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स्वभाषा और हिंदी भारी न हो कोई पलड़ा

स्वभाषा और हिंदी भारी न हो कोई पलड़ा

by अमोल पेडणेकर
in देश-विदेश, युवा, विशेष, शिक्षा, सामाजिक, सितंबर- २०२२
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स्व भाषा प्रेम के नाम पर अन्य भाषाओं के प्रति दुराग्रह पालने की प्रवृत्ति के कारण भारतीय भाषाओं और उनके लालित्य का ह्रास हो रहा है। सरकारी और सामाजिक स्तर पर भारतीय भाषाओं के विकास और संवर्धन के सार्थक प्रयास भी नहीं हो रहे हैं जबकि आवश्यक है कि बड़े पैमाने पर विज्ञान, तकनीक जैसे विषयों पर गम्भीर लेखन हो ताकि स्वभाषा का विकास हो सके।

किसी भी ‘भाषा दिवस’ के महत्त्व को स्पष्ट करते समय एक बात तीव्रता से महसूस होती है। दिनभर भाषा अभिमान, भाषा का आवेश, अभिनिवेश, भाषण, कविता आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम करने के बाद एक दूसरे को अंग्रेजी भाषा में ‘थैंक यू’ कहकर ज्यादातर लोग स्व भाषा दिवस मनाते हैं। अधिकतर लोगों का स्व भाषा के प्रति अभिमान प्रकट करने का वर्ष भर का कोटा, उसी समय पूरा हो जाता है। फिर वर्षभर ये लोग मार्केट केंद्रित भाषा में मन मुताबिक, सहज और आत्मविश्वास से विचरते नजर आते हैं। गृहमंत्री अमित शाह ने हिंदी भाषा को लेकर जो सलाहनुमा वक्तव्य दिया था उसमें राष्ट्रीय एकसूत्रता का भाव अंतर्निहित था। दक्षिण के राज्यों सहित पूर्वोत्तर भारत के राज्यों ने भी अमित शाह के इस वक्तव्य का तीव्र विरोध किया। स्वभाषा का अभिमान दिखाते हुए केंद्र सरकार को आगाह कर दिया गया कि उसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। ये सभी लोग, राज्यों की राजनीति से सम्बंधित, साहित्य एवं विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान लोग भी थे। ध्रुवीकरण की राजनीति करके राजनीतिक पार्टी के द्वारा मतों की गिनती बढ़ाना एक बार माफ किया जा सकता है लेकिन जब विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान, साहित्यकार इस ध्रुवीकरण में सहभागी होते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि राष्ट्रहित का क्या होगा? विविधता का क्या होगा? भाषा वैविध्य का क्या होगा? भाषा संवर्धन का क्या होगा? हमारे देश की ऐसी मानसिकता बन गई है कि भाषा की राजनीति हमेशा लोकप्रिय साबित होती है। हालांकि ऐसा करने के पहले भाषा की परिभाषा स्पष्ट होनी चाहिए। क्या केवल मातृभाषा में हस्ताक्षर करने वाले, अपने बच्चों को मातृभाषा के माध्यम वाले स्कूल में पढ़ाने एवं अन्य भाषाओं के प्रति द्वेष रखने वाले को स्वभाषा प्रेमी कहा जाना चाहिए? देश के सभी राज्यों के, सभी भाषा भाषियों में इस तरह की अल्पसंख्यक मानसिकता थोड़ी-बहुत मात्रा में दिखाई देने लगी है। क्या वास्तव में हम भाषाई अल्पसंख्यक हो गए हैं? क्या हमारे भीतर की यह भावना असुरक्षितता से घिरकर व्यक्त होने लगी है? ऐसा महसूस हो रहा है कि असुरक्षितता की यह भावना सभी स्तरों पर अपने पैर जमाने लगी है।

जहां किसी ने ‘जय महाराष्ट्र’ का नारा लगाया तो प्रत्युत्तर में ‘जय उत्तर प्रदेश’,‘जय बिहार’ जैसी गर्जना सुनाई देती है। इससे लोगों के अहम को ठेस पहुंचती है। आजकल देश के सभी भाषा-भाषी लोगों में, अपनी भाषा की संस्कृति से सम्बंधित अहम को ठेस लगनेे के किस्से बार-बार सुनाई देते हैं। ऐसे में अपनी भाषायी संस्कृति का वर्चस्व कायम रखने के लिए कुछ ठोस कार्य करने की भावना सार्वजनिक रूप से उमड़ती हुई महसूस की जा सकती है।

हमारे देश में भाषायी विविधता को सम्मिलित कर, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन चलाने की परम्परा थी। यही कारण है कि लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी एवं स्वामी विवेकानंद जैसे नेता सम्पूर्ण भारत के नेता कहलाते थे। स्वतंत्रता संग्राम एवं उसके पश्चात संयुक्त महाराष्ट्र के लिए किए गए आंदोलन के बाद ,आज तक भाषायी मुद्दे की व्यापक एवं सकारात्मक राजनीति नहीं की गई। आजकल शहरीकरण के एक अपरिहार्य परिणाम के रूप में, सभी भाषाएं पिछड़ रही हैं। राजनीतिक स्तर पर इस समस्या को हल करने का प्रयास किया गया है जो कि पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है। इसके अतिरिक्त देश के विभिन्न राज्यों में राजनीतिक पार्टियां, स्थानीय भाषायी अस्मिता एवं भाषा के प्रश्न को अपने ही तरीके से सुलझाने का प्रयास कर रही हैं। इसके लिए उन्होंने स्थानीय लोगों के अहम को संतुष्ट करने की राजनीति अपनाई है। ये राजनीतिक पार्टियां, स्थानीय भाषायी एवं सांस्कृतिक मुद्दे के बल पर अपनी पार्टी को सशक्त बनाने वाली राजनीति अपना कर आगे बढ़ने की पुरजोर कोशिशें कर रही हैं।

मूलत: हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि भाषा, संस्कृति का एक घटक है; संस्कृति भाषा का घटक नहीं है। संस्कृति की व्याप्ति भाषा की व्याप्ति से बहुत बड़ी है। हालांकि जब-जब यह बात भुला दी जाती है, तब-तब भाषा के अभिमान की समस्या उत्पन्न हो जाती है। बोडो आंदोलन, मूलतः बोडी भाषा के अस्तित्व के लिए प्रारम्भ किया गया एक आंदोलन था। हालांकि भाषा एवं संस्कृति का अनुपात समझ न आने के कारण, यह आंदोलन आगे जाकर अपने लक्ष्य से भटक गया। असम गण परिषद भी मूलत: सांस्कृतिक आंदोलन द्वारा ही सबल हुई; महाराष्ट्र की तरह ही परप्रांतियों के प्रति वहां भी रोष था ही। यद्यपि शुरुआत में असुरक्षा की भावना भले ही अस्मिता के मुद्दे को पोषण दे, तथापि व्यावहारिक मुद्दों के चलते अस्मिता की समस्या पिछड़ ही जाती है। फिर होता यह है कि अस्मिता का मुद्दा फिर किसी राजनीतिक, सामाजिक वातावरण को बरगलाने हेतु भविष्य के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है।

भाषा से लचीलेपन की अपेक्षा की जाती है। भाषा का रूप विभिन्न परिस्थितियों में बदलता रहता है और उसे बदलना भी चाहिए। हालांकि भाषा के आधार पर समाज का ऐसा वर्गीकरण करना कि हिंदी बोलने वाला व्यक्ति उच्च एवं उच्च स्तर की शुद्ध हिंदी बोलने वाला व्यक्ति उससे भी अधिक उच्च होता है, उतना ही गलत है। विज्ञान की कितनी पुस्तके हैं जो हिंदी अथवा अन्य स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध हैं? क्या सामाजिक शास्त्र स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध है? कितने विचारक स्व भाषा में विचार करते हैं? तो फिर हम आखिर किस भाषा की अस्मिता के पीछे पड़े हैं? क्या भाषायी अस्मिता का प्रत्यक्ष अस्तित्व न होकर, केवल एक काल्पनिक मुद्दा है? क्या हम केवल अपनी ही भाषा के झूठे अहम का पोषण करने में रुचि ले रहे हैं? क्या शहरीकरण और तकनीकी के माहौल में भाषा की संस्कृति एवं भाषा की परिभाषा, नए तरीके से लिखने की आवश्यकता नहीं है? बहुत से लोग ऐसे हैं जो भले ही भाषायी अस्मिता की दांवपेच भरी राजनीति न करें लेकिन समाज नीति तो करते ही हैं। ऐसे लोग बैंकों, रेल विभाग के साथ ही कॉर्पोरेट क्षेत्रों में भी स्थानीय भाषा के उपयोग के लिए उठापटक करते रहते हैं। ये दुकानों एवं प्रतिष्ठानों के बोर्ड, स्थानीय भाषा में लिखे जाने को प्रोत्साहित तो करते हैं लेकिन इसका अमलीकरण नहीं किया जाता।

शहरों में, दूसरे राज्यों के लोगों से तुलना कर लोक सांख्यिकी को दिग्भ्रमित किया जाता है। प्रत्येक शहर एवं राज्य में धीरे-धीरे दूसरे राज्यों की जनसंख्या चिंता का कारण बनती चली गई। फलस्वरूप महाराष्ट्र रेलवे भर्ती प्रक्रिया की समस्या के साथ ही विभिन्न आंदोलनों में उत्तर भारतीय एवं बिहारी लोगों को लक्ष्य बनाया गया। अन्य राज्यों में स्थानीय लोगों को बाहरी-भीतरी, लुंगी वाले, होटलवाले जैसी समस्याओं से दो-चार होना पड़ा।

स्व भाषा के विषयों से देश में सर्वत्र ही लोग इतने असुरक्षित महसूस कर रहे हैं कि वे अपनी भाषा के संवर्धन के मूल मुद्दों की बजाय, अपने भाषायी अहंकार के प्रति ज्यादा चिंतातुर हो गए। इस कारण अपनी भाषायी एवं आर्थिक अस्थिरता के सम्बंध में, उनके मन में कुछ विशिष्ट सोच तैयार हो गई।

जैसे क्या यह मान लिया जाए कि जिनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं, उन्हें स्वभाषा के प्रति प्रेम ही नहीं है? क्या मान लिया जाए कि जो लोग अपने बच्चों को विशेष तौर पर स्वभाषा माध्यम के स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, केवल वही उस भाषा के तारणहार हैं? सबसे लोकप्रिय धारणा तो यह है कि, ‘अपनी भाषा खत्म, यानी राष्ट्र खत्म!’ कुल मिलाकर कहा जाए तो देश के हर क्षेत्र के व्यक्तियों के मन में यह स्वघोषित भावना है कि भारत नामक जो यह राष्ट्र शान से खड़ा है, वह केवल उनकी स्थानीय अस्मिता के कारण ही है।

भाषा प्रेम का मूल अर्थ क्या है? हमें सामान्य व्यक्ति को समझ में आने वाली बोली, व्यवहारिक भाषा की आवश्यकता है। वास्तव में अब, जब रोजमर्रा के व्यवहार में स्वभाषा का उपयोग करने वाले लोग कम हो रहे हैं तब प्रामाणिक भाषा के उपयोग का अनुरोध करना गलत है।

लोक व्यवहार में उसे ही स्वीकार किया जाता है जो सुविधाजनक होता है। मुंबई में विक्टोरिया टर्मिनस का नाम बदलकर छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस कर दिया गया। यानी उसे वीटी से सीएसएमटी कर दिया गया। अर्थात हमने केवल अंग्रेजी के मूल अक्षरों को बदला है। वास्तविकता यह है कि रेलवे के उद्घोषकों के अलावा, ‘छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस’ इस पूर्ण नाम का उच्चारण कोई नहीं करता। हम यह सत्य भूलते जा रहे हैं कि जैसे-जैसे संस्कृति बदलती है, वैसे-वैसे भाषा भी बदलती जाती है। इसके लिए भाषाओं में नए शब्द बनाकर उन्हें रूढ़ करने की आवश्यकता है जिसे जैसे चाहिए, वैसे उसकी भाषा बोलने की सुविधा देनी चाहिए। दूसरे राज्यों के अधिकारी, डॉक्टर एवं अन्य व्यवसायी अपने व्यवसाय के लिए, स्थानीय स्तर पर उन राज्यों की भाषा बोलते हैं। हिंदी भाषा में बोलते हैं उसी तरह व्यवहारिक भाषा का प्रयोग भी करना चाहिए। व्याकरण सम्मत भाषा बहुत कम लोग बोलते हैं।

क्या हमें वास्तव में उच्च स्तर की स्वभाषा की आवश्यकता है? या फिर हमें सामान्य व्यक्ति को समझ में आने वाली बोली और व्यवहारिक भाषा की आवश्यकता है, जो सुचारू रूप से परस्पर वार्तालाप के काम आ सके? लोगों को ही तय करने दिया जाना चाहिए कि किस भाषा का उपयोग करना उचित है। जो अनुचित होता है, वह अपने आप ही पीछे छूट जाता है। यदि ऐसी भाषा टिकी रही, तभी स्वभाषा भी बरकरार रखी जा सकती है।

यदि महाराष्ट्र में, मराठी पाठकों को ’श्याम ची आई’ नामक प्रसिद्ध मराठी पुस्तक पढ़ाना हो तो उसे अंग्रेजी भाषा की अनुवादित पुस्तक देना पड़ता है। ऐसा  क्यों? क्या हमने कभी इस ओर ध्यान दिया कि देश भर में, जन्मदिन के लिए अपनी-अपनी भाषाओं में गीत तैयार करने के बजाय हम सब ‘हैप्पी बर्थडे टू यू’ गाकर ही केक के ऊपर की मोमबत्तियां क्यों बुझाते आ रहे हैं? भाषा एवं संस्कृति को जागरूक रहकर सम्भालना पड़ता है। भाषा का उपयोग सक्षमता से करने के साथ ही, उससे जुड़ी संस्कृति को भी याद रखना चाहिए। हमारे विचारों का अनुवाद हो सकता है किंतु चक्की पीसते समय महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले गीत, महिलाओं के खेलों से सम्बंधित गीत, पति-पत्नी द्वारा एक दूसरे का नाम लेने के लिए सुनाए जाने वाले छंद, तीज-त्योहारों से सम्बंधित गीतों आदि के द्वारा जो भाषा सौंदर्य देखने मिलता है उससे एक समृद्ध संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के दर्शन होते हैं। हमारे लोकगीत एवं लोक कथाएं-समाज के रीति-रिवाजों परम्पराओं एवं रूढ़ियों का दर्पण होती हैं; भाषा को इनके आधार पर वर्गीकृत नहीं किया जा सकता बल्कि वह, समाज की सम्पूर्ण परिधि को अपने भीतर समेटे रहती है। उसकी जड़ें, संस्कृति की माटी में गहरे पैठी होती हैं।

भाषा समाज की अर्जित सम्पत्ति होती है जिसका समाज के तौर-तरीकों के आधार पर संवर्धन एवं जतन होता है। हमारे देश की विभिन्न भाषाओं एवं बोलियों के असीमित शब्द संग्रहों, कहावतों, मुहावरों, सुविचारों, भाषा की बदलती शैली आदि के रूप इतने विस्तृत हैं कि उन्हें समझ कर प्रस्तुत करना सरल नहीं है। उल्लेखनीय है कि कोई भी भाषा, बहती हुई नदी के समान होती है जो समाज को देते-देते स्वयं भी समृद्ध होती जाती है। समय के साथ-साथ उसका स्वरूप भी बदलता जाता है। भाषा नामक इस नदी के पाट भी इतने विशाल हैं कि वह कभी खाली नहीं हो सकती। किसी भी भाषा-भाषी समाज के भरण-पोषण की भाषा रूपी नदी के लिए, उसका निरंतर कल-कल बहते रहना आवश्यक है।

महात्मा गांधी ने लोगों से स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वभाषा का उपयोग करने का अनुरोध किया था। उन्होंने भारतीय भाषाओं की पाठ्यपुस्तकों की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने इस ओर ध्यानाकर्षित किया कि विदेशी भाषाओं की पुस्तकें, भारतीयों के लिए क्यों अपरिहार्य हैं और किस तरह उनके अध्ययन से हमारे ‘स्व’ का गढ़न नहीं होता। विदेशी भाषा का एक नया पौधा तो उगाया जा सकता है लेकिन उसमें अपनत्व की सुगंध किस तरह भरी जा सकती है? हमारी संस्कृति भी कुछ ऐसी ही है। वह हमारी जड़ों में समाई है। हिंदी दिवस, मराठी दिवस, मातृभाषा दिवस आदि के माध्यम से भाषा उत्सव, शोभायात्रा, झांकियां, वॉट्सएप मैसेज जैसे वन डे इवेंट तो आयोजित किए जाते ही हैं। इसके साथ ही स्वभाषा का उपयोग, हमारी धमनियों में बहने वाला जीवनरस बन जाना चाहिए। ‘स्व भाषा’  हमारी सांस है- इस भाव के साथ, हर सांस के साथ स्वभाषा का सकारात्मक जतन करना चाहिए। समय के साथ-साथ भाषा के संवर्धन में सकारात्मक मुद्दों के साथ ही कुछ नकारात्मक मुद्दे भी उपस्थित हो गए हैं। स्वभाषा के साथ ही देश की अन्य भाषाओं का भी आदर एवं सम्मान होना आवश्यक है। स्वभाषा एवं स्वदेश के संवर्धन के लिए, भाषा के संदर्भ में नकारात्मकता का विनाश कर सकारात्मकता को सम्मान देना अत्यंत महत्त्वपूर्ण कदम है।

 

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