राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य विस्तार में प्रचारकों का बड़ा योगदान है। साथ ही उस कार्य को टिकाने तथा समाज के विविध क्षेत्रों में पहुंचाने में वानप्रस्थी कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी भूमिका है। 11 मई, 1929 को नरवाना (हरियाणा) में संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता बाबू दिलीप चंद्र गुप्त के घर जन्मे श्री जितेन्द्रवीर गुप्त वानप्रस्थी कार्यकर्ताओं की मालिका के एक सुगंधित पुष्प थे।
श्री जितेन्द्र जी को संघ के संस्कार घुट्टी में प्राप्त हुए थे। 1947 में बी.ए. कर वे प्रचारक होकर राजस्थान चले गये। प्रथम प्रतिबंध के समय वे बीकानेर जेल में रहे। इसके बाद दिल्ली वि.वि. से कानून की उपाधि लेकर वे पटियाला में वकालत करने लगे। 1963 में वे पंजाब प्रांत कार्यवाह बने। संघ के हिसाब से तत्कालीन पंजाब में वर्तमान पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल तथा जम्मू-कश्मीर आता था। 1974 में वे पंजाब वि.वि. के विधि विभाग में अंशकालीन प्राध्यापक बने। आपातकाल में उन्होंने 16 मास जेल में बिताये।
1979 में वे पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में न्यायाधीश तथा 1990 में मुख्य न्यायाधीश बनाये गये। उनके कार्य के सब प्रशंसक थे; पर जब उनकी अवहेलना कर एक कनिष्ठ न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय में भेजा गया, तो उनके स्वाभिमान पर चोट लगी और उन्होंने त्यागपत्र देकर पूरा समय संघ को समर्पित कर दिया।
उनके पिता बाबू दिलीप चंद जी अखंड भारत में पंजाब के प्रांत संघचालक थे। उन्होंने श्री गुरुजी की उपस्थिति में वानप्रस्थ दीक्षा ली थी। जितेन्द्र जी ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया और रज्जू भैया के सान्निध्य में वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार कर लिया।
इसके बाद वे अपना अधिकांश समय प्रवास में लगाने लगे। उन्हें उत्तर क्षेत्र संघचालक के साथ ही संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। वे देश भर में प्रौढ़ स्वयंसेवकों से मिलकर उन्हें वर्तमान परिस्थिति में वानप्रस्थ का महत्व समझाते थे।
वे कहते थे कि इसका अर्थ वन में जाना नहीं, अपितु घर पर रहकर पूरा समय समाज कार्य में लगाना है। इस दौरान धन कमाने का विचार त्यागकर अपने स्वास्थ्य व पारिवारिक माहौल के अनुसार जिम्मेदारी लेकर काम करना चाहिए। इससे अपना स्वास्थ्य ठीक रहेगा। हमारे अनुभव से समाज को लाभ मिलेगा तथा घर में भी शांति रहेगी।
उनके प्रयास से देश भर में वानप्रस्थी कार्यकर्ताओं की मालिका तैयार होने लगी। ये कार्यकर्ता बहुत भागदौड़ तो नहीं कर पाते थे; पर सेवा कार्यों की वृद्धि तथा स्थायित्व में इनका बहुत उपयोग हुआ। जितेन्द्र जी ने ‘भारत विकास परिषद’ तथा ‘अधिवक्ता परिषद’ की स्थापना में योगदान दिया तथा इनके माध्यम से समाज के सम्पन्न व प्रबुद्ध वर्ग को हिन्दू विचार से जोड़ा।
संघ के साथ ही वे अणुव्रत आंदोलन, रामकृष्ण मिशन, सेवा इंटरनेशनल आदि अनेक सामाजिक संगठनों से भी जुड़े थे। जब कभी उनका स्वास्थ्य खराब होता, तो वे हंस कर कहते थे कि सभी यात्राओं की तरह व्यक्ति को अनंत की यात्रा के लिए भी तैयार रहना चाहिए। जब बुलावा आये, चल दें।
मई 2004 में वे अपने जीवन के 75 तथा उनके पिताजी 100 वर्ष पूर्ण करने वाले थे। जितेन्द्र जी इस अवसर पर संन्यास दीक्षा लेने का मन बना रहे थे; पर विधि का विधान कुछ और ही था। 24 अक्तूबर, 2003 की रात को बारह बजे अचानक उन्होंने कुछ बेचैनी अनुभव की। उनके पारिवारिक चिकित्सक को बुलाया गया। उसकी दवाओं से लाभ न होता देख घर वाले उन्हें पी.जी.आई. ले जाने लगे; पर तभी वे गिर पड़े और उनका शरीर शांत हो गया।
अगले दिन दीपावली थी। सरसंघचालक मा. सुदर्शन जी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि दीपावली के दिन ही एक प्रखर दीपक बुझ गया।