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हिंदु उत्सवों पर हमलों का मूल कारण समझना होगा!

हिंदु उत्सवों पर हमलों का मूल कारण समझना होगा!

by हिंदी विवेक
in विशेष, सामाजिक
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अहिंसा परमो धर्म, धर्म हिंसा तथैव च। महाभारत के शांतिपर्व की यह पंक्ति गांधी जी की सबसे पसंदीदा और उनके अहिंसा दर्शन का मूल है। इस पंक्ति के प्रथम भाग में अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। किंतु यह पूर्ण होती है इसके अगले भाग में। जो स्पष्ट करती है कि धर्म की रक्षा के लिए (यदि आवश्यक हो तो) हिंसा भी परम धर्म है। किंतु कभी कभी हम किसी व्यक्ति के करिश्माई व्यक्तित्व या किसी सिद्धांत से इतने अधिक प्रभावित हो जाते हैं, कि हम उस वाक्य का संदर्भ, परिस्थिति और उसके निहितार्थ समझना भी गंवारा नहीं करते। जो आज हिंदुओं के साथ हो रहा है, उसका एक बड़ा कारण यही लापरवाही है।

भारत में हिंदुओं के धार्मिक जुलूसों पर मुस्लिम हमलों का लंबा इतिहास रहा है। इसके संदर्भ और इसके मूल कारण को स्पष्ट करते हुए डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक “पाकिस्तान या भारत का विभाजन” में लिखा है, “हिंदुओं की कमजोरी से लाभ उठाना मुस्लिमों की भावना है। मुसलमानों के लिए काफ़िर हिंदू सम्मान के योग्य नहीं है। मुसलमानों की भातृ भावना मात्र मुसलमानों के लिए है। कुरान ग़ैर-मुसलमानों को मित्र बनाने का विरोधी है।” इसके अतिरिक्त शरिया और कुरान में स्पष्टतः काफ़िर की संपत्ति नष्ट करना (शरिया: 09.15), संख्याबल (कुरान: 17.6), डराना- धमकाना (03.151), हथियार समेत समूह में निकलने(04.71), घात लगाकर मारने (09.5/29/73/111/123), जैसे उन तमाम बातों के विषय में आदेशित किया गया है, जो आज हमें हिंदुओं के खिलाफ होते आसानी से दिखाई दे रही है।

ऐसा भी नहीं है यह सब पहली बार हो रहा है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक में 1933/1934 के दौर में बढ़े दंगों के कारणों पर प्रकाश डालते हुए जो बात कही है, वह हु- ब- हू आज के कारणों जैसे ही है। चाहे प्रेम के पर्व होली के हुड़दंग में हिंसा हो, बकरीद पर गाय काटना हो, घरों में होने वाली पूजा पाठ और आरती को कारण बता कथित रूप से नमाज में आने वाली बाधा का हो। इसके अतिरिक्त डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक में बताया है, कि 1937 में मुसलमानों ने मस्जिद के सामने बैंड के प्रतिबंध की मांग की। इस तरह की मांगों को देखते हुए आंबेडकर जी ने कहा, मुसलमानों की मानसिकता गलत तरीके से लाभ उठाने की है।

चाहे वह गौ मांस खाना अपने मूल अधिकारों में बताना हो, या मस्जिद के सामने से गाजे- बाजे पर प्रतिबंध की मांग करना। एक इस्लामी मुल्क में तो मस्जिद के सामने से संगीतमय यात्रा निकाली जा सकती है, लेकिन भारत में जहां जीवन बिना संगीत के अधूरा है, इस पर हिंसा या दंगे हो जाते हैं। स्पष्ट है, ऐसा केवल हिंदुओं को प्रताड़ित करने के लिए ही किया जाता है। डॉ आंबेडकर आगे एक अन्य महत्वपूर्ण बात कहते हैं, “मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर तरीके अपनाया जाना। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं, कि गुंडागर्दी उनकी राजनीति का एक स्थाई तरीका हो गया है।”

ऐसा भी नहीं है कि हिंदू समाज ने कभी कोई प्रतिकार नहीं किया हो। 1923 में नागपुर में हुए जबरदस्त दंगों का कारण वही था, मस्जिद के सामने से संगीतमय हिंदू झांकियों का निकाला जाना। यह विवाद 30 अक्टूबर 1923 को उस वक्त अपने चरम पर पंहुचा गया जब कलेक्टर ने हिंदुओं की झांकियों को प्रतिबंधित कर दिया। इसके विरोध में करीब बीस हजार हिंदू सड़कों पर उतर आया था। इस जाग्रत हिंदू शक्ति की प्रशंसा डॉ हेडगेवार व अन्य हिंदू नेताओं ने की। सार्वजनिक जगहों पर भजन गाने की परंपरा का प्रचार जोश के साथ किया गया। “पूरे शहर में जय विट्ठल, जय-जय विट्ठल का मंत्र गूंजने लगा। लोगों के मूड को भांप कर सरकार ने हिंदुओं को नमाज के पांच वक्तों को छोड़कर किसी भी समय मस्जिद के करीब से गुजरते हुए भजन गाने की इजाजत दे दी।”

इसे मुसलमानों ने बजाए सेकुलर भाईचारे की तरह लेने के अपनी हार की तरह लिया। बी वी देशपांडे और एस आर रामास्वामी द्वारा लिखित और एच वी शेषाद्रि द्वारा संपादित डॉ हेडगेवार की जीवनी “युग-निर्माता डॉ हेडगेवार” के अनुसार, इस हार के बाद मुसलमान नाराज हो गए थे” और डॉ हेडगेवार और बी एस मोनजे को धमकियों वाले पत्र मिलने लगे। “लेकिन लोगों की इच्छाशक्ति को बनाए रखने के लिए दोनों नेता शहर के सभी भागों में बेखौफ घूमते थे।” क्योंकि मुसलमानों से हिंदुओं के अंदर भय था इसलिए मस्जिद के सामने आते ही बैंड वाले धीमे बजाने लगते तब डॉक्टर जी स्वयं बाजा थाम लेते और हिंदुओं की मर्दानगी को ललकारते थे।”

हिंदू समाज के जाग्रत और साहसी युवा हर परिस्थितियों से यथाशक्ति पूर्वक निपटने की योग्यता और साहस रखते हैं। फिर चाहे वह मुग़ल काल रहा हो, ब्रिटिश काल या फिर आधुनिक काल। समस्या सिर्फ वहां पनपती है, जहां ऐसे साहसी युवाओं को सही नेतृत्व और समाज का साथ नहीं मिलता। उदाहरण स्वरूप हम देख सकते हैं, इस वर्ष भी हिन्दू नववर्ष, रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव के हिंदू जुलूस पर हमला वहीं हुआ जहां मुस्लिमों को यह विश्वास था कि उनके इस योजनाबद्ध हमले के बाद न समाज की ओर से, न सरकार की ओर से कोई कठोर प्रतिक्रिया होगी। जैसे, करौली, लोहरदगा, बोकारो, खरगौन, खंभात, हिम्मतनगर, मुंबई, बांकुड़ा, कोलार, दिल्ली आदि कथित सेकुलर सरकारों वाले राज्य के लोग जिहादियों के निशाने पर रहे।

याद कीजिए क्या ऐसे ही हमले उत्तर प्रदेश में पूर्ववर्ती सरकारों के दौरान कृष्ण जन्माष्टमी, होली, कांवड़ यात्रा जैसे हिंदू त्योहारों, उत्सवों पर प्रतिवर्ष नहीं होते थे? क्या हमने कभी सोचा है ऐसा लगातार क्यों होता रहा है? और क्यों उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में योगी आदित्यनाथ जी के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान ऐसी कोई घटना नहीं हुई? स्पष्ट है शासन का भय। इसीलिए राम चरित मानस में कहा भी गया है, “भय बिनु होय न प्रीत”। लेकिन हर काम सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र में लोक के जाग्रत निवासियों को आगे आ कर पहल करनी ही होगी, जैसे डॉ हेडगेवार और मोनजे ने की थी।

देशपांडे और रामास्वामी ने 4 सितंबर 1927 को “हजारों मुसलमानों” के जुलूस का वर्णन करते हुए लिखा, “जुलूस निकालने वाले लाठियों, तलवारों और दूसरे घातक हथियारों से पूरी तरह लैस थे।” “अल्लाह हो अकबर,” “दीन दीन” जैसे नारे हवा में गूंज रहे थे। “मुसलमानों का जंग की मुद्रा ने हिंदुओं के दिलों में डर व्याप्त कर दिया था। लेकिन एक- सौ के आसपास संघ के योद्धा स्वयंसेवक हिंदू समाज की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित थे।” “एक वक्त ऐसा आया” वे लिखते हैं, “मुस्लिम गुंडों ने हिंदुओं को गालियां देना और उन पर हमला करना शुरू कर दिया। हालांकि यह एक भयानक झटका था, लेकिन सतर्क स्वयंसेवकों ने तुरंत हमलों का प्रतिकार किया।

समूहों के बीच यह मुठभेड़ तीन दिनों तक जारी रही और अंत में हिंदुओं की जीत हुई। सैकड़ों मुस्लिम गुंडों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और 10-15 की मौत हो गई। 4-5 हिंदू भी मारे गए जिनमें से एक स्वयंसेवक का नाम धुंधिराजा लेहगांवकर था। लेखक लिखते हैं, “उस दिन के बाद इतिहास ने एक नया मोड़ ले लिया। हिंदुओं के पीछे हटने का वक्त गुजर चुका था।” अब पुनः वह समय आ गया है जब तमाम हिंदू धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक संगठन और हिंदू समाज इस पर चिंतन मनन कर करे कि कैसे हिंदू जुलूसों पर होने वाले हमलों को रोका जाए। चिंतन करते समय यह ध्यान अवश्य रखा जाए, कि यदि लोकतंत्र में हर काम सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, तो सरकार पर जनमत का सम्मान करने का दबाव तो बनाया ही जा सकता है।

– युवराज पल्लव

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