जातिवादिता के नाग ने इनके संघर्षों को भी डस लिया।
मीडिया ने द्रौपदी मुर्मू की सिर्फ एक खूबी को प्रसारित किया कि वह आदिवासी यानी वनवासी है।लेकिन उनके जुझारूपन और उनके संघर्ष को किसी ने नहीं प्रचारित किया।
पति और दो बेटों के निधन के बाद पढ़ाई करना।वह भी अपने बच्चों के उम्र के साथ के लोगों के बीच में बैठकर परीक्षाएं पास करते-करते ग्रेजुएट होना।सरकारी नौकरी प्राप्त करना।दो बेटों और पति का निधन के बाद खुद और बेटियों तथा परिवार को संभालना।उसके बाद छोटी नौकरी से शुरुआत करते हुए परीक्षा देते देते क्लास टू की पोस्ट तक जाना।फिर राजनीति में आना विधायक बनना। उड़ीसा में मंत्री बनना फिर केंद्र में मंत्री बनना,राज्यपाल बनना।
मुझे हर वह व्यक्ति चाहे वह मेरी विचारधारा का हो या ना हो जो भी जीवन में संघर्ष करके आगे बढ़ा है वह मेरे लिए एक आदर्श है।वैसे भी इस भारत के वनवासियों को ईसाई नेटवर्क और मिशनरियों के धर्मांतरण मकड़जाल से बचाने के लिए कट्टर हिंदू वनवासी का सामने आना जरूरी था।विशेषकर पढ़ी लिखी,संस्कारी,जुझारू और समझ रखने वाली स्त्री-शक्ति का मुख्य पद पर आना आवश्यक था।