युद्ध, और फिर आर्थिक मंदी में आशा की किरण “भारत”

कोरोना महामारी के कारण प्रभावित वैश्विक माँग–आपूर्ति श्रृंखला अभी पटरी पर लौट ही रही थी कि रुस-यूक्रेन युद्ध ने अनिश्चितताओं को एक बार फिर बढ़ा दिया है। ज्ञातव्य है कि वैश्वीकरण के दौर में प्रत्यक्ष युद्ध दो देश ही लड़ते है लेकिन उसका आर्थिक प्रभाव वैश्विक होता है। अमेरिका सहित नाटो देशों द्वारा रुस पर आर्थिक प्रतिबन्धो की छड़ी लगा दी। इसके बाद अमेरिकी मल्टीनेशनल्स ने रुस के उपभोक्ताओं की चिन्ता किये बगैर अमेरिकी सराकारी कम्पनियों जैसा व्यवहार किया और रुस से अपने व्यापार को समेट लिया। परिणामस्वरुप युक्रेन-रुस युद्ध वैश्विक आर्थिक प्रतिस्पर्धा में बदल गया है।
बिखर चुकी वैश्विक आपूर्ति श्रृखंला के कारण वैश्विक मँहगाई अपने विध्वसंक रुप में सामने आरही है। कई परम्परागत उपाय भी इस मँहगाई को थामने में विफल साबित हो रहे। जून में अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए प्वाइन्ट 75 प्रतिशत व्याज दरों में वृद्धि कर दी। फिर भी दो दिन पूर्व जारी में आकड़ो से पता चला है कि अमेरिका में मंहगाई 41 वर्षो के बाद अपने सर्वोच्च स्तर 9.1 प्रतिशत पर पहुंच गई है।
इस सब घटनाक्रमों के बीच आशा की किरण के रुप में भारत उभर रहा है, बात चाहे युद्ध के बीच मध्यस्थता की भूमिका हो या आसमान छू रही कोमोडिटी की कीमतों के बीच यूनाइटेड नेशन्स के खाद्यान आपूर्ति मिशन… .. .

विश्व का सबसे युवा आबादी वाला देश होने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में आन्तरिक माँग बनी रहेगी। राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में मेरे विचार…

 

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