पिछले लगभग तीन दशकों से गोसेवा के क्षेत्र में कार्य करनेवाली गो सेवा अनुसंधान केंद्र, देवलापार नामक संस्था अब केवल गो वंश को बचाने वाली गोशाला तक सीमित नहीं रही है, वरन अब वह एक बहुत बड़ा अनुसंधान केंद्र बन गई है, जो कि अन्य गोशालाओं के लिए आदर्श है और मार्गदर्शक भी है। प्रस्तुत हैं पिछले लगभग 25 वर्षों से इस केंद्र को सुनियोजित रूप से चलाने वाले संचालक सुनील मानसिंहका से हुई चर्चा के कुछ प्रमुख अंश-
सामाजिक काम करने के लिए सेवा की भावना होना बहुत आवश्यक होता है, आप गो सेवा क्षेत्र में कैसे आए?
मैं एक राजस्थानी परिवार से हूं, जहां पहले से घर में धार्मिक वातावरण था। इसके साथ ही संघ का संस्कार मिलने के बाद सेवा भाव और भी बड़े रूप में आ गया। हमें जब यह पता चला कि भारत की अर्थव्यवस्था का आधार गो वंश है तो हमने इसे बहुत ही गंभीर विषय के रूप में लिया। इसको लेकर तमाम लोगों से विचार विमर्श भी शुरु कर दिया और वहां से गो सेवा की शुरुआत हो गयी।
गो सेवा का विषय सिर्फ सेवा भावना, सामाजिक सरोकार या फिर धार्मिक आस्था तक ही सीमित नहीं है, इसमें संघर्ष भी हैं। आप ने किन-किन संघर्षों को पार किया?
यह सृष्टि का नियम है कि किसी भी काम को करने में संघर्ष लगता है रेड कारपेट लगाकर कोई काम नहीं होता है। हम जिस काम को लेकर आगे बढ़ रहे हैं, उसका अधिकतर विरोध ही हुआ है। देश में मशीनरी व्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है जबकि गो सेवा के काम में हाथों का इस्तेमाल अधिक करना होता है। देशी गाय की नस्लों की रक्षा करना भी एक चुनौती बनी हुई है, क्योंकि कम दूध देने की वजह से इसे लोगों ने पालना कम कर दिया है जबकि विदेशी गाय जो अधिक दूध देती है उसकी मांग तेजी से बढ़ी है। हम जो भी काम कर रहे हैं वह बिल्कुल धारा के प्रवाह के उलट है इसलिए हमें हर कदम पर संघर्ष करना पड़ा है।
क्या आप अपने संघर्ष के कुछ उदाहरण दे सकते हैं?
हमने जब गो विज्ञान अनुसंधान केंद्र की शुरुआत की तभी यह निश्चित किया था कि हमें देशी गोवंश और विशेषत: बिना दूध वाली गायों का संरक्षण करना है। यह प्रकल्प अपने आप में ही एक बड़ी चुनौती थी, क्योंकि उस समय बिना दूध की गायों को कोई पालना नहीं चाहता था। बिना दूध की गाय किसी काम की नहीं होती है और वह कत्लखानों तक चली जाती थी, लेकिन हमने अपने प्रकल्प के माध्यम से यह साबित किया कि बिना दूध की गाय सिर्फ गोबर और मूत्र के माध्यम से भी आप को लाभ पहुंचा सकती है। आज सरकार भी यह मानने लगी है कि बिना दूध की गाय सिर्फ गोबर व मूत्र से भी उपयोगी होती है और इसकी उपयोगिता के चलते ही अब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने प्राकृतिक खेती और जैविक खेती पर जोर देना शुरु किया है और इसे बढ़ाने के लिए तमाम योजनाएं चला रही हैं। किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य सरकार ने रखा है। वहीं समाज भी अब धीरे धीरे इसे स्वीकार कर रहा है। अब सबको समझ में आ गया है कि गोवंश का आंकलन केवल दूध के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि गोबर-गोमूत्र भी बहुत महत्व का है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह मान लिया है कि जब तक गोवंश गोबर-गोमूत्र दे रहा है तब तक यह कभी अनुपयोगी नहीं हो सकता है।
गो सेवा अनुसंधान केंद्र देवलापार जिसका आप करीब 25 सालों से प्रतिनिधित्व कर रहे है लेकिन इसकी जब स्थापना हुई थी तब उसकी परिस्थितियां कैसी थी और इसका मुख्य उद्देश्य क्या था?
मोरोपंतजी पिंगले की सोच और दूर दृष्टि की वजह से यह सार्थक हो पाया। उनका मेरा साथ करीब 4 सालों का रहा और 1948 के बाद से वे हमेशा इस बात की चर्चा करते थे कि गोवंश को लेकर हमें कुछ करना चाहिए। चिंता इस बात की थी कि किसान बिना दूध वाली गायों को बेच रहा है और वह सीधे कत्लखाने जा रही है, जिसे रोकने की जरूरत है। इसी को आधार बनाकर हमने गो सेवा अनुसंधान केंद्र की स्थापना की। यह वह समय था जब लोग तेजी से फर्टिलाइजर की तरफ बढ़ रहे थे साथ ही गोबर व गोमूत्र को लेकर लोगों को जागरूक करने वालों की भी कमी थी। गाय के दूध, गोबर व मूत्र से दवा भी बन सकती है ऐसी जानकारी लोगों में बहुत कम थी इसलिए कोई इसका लाइसेंस भी लेने को तैयार नहीं होता था। देवलापार गो सेवा अनुसंधान केंद्र एक संघर्ष के बाद इस मुकाम पर पहुंचा है कि आज गोशाला के साथ चिकित्सालय चला रहे हैं, गाय के दूध व मूत्र से दवा भी बनाई जा रही है और लोगों में इसको लेकर सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहे है। पहले वैज्ञानिक गोवंश आधारित खेती और गो उत्पाद को मान्यता नहीं देते थे, लेकिन आज सभी उसे मान्यता भी दे रहे हैं और वैज्ञानिकों की बड़ी टीम और 50 से अधिक अनुसंधान संस्थान हमारे साथ जुड़ कर काम कर रहे हैं।
गो सेवा अनुसंधान की स्थापना के समय जो उद्देश्य निर्धारित किए गये थे, आज संस्था उसके कितने करीब पहुंची है?
यह हमारे लिए बहुत उत्साह का विषय है कि हमने 27 सालों का सफर पूरा कर लिया है और यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। गोवंश की लगभग 65 प्रजातियां भारत में हैं। जिसको सभी लोग अनदेखा कर रहे थे लेकिन आज सरकार के आदेश पर प्रशासकीय विभाग इसका संरक्षण एवं संवर्धन कर रहा है। देशी गाय के दूध, गोबर और मूत्र के महत्व को सभी लोग पहचानने लगे है और धीरे धीरे विदेशी गायों को हटाना शुरु कर दिया है क्योंकि यह अब लोगों को ज्ञात होने लगा है कि विदेशी गाय के दूध से कैंसर जैसी बीमारियां होने लगी हैं।
गो सेवा के क्षेत्र में काम कर रही अन्य संस्थाओं की देवलापार संस्था किस प्रकार से मदद कर रही है?
भारत ने हमेशा से विश्व को एक परिवार के रूप में देखा है, जबकि पश्चिमी सभ्यता ने सिर्फ खुद को विस्तार करने की सोच रखी है। हमने गो सेवा अनुसंधान की स्थापना एकाधिकार के लिए नहीं बल्कि लोकाधिकार के लिए किया जिससे सभी का भला हो सके। गो सेवा का जिक्र गीता में भगवान कृष्ण ने भी किया है कि गो सेवा के माध्यम से स्वावलंबन और संवर्धन हो सकता है। गो पालन को अब रोजगार की दृष्टि से भी खोला जा रहा है जिसमें युवा वर्ग भी शामिल हो रहा है।
देवलापार के सामने किस प्रकार की समस्या उत्पन्न हो रही है और आप को किस प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
हमें आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। साथियों का कभी-कभी अलग दिशा में जाना और एक दूसरे पर विश्वास कम होना। चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत निवेश हो रहा है। गोमूत्र से किडनी की बीमारी ठीक हो रही है। अस्थमा, डायबिटीस, चर्म रोग, आदि अनेक रोगों के उपचार में गो चिकित्सा कारगर सिद्ध हो रही है इसलिए अधिकाधिक रिसर्च को निरंतर आगे बढ़ाना और इसका विस्तार करना हमारे लिए चुनौती से कम नहीं है। यदि लगातार इस दिशा में हम आगे बढ़ेंगे तो बहुत ही अच्छा परिणाम हम ला सकते हैं।
जैसे-जैसे समय बदल रहा है गोरक्षा व गोशाला को नियंत्रित करने के तंत्र में भी परिवर्तन आ रहा है इस दृष्टि से आप कैसे विचार करते हैं?
परिवर्तन समाज और दुनिया का नियम है। हर दिन नया सवेरा होता है। युवा पीढ़ी जो सूचना क्रांति के माध्यम से बहुत तेजी से आगे निकल रही है। अगर हम वैद्य की बात करते हैं तो उसे समाज में वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाती है, सम्मान नहीं मिल पाता है। इस धारणा को बदलना और अपनी प्रचीन परंपरा, धरोहर, ज्ञान विज्ञान के प्रति आस्था विश्वास को बनाए रखने के लिए जागरण करना आवश्यक है।
यह तो उच्च या प्रशिक्षित वर्ग की बात है जबकि सामान्य और ग्रामीण क्षेत्रों के लोग कहते हैं कि हम कोई भी काम कर लेंगे लेकिन गाय या गोबर के लिए कोई काम नहीं करेंगे। श्रमिक वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक सभी के मन में इस तरह के काम को लेकर दुर्भावना है और इसे लोग छोटा काम समझते हैं लेकिन अब इसमें भी धीरे-धीरे बदलाव नजर आ रहा है कुछ आईआईटी के बच्चे भी गो पालन का काम कर रहे हैं और उससे अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। इसके साथ ही कुछ लोग विदेश से आकर, नौकरी से रिटायर होकर भी गो पालन का काम कर रहे हैं।
हमारे समाज में गाय को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अधिक देखा जाता है। समाज में यह विचार लाने के लिए क्या करना होगा कि गाय आर्थिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है?
यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है, क्योंकि हमारे समाज में लोग सभी चीजों को सिर्फ धार्मिक नजरों से ही देखते हैं; जैसे तमाम महिलाओं को मैंने पूछा कि आप पीपल या तुलसी की पूजा क्यों करते हो, खाने में हल्दी का इस्तेमाल क्यों होता है, तो वह उसका उत्तर नहीं दे पाती हैं, क्योंकि हमारे समाज में उसका वैज्ञानिक अर्थ किसी को नहीं बताया गया। इस प्रकार से ही गाय को भी सिर्फ धार्मिक तौर पर बताया गया जबकि उसके वैज्ञानिक और आर्थिक लाभ भी हैं। आज भी लोग गोपालन के माध्यम से अच्छा रोजगार पा सकते हैं और खुद की आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकते हैं।
हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश चुनाव में गाय भी एक मुद्दा रही, योगी सरकार द्वारा कत्लखानों के बंद किये जाने को लेकर भी बवाल हुआ। आप इस विषय को कैसे देखते हैं?
हम उत्तर प्रदेश की गोशाला के साथ भी काम कर रहे हैं, जिसको आगे लेकर जाना है। इस विषय पर माननीय योगी जी से मेरी मुलाकात भी हुई थी और हमारे संबंध बहुत पहले से हैं। लखनऊ, बाराबंकी सहित कई शहरों में गोवंश का काम तेजी से चल रहा है। हमें उत्तर प्रदेश में इस पर अधिक काम करने की जरूरत है और लोगों को गाय के दूध, गोबर और मूत्र के बारे में जानकारी देना है कि इन सभी से हम लोगों को कितना लाभ है। गोशाला में कृषि विज्ञान से संबंधित कार्य भी किए जाएंगे और लोगों को जागरूक किया जाएगा। सड़क पर भटकने वाले बछड़े को भी एक स्थान पर रखना होगा। सरकार की तरफ से भी सकारात्मक रुझान मिल रहे हैं जिससे हम बिगड़ी हुई परिस्थितियों को ठीक करने का काम करेंगे।
भारतीय समाज के आधार में गाय है लेकिन आर्थिक तंत्र भी गाय बने इस दृष्टि से किस प्रकार के प्रयास करने की जरूरत है?
भारत एक कृषि प्रधान देश है और हमारी की करीब 60 प्रतिशत जनता अभी भी कृषि पर आधारित है। सकल उत्पाद (जीडीपी) में हर बार उद्योगों की गणना की जाती है जबकि गोवंश और खेती का जिक्र नहीं होता है। देश में लगातार बढ़ती रासायनिक खेती की वजह से किसान पर कर्ज भी बढ़ता चला जाता है जबकि सही मायने में रासायनिक खेती की आवश्यकता ही नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार किसान हर साल 10 करोड़ से अधिक के रासायनिक खाद व कीटनाशक खरीदता है और वही अनाज खाने के बाद फिर से दवाओं पर खर्च करता है। राजस्थान के कई गांव अब गोपालन फिर से शुरु कर रहे हैं और उसके गोबर से खेती करते है जिससे उनका रासायनिक खाद का खर्च शून्य हो चुका है।
आप कुछ ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जहां कुछ ऐसे प्रयोग हुए होंगे जो पूरी तरह से गो व्यवस्था पर आधारित होंगे?
गो सेवा परिवार यह बंगाल का है जहां हमारा साल में करीब दो बार जाना होता है। दिसंबर 2015 से दो गांव से यह प्रकल्प शुरु हुआ और आज करीब 1 हजार गांव तक गो सेवा अनुसंधान पहुंच चुका है जबकि अगले 5 सालों में यह पूरे बंगाल में पहुंचाया जायेगा। गोवंश को लेकर किसानों में एक विश्वास पैदा हो चुका है और अब तो वहां की युवा पीढ़ी भी इसमें लग चुकी है और युवा अब शहर से गांव की तरफ फिर से जा रहे हैं। इसमें तमाम तरह से फाउंडेशनों को जोड़ा गया है और कई कंपनियां भी सीएसआर के माध्यम से काम कर रही है। तमाम हिंदू संगठन भी इस पर काम कर रहे हैं और सभी गो सेवा के लिए महत्वपूर्ण योगदान दे रहे है।
गो आधारित कानून बनाने को लेकर भी पिछले कुछ सालों से प्रयोग चल रहे है इन कानूनों में क्या क्या परिवर्तन आवश्यक है और क्या कुछ और नये कानून बनने चाहिए?
गो कानून बनना तो जरूरी है लेकिन वह कानून समाज को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए। हाल ही में पीएम मोदी ने जैविक खेती को बढ़ाने की बात कही जो समाज के लिए बहुत जरूरी है पीएम के उस संदेश से फर्टिलाइजर माफियाओं को बड़ा झटका लगा होगा लेकिन यह एक साहसी कदम है कि गलत को गलत कहा जाए। रासायनिक खाद से होने वाले नुकसान के बारे में सभी को बताना होगा और प्राकृतिक खेती के फायदों से लोगों को अवगत कराना होगा। हमें देश में हमारी चीजों को बढ़ाना है जैसे देशी गाय के दूध में विशेष प्रकार का प्रोटीन पाया जाता है यह बात सभी को बताना होगा। गाय को लेकर अगर कोई कानून बनेगा तो लोगों को इसके प्रति जागरूक भी करना होगा। सरकार के 20-22 डिपार्टमेंट सीधे गो सेवा से जुड़े हुए है जिसमें पर्यावरण, स्वास्थ्य, ग्रामीण स्वास्थ्य, गोवंश केंद्रित व्यवस्था जब होगी तब समाज इन सारी चीजों को स्वीकार करेगा। शासन और समाज को पहले एक साथ लाना होगा और व्यवस्था बनानी होगी फिर कहीं कानून बनाने पर विचार किया जा सकता है वरना लोगों को गोवंश एक सांप्रदायिक विषय प्रतीत होगा।
गोवंश को लेकर किसानों के मन में और अन्य समाज के लोगों के मन में और सजगता लाने के लिए आप क्या प्रयास कर रहे हैं?
किसान तो हमारा आदर्श है तो हमें उसके लिए हमेशा सोचना होगा। हमारे कार्यकर्ताओं को यह वचन देना होगा कि किसान की दशा जहां से बिगड़ी है वहां से दुरुस्त करनी होगी। देवलापार में गोबर के अलग-अलग उपयोग को देखकर किसान चौंक जाते हैं कि गोबर इतने काम का है इसलिए सबसे पहले किसान को इस बारे में जानकारी देना होगा तभी वह गोवंश के बारे में विचार कर पायेगा। किसान को यह विश्वास दिलाना होगा कि ‘यह तुम भी कर सकते हो।’ साथ ही इससे बनने वाली दवाओं के बारे में भी जानकारी दिया जाना चाहिए और उसे सेवन के लिए भी कहना चाहिए।
पंचगव्य चिकित्सा के कुछ सफल प्रयोगों के उदाहरण के बारे में बता सकते हैं?
1999 में जिस वर्ष में मुझे दायित्व मिला, मीरा बहन जिनका इलाज मुंबई के जसलोक अस्पताल में चल रहा था। उनकी हालात खराब होती जा रही थी। डाक्टर ने भी जवाब दे दिया था कि इनकी किडनी खराब है इनका कुछ नहीं हो सकता है इसके बाद उन्हें गोमूत्र अर्क देना शुरु किया गया, जिसके बाद उनकी तबीयत में तेजी से सुधार होने लगा और वह करीब 5 सालों तक जीवित और स्वस्थ रहीं। एक ईसाई महिला थी जिनके कान के नीचे कैंसर था लेकिन गोमूत्र से वह भी जल्दी ठीक हो गयी, उनका कैंसर खत्म हो गया। ऐसे कई उदाहरण और है।
पांजरपोल की व्यवस्था एक बहुत बड़ा उपक्रम है लेकिन सरकारी अनुदान के अलावा इसका विकास कैसे किया जा सकता है?
गोशाला को लेकर ऐसी परंपरा बन गयी है कि वह सिर्फ दान पर ही चल सकती है और दान पर ही चलेगी ऐसी व्यवस्था भी खड़ी हो चुकी है। समाज भी मेहनत करने से बचता है और सभी को स्वावलंबी होने की बात करता है जबकि सभी को सब कुछ मुफ्त में ही चाहिए होता है और उसका उदाहरण चुनाव के दौरान नजर भी आता है। कई गोशाला ट्रस्टी पीढ़ी दर पीढ़ी दान के पैसे से इसे चला रहे हैं हालांकि अब उन लोगों में भी सुधार आया है क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि सिर्फ दान के पैसों से काम नहीं चलने वाला है। गोशाला को एक आर्दश केंद्र बनाना है।
समाज से किस तरह के परिवर्तन की अपेक्षा है?
सकारात्मक सोच के साथ साहसिक और आक्रामक प्रवृत्ति समाज की आवश्यकता है। सृष्टि संतुलन का माध्यम है गो विज्ञान। गोवंश के प्रति समाज जागरुक रहे और अपना दायित्व समझे। जलवायु परिवर्तन से निपटना है तो गोवंश को पुर्नस्थापित करना होगा और उसे उचित सम्मान देना होगा। घर-घर गोपालन के उद्देश्य को पूर्ण करने हेतु प्रत्येक परिवार को आगे आना होगा।