महिला अधिकार भारत से पीछे है अमेरिका

विश्व के किसी भी देश में मानवाधिकार उल्लंघन की छोटी सी घटना होते ही अमेरिका उस देश मात्र को मानवाधिकार नियमों की घुट्टी पिलाने लगता है जबकि अपने यहां महिलाओं और अश्वेतों के विरुद्ध हो रहे अत्याचारों और उनके अधिकारों के प्रति आंख मूंद लेता है। वहां पर महिलाओं की दशा को बताने के लिए इतना ही काफी है कि कोई भी महिला अभी तक राष्ट्रपति के पद तक नहीं पहुंच पाई है।

अमेरिका का जिक्र आते ही मस्तिष्क में जो ख्याल आते हैं, वो वास्तविकता नहीं बल्कि वहां के मीडिया की देन है। अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है, लोकतंत्र को अपनाने में सर्वोपरि रहा है। मानवाधिकारों का भी झंडाबरदार रहा। मानवीय मूल्यों की बात करता है। ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो जुमले के तौर पर अमेरिका के लिए गढ़े गए हैं, मानो अमेरिका जैसा दुनिया में कोई दूसरा देश नहीं है। अमेरिका वैसे दिखावे का कोई मौका भी नहीं छोड़ता। किसी देश में मानवीय हितों की अवहेलना हुई नहीं कि वो ऐसे रुख़ अख्तियार करता है, जैसे उससे बड़ा मानव हितों के संरक्षण वाला कोई और देश नहीं है। लेकिन, वहां गर्भपात कानून को लेकर जो कुछ हुआ उससे उसकी सोच की कलई खुल गई। आज उसका सत्य सबके सामने है। लोकतंत्र में समान अधिकार की बात होती है। स्त्री-पुरुष में भेद का कोई स्थान नहीं होता। लेकिन, यह अमेरिका की कड़वी सच्चाई है कि वहां सदियों से पक्षपात होता आया है। वहां स्त्री-पुरुषों में खुला विभेद किया जाता है।

वहां इस सदी में भी महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। मां बनने या नहीं बनने का अधिकार तक उससे छीना जा रहा है। अमेरिका में महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होना आज की बात नहीं है, ये सब सदियों से ऐसा होता आया है। जरा सोचिए कि बच्चा पैदा करने या न करने का अधिकार भी यदि महिलाओं से छीना जा रहा है, तो फिर महिला का अस्तित्व कहां रह जाता है! अमेरिका से इतर भारत की बात करें, तो हमारे देश में महिलाओं को भगवान का दर्जा दिया जाता है, जो दुनिया के किसी और देश में सम्भव नहीं!

यह भारतीय दर्शन ही है कि जहां महिला सम्मान सबसे अहम है। जबकि, दुनिया के किसी अन्य देश में महिलाओं को इस तरह सम्मान नहीं दिया गया। अमेरिका जैसे देश में तो महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ा है। लेकिन, यह दुर्भाग्य है कि अमेरिका मानवीय हितों के संरक्षण का झंडाबरदार बना हुआ है और भारत की गिनती लैंगिक असमानता वाले देशों में होती है।

अब बात गर्भपात को लेकर ही करें, तो अगर अनियोजित मातृत्त्व सुख की बात आती है, तो इसका सीधा असर महिलाओं के प्रोफेशनल कैरियर पर पड़ता है। विश्व बैंक के आंकड़ों पर ही नजर डालें तो 70 के दशक में जब महिलाओं को गर्भपात का कानूनी संरक्षण दिया गया था, उस समय कार्यक्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी 56.7 फीसदी थी। वहीं 2021 में यही आंकड़ा 83 फीसदी था। गर्भपात को कानूनन अधिकार मिलने से श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। पर, सवाल यह है कि जिस अमेरिका में महिलाओं से ही उनके अधिकार छीने जा रहे हों, उससे भला कोई देश क्या शिक्षा लेगा! हाल ही में अमेरिका में गर्भपात को लेकर एक रिपोर्ट आई, जिसमें गर्भपात के मामले में काफी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। हर 5 में से 1 अमेरिकन महिला ने गर्भपात कराया है। गुट्टमाकर इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार 2020 में अमेरिका में 9,30,000 से अधिक गर्भपात के मामले सामने आए। वहीं, भारत में गर्भपात कानून की बात करें, तो यहां अमेरिका से कहीं बेहतर कानून है। भारत में एक शर्त के साथ गर्भपात कराने की अनुमति है। भारत में गर्भपात से जुड़ा मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी कानून 1971 में बनाया गया था। 2021 में इसमें संशोधन किया गया। इस अधिनियम के तहत विशेष परिस्थितियों में महिलाओं को गर्भपात की समय सीमा को 20 सप्ताह से बढाकर 24 सप्ताह तक कर दिया गया है। बलात्कार पीड़िता, कैंटबिक व्यभिचार (अपने करीबी रिश्तेदार द्वारा बलात्कार) की शिकार महिलाएं 24 हफ्ते तक का गर्भपात करा सकती हैं। इसके अलावा जो महिलाएं विधवा हो गई हैं या फिर तलाक ले रही हैं, ऐसी महिलाओं की भी गर्भपात कराने की समय सीमा में छूट दी गई। जबकि, मानसिक या शारीरिक विकृति, विकलांगता का शिकार होने की स्थिति में भी महिला अपना गर्भपात करा सकती है। जबकि, अमेरिका जैसे देश में मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रखकर गर्भपात के अधिकार छीन लिए गए। अमेरिका को भारत से गर्भपात कानून के बारे में सीख लेना चाहिए, ताकि महिलाओं को उनके अधिकार मिल सकें।

भारत जैसे पुरुष प्रधान देश में एक महिला प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति की कुर्सी पर आसीन हुई, जबकि अमेरिका जैसे विकसित देश में अब तक महिला को प्रतिनिधित्व करने का मौका तक नहीं दिया गया।  अमेरिका को 1776 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं मिली। जबकि, साल 2021 में पहली बार कमला हैरिस को उप राष्ट्रपति पद से नवाजा गया, जो अपने आप में हैरान करने वाली बात है। अमेरिका में महिलाओं को वोटिंग का अधिकार भी साल 1920 में दिया गया, जबकि अमेरिका का लोकतंत्र दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र में शुमार है।

स्त्री-पुरुष के बीच विभेद से बाहर निकलकर देखें तो भी अमेरिका में मानवाधिकारों का सतत् उल्लंघन होते आया है, लेकिन फिर भी वह सदैव अपनी तरफ देखने की बजाय इन मुद्दों पर दूसरे देशों पर उंगली पहले उठाता है। अमेरिका में नस्लवाद का घिनौना इतिहास रहा है और आज भी यह जारी है। सदियों से अश्वेतों पर जुल्म होता आया है और साल 2020 में अमेरिका में हुई अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत को कौन भूल सकता है। वैसे अमेरिका में यह कोई पहली घटना नहीं थी। ऐसे में अपने को साधन सम्पन्न और हाईटेक मानने वाले अमेरिकियों की हकीकत का एक कड़वा सच ये भी है कि वहां पर वर्षों से अश्वेतों के साथ अन्याय हो रहा है। अश्वेतों के खिलाफ होने वाले जुल्मों का इतिहास वहां पर काफी पुराना है। माना जा रहा था कि बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद इस तरह की घटनाएं आगे नहीं होंगी, लेकिन ये न पहले रुकीं न अब तक रुक पाई हैं। ऐसे में अमेरिका के बारे में जो भी मनगढ़ंत कहानियां गढ़ी जाएं, लेकिन यह स्पष्ट है कि अमेरिका में महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं और मानवाधिकार के संरक्षण में अमेरिका के दावे खोखले हैं। जबकि, बात अगर भारत की करें तो भारत में महिलाओं को साल 1947 में ब्रिटिश उपनिवेश से आजादी के बाद संविधान निर्माण के समय से ही वोटिंग का समान अधिकार दिया गया।

अमेरिका और भारत में महिलाओं की स्थिति को लेकर बात कर रहें हैं। ऐसे में यहां इस बात का जिक्र करना भी बेहद जरूरी हो जाता है कि भारत जैसे देश में जहां हिंदुओ की सर्वाधिक आबादी है। यहां किसी भी इंसान की जान लेने का अधिकार किसी को नहीं दिया गया है। जब कानून बनते हैं तो उनमें केवल धर्म ही नहीं बल्कि समाज के मौजूदा ताने-बाने को भी देखा जाता है। यही वजह है कि भारत के कानून विश्व के सबसे प्रगतिवादी कानूनों में शामिल हैं। खासकर गर्भपात कानून भारत में महिलाओं के पक्ष में है।

कुल-मिलाकर देखें तो अमेरिका मानवाधिकार की कितनी ही ढोल क्यों न बजा ले, लेकिन लैंगिक समानता के मामले में उसकी सोच भारत से काफी पीछे है। अमेरिका के वाशिंगटन विश्वविद्यालय के महिला केंद्र की निदेशक डॉ. सुतापा बासु भी कहती हैं कि, अमेरिका दूसरे देशों की तरफ तो उंगली उठाता है, लेकिन महिला अधिकारों से जुड़े कानूनों के मामले में वो कई देशों से पीछे है। उनके मुताबिक भारत में महिला अधिकारों को लेकर कई ऐसे प्रगतिशील कानून हैं जो अमेरिका में भी नहीं हैं।

-सोनम लववंशी 

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