु शुरुआत में ये राष्ट्र चीन की इस चाल को समझ नहीं पाए और भारत से दुश्मनी पाल बैठे, परंतु अब जैसे-जैसे चीन का मुखौटा उतरता जा रहा है इन राष्ट्रों को अपनी भूल का अहसास हो रहा है। हालांकि इन राष्ट्रों की खस्ता हालत के लिए उनके स्वयं के राजनैतिक निर्णय भी दोषी हैं परंतु उनके बुरे दौर में चीन का उनको मित्रता दिखाना और अंत में उन राष्ट्रों को इतने कर्जों में डुबा देना कि उन्हें उसके बदले अपनी सीमावर्ती जमीन या बंदरगाह लीज पर देने पड़े, यह चीन की सोची-समझी चाल ही है।

पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन के ठीक पहले-पहले पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को अचानक भारत की नीतियां अच्छी लगने लगी थीं। परंतु जब तक वे सत्ता में रहे तब तक उनके लिए भारत सबसे बड़ा दुश्मन रहा और चीन सबसे बड़ा मित्र। श्रीलंका के भी 2009 में लिट्टे और गृह युद्ध की समाप्ति के पश्चात से अभी तक भारत से सम्बंध बहुत अच्छे नहीं रहे थे, जबकि भारत ने इसके पहले लिट्टे से लड़ने के लिए शांति सेना श्रीलंका भेजी थी। नेपाल का भी व्यवहार भारत के साथ धूप-छांव का ही रहा। वहां पर जिस पार्टी की सत्ता होती, उनके हिसाब से नेपाल का भारत और चीन की ओर देखने का दृष्टिकोण बदलता था। परंतु अब परिस्थितियां बदल रही हैं।

चीन के हाथों अपना सबकुछ गंवाने के बाद ये देश आज भारत की ओर देख रहे हैं और भारत भी उनकी पूर्ण सहायता करता दिख रहा है। यह चीन से छिपा नहीं है। भारतीय विदेश मंत्री का श्रीलंका जाना, वहां के प्रकल्पों में भारत का निवेश करना, नेपाल के प्रधान मंत्री का भारत के प्रधान मंत्री से मिलना और नेपाल की सहायता करने का निवेदन करना, ये सभी घटनाएं चीन को उकसाने के लिए पर्याप्त हैं।

चीन जानता है कि पहले एशिया और फिर विश्व की महाशक्ति बनने के उसके स्वप्न के आड़े भारत ही आ सकता है। रूस-यूक्रेन युद्ध के समय भी चीन ने बीच-बचाव करने की कोशिश की थी, परंतु पुतिन ने उसकी नहीं सुनी जबकि भारत के प्रधान मंत्री और विदेश मंत्री से रूस ने लम्बी चर्चा की थी। भारत के बढ़ते कदमों को रोकने के लिए चीन निकट भविष्य में कुछ भारत विरोधी कार्रवाहियां कर सकता है। भारत और चीन के सीमावर्ती प्रदेशों में उसने निगरानी के लिए पुल और मोबाइल टॉवर बनाना शुरु कर दिया है। इन सीमावर्ती प्रदेशों में अपनी पकड़ बनाने के लिए चीन निरंतर प्रयत्नशील है। वह यहां गांव बसाने की भी पूरी तैयारी कर चुका है, जिसमें सामान्य दिनों में आम लोग रह सकेंगे और आवश्यकता पड़ने पर सैनिक।

चीन की इस तैयारी को देखते हुए भारत को अब चौकन्ना रहकर अन्य राष्ट्रों की सहायता करनी होगी। क्योंकि भारत की सहायता का उद्देश्य भले ही स्वार्थ साधना न हो परंतु वह चीन के स्वार्थ के आड़े अवश्य आएगा। चीन से हर प्रकार के युद्ध या टकराव के लिए भारत को तैयार रहना होगा। भारत की नीति अपने पड़ोस के राष्ट्रों को सहायता करते समय उनको लूटने की नहीं है और न ही चीन की तरह उनको अपने कब्जे में लेने की है, परंतु चूंकि भारत अब इन राष्ट्रों की सहायता कर रहा है अत: किसी भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर ये देश भारत के विरोध में जाकर चीन का समर्थन नहीं करेंगे। एक तरह से भारत ने अपने स्वभाव को ध्यान में रखकर यह कूटनीतिक कदम उठाया है।

रूस और यूक्रेन युद्ध के बीच भी चीन ने ताइवान पर हमले की बात कहकर विश्व को दो खेमों में बांटने की योजना बनाई थी परंतु वह उसे आगे नहीं ले जा सका क्योंकि वह चाहता था कि चूंकि चीन रूस के साथ है तो रूस भी ताइवान मुद्दे पर उसके साथ खड़ा रहेगा, परंतु यह बात अधिक आगे नहीं बढ़ी। रूस यूक्रेन युद्ध से पूरी दुनिया को यह संदेश तो अवश्य गया है कि यदि किसी भी समय युद्ध होता है तो सभी देशों को लड़ने के लिए आत्मनिर्भर बनना होगा, क्योंकि युद्ध के समय कोई और आपके साथ खड़ा होगा यह आवश्यक नहीं है। वर्तमान में भारत को युद्ध का सबसे अधिक संकट चीन से ही है। अत: अन्य मित्र राष्ट्रों की सहायता करने के साथ-साथ यह अत्यावश्यक है कि भारत युद्ध के लिए भी तैयार रहे।

 

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