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प्रवासप्रिय यादवराव कालकर

प्रवासप्रिय यादवराव कालकर

by हिंदी विवेक
in विशेष, व्यक्तित्व, संघ
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श्री यादवराव कालकर का जन्म 10 मई, 1916 को देऊलघाट (महाराष्ट्र) में श्री जानकीराम एवं श्रीमती सरस्वती बाई के घर में हुआ था। बुलढाणा में उनकी खेती थी। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बुलढाणा तथा हाई स्कूल अमरावती से किया। अमरावती में ही उनकी भेंट डॉ. हेडगेवार से हुई। 

1937 में कामठी से मैट्रिक तथा फिर स्टेनोटाइपिंग की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्हें होशंगाबाद में सरकारी नौकरी मिल गयी। नौकरी करते हुए भी उनके मन में संघ कार्य की लगन लगी रहती थी। 1942 में नौकरी छोड़कर वे प्रचारक बन गये। इस निर्णय से पिताजी तथा बड़े भाई बहुत नाराज हुए; पर वे अपने निश्चय पर डटे रहे। क्रमशः वे तहसील, जिला, विभाग और फिर महाकौशल के प्रांत प्रचारक बने।

संघ के प्रारम्भिक प्रचारकों को बड़ा कष्टदायक प्रवास करना पड़ता था। प्रायः उनके पास साइकिल भी नहीं होती थी। पैसे के अभाव में बस से भी नहीं जा सकते थे। ऐसे में यादवराव कई बार शाखा लगाने के लिए 35-40 कि.मी. तक पैदल चले जाते थे। नदी-नाले या कीचड़ भरे रास्तों की चिन्ता न करते हुए वे निश्चित समय पर निर्धारित स्थान पर पहुंच जाते थे। 

1948 के प्रतिबंध काल में यादवराव भी कारावास में गये। जेल में वे स्वयंसेवकों के भोजन से लेकर उनके मान-सम्मान तक की चिन्ता करते थे। सत्याग्रही स्वयंसेवकों को पुलिस वाले प्रायः भूखा-प्यासा रखते थे। जेल में उनके पहुंचने का समय भी निश्चित नहीं था; पर जब वे जेल में पहुंचते थे, तो यादवराव उनके लिए कुछ खाने-पीने का प्रबन्ध कर ही देते थे। जेल अधिकारी प्रायः स्वयंसेवकों से दुव्र्यवहार भी कर बैठते थे। ऐसे में यादवराव डटकर इसका विरोध करते थे और जेल अधिकारी को क्षमा मांगनी पड़ती थी।

प्रतिबंध काल में और उसके बाद संघ कार्य में बहुत कठिन दौर आया। कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का मत था संघ को खुलकर राजनीति में भाग लेना चाहिए। कुछ का विचार था कि कांग्रेस से इतनी दूरी बनाकर रखना ठीक नहीं है। कई प्रचारक भी घर वापस चले गये; पर यादवराव विचलित नहीं हुए। वे कहते थे कि मैं तो सरकारी नौकरी छोड़कर प्रचारक बना हूं। जब तक लक्ष्य पूरा नहीं होता, तब तक मैं केवल और केवल यही कार्य करूंगा।

प्रतिबंध समाप्ति के बाद 1954 तक वे बिलासपुर जिला तथा 1967 तक विभाग प्रचारक रहे। बिलासपुर वनवासी बहुल क्षेत्र है। यादवराव नगर के सम्पन्न तथा निर्धन वनवासी के घर में समान भाव से भोजन करते थे। कई बार यह स्थिति होती थी कि ऊपर से मुर्गे उड़ रहे हैं, सामने से सुअर के बच्चे निकल रहे हैं; पर इसके बीच वे स्थितप्रज्ञ भाव से भोजन करते रहते थे।

1967 में उन्हें जबलपुर विभाग में भेजा गया। 1975 में आपातकाल तथा संघ पर दुबारा प्रतिबंध लग गया। हजारों कार्यकर्ता बन्दी बना लिये गये। हजारों लोगों ने सत्याग्रह किया। ऐसे में उनके परिवारों की देखरेख की जिम्मेदारी यादवराव को दी गयी। एक ओर उन्हें धनसंग्रह करना था, तो दूसरी ओर स्वयं को छिपाकर भी रखना था। वे दोनों कसौटियों पर खरे उतरे।

आपातकाल के बाद वे महाकोशल के प्रांत प्रचारक बने। उन्होंने प्रांत में सघन प्रवास कर शाखाओं का जाल बिछा दिया। विविध क्षेत्रों के काम में भी आशातीत वृद्धि हुई। लगातार प्रवास का उनके शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। छह फरवरी, 1985 को उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ। बेहोशी में भी वे चिल्ला रहे थे कि मुझे प्रवास पर जाना है। वहां सब मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। प्रवास की इस आकुलता के बीच अगले दिन ब्रह्ममुहूर्त में उनका देहांत हो गया। 

–  विजय कुमार 

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