नीतीश के पाला बदल को कैसे देखें

सबसे ज्यादा बार पाला बदलने वाले नीतीश कुमार अपने विरुद्ध बह रही सत्ता विरोधी लहर को भांपने की बजाय तमाम आतंकवादियों के बिहार से पकड़े जाने और पीएफआई को लेकर आंखें मूंदे हैं परंतु पूरे राष्ट्र को पता है कि राजद के पंद्रह वर्षों के कुशासन और गुंडाराज से मुक्ति दिलाने का वादा कर इतने दिनों तक सत्ता का भोग करने वाले नीतीश सुशासन देने में पूर्णतया असमर्थ हैं।

बिहार के साथ पूरे देश में सर्वेक्षण करा लीजिए। जिनका किसी राजनीतिक दल से लेना-देना नहीं उनमें से एक भी व्यक्ति नीतीश कुमार द्वारा भाजपा से अलग होने को सही करार नहीं देगा। इनमें से कोई नहीं मानेगा कि इसके साथ नीतीश कुमार के 2024 लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी विरोधी सर्वसम्मत चेहरा बनने तथा भाजपा का ग्राफ नीचे गिरने की शुरुआत हो गई है। किंतु अनेक विपक्षी दल एवं मोदी, भाजपा व संघ के किसी सूरत में विनाश होने की ग्रंथि वाले लोगों से पूछिए तो उनका जवाब ऐसा होगा मानो अब मोदी एवं भाजपा को निर्णायक चुनौती मिलने की शुरुआत हो गई है। निस्संदेह, बिहार का सत्ता समीकरण बदला तो इसके मायने प्रदेश और देश दोनों के लिए है। लम्बे समय से गठबंधन के कारण बिहार में भाजपा का कोई सशक्त लोकप्रिय व्यक्तित्व उभर नहीं सका। यह भी कह सकते हैं कि भाजपा नेतृत्व ने नीतीश के हाथों ही प्रदेश की बागडोर थमा दी थी। नीतीश द्वारा परित्याग किए जाने के बावजूद भाजपा ने बिहार में अपने को मजबूत करने का वैसा उपक्रम नहीं किया जैसा करना चाहिए था। नीतीश द्वारा अलग होने के खतरे को भांपते हुए भी भाजपा ने पूर्वोपाय के कदम नहीं उठाए। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे खेमे के लिए उनकी कल्पनाओं के अनुरूप मैदान बिल्कुल साफ है। नीतीश कुमार ने 2015 में भी राजद के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा और चुनाव में सफलता पाकर सरकार बनाई। दो वर्ष से कम समय में ही इसे तोड़ने की पहल नीतीश ने ही की थी। बिहार में जदयू के साथ गठबंधन बनाने की शुरूआत 1990 के दशक में तब के वरिष्ठ नेताओं ने की जिसके नीतीश केवल सहभागी थे। बाद में गठबंधन बनाए रखने, बनाने और तोड़ने के रिकॉर्ड का पूरा सेहरा नीतीश के सिर ही है। इस मायने में वे भारतीय राजनीति में पहले नेता हैं जो गठबंधन बनाते और तोड़ते हुए भी मुख्य मंत्री बने रहे हैं। प्रश्न है कि मोदी और भाजपा के पतन की आधारशिला मानने वाले इस सिद्धांतविहीन स्थिति को किस रूप में लेते हैं?

पूरे घटनाक्रम का विश्लेषण करने के लिए नीतीश के संदर्भ में एक रोचक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है। हम आप यह कथन सुनते आ रहे हैं कि राजनीति में न कोई स्थाई शत्रु होता है और न मित्र। कोई नेता इसे पूरे गर्व के साथ लगातार चरितार्थ कर रहा है तो वह नीतीश ही हैं। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अपना आदर्श वैसे पेंडुलम को बना लिया है जो कुछ समय के लिए एक ओर फिर दूसरी ओर जाता रहेगा। कहा जा सकता है कि नीतीश ने एक चक्र बनाया है जिसमें वे सत्ता के शीर्ष पर स्थाई रहेंगे, पर बिहार का कोई दल न स्थाई विपक्ष होगा न सत्तापक्ष। कुछ समय एक दल या गठबंधन के साथ, एक अंतराल के बाद दूसरे के साथ और यह चक्र शायद उनके शीर्ष पर रहते चलता रहेगा। बस, शर्त एक ही है उनके अहंवादी व्यक्तित्व की तुष्टि होती रहे। क्या ऐसे व्यक्ति को बिहार और भारत की जनता भविष्य में भी अपने नेता के रूप में स्वीकार कर सकती है?

नीतीश द्वारा भाजपा से अलग होने का दूसरी बार किया गया फैसला उनकी राजनीतिक समझ पर तो प्रश्नचिह्न खड़ा करता ही है उनके निजी व्यक्तित्व के भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता महसूस कराता है। भाजपा ऐन चुनाव में साथ रहते हुए चिराग को नीतीश के विरुद्ध खड़ा करने का कदम नहीं उठा सकती थी। चुनाव के समय अपने गठबंधन को कम सीटें आने का मतलब था सरकार बनाने के अवसर से वंचित हो जाना। सामने आरजेडी गठबंधन था। भाजपा को इतना आभास रहा होगा कि राजद ने ज्यादा सीटें पा ली तो सत्ता उनके हाथ से जा सकती है। भाजपा ने नीतीश की भावना को महत्त्व देते हुए ही चिराग की जगह पशुपति कुमार पारस के गुट को राजग का भाग बनाया। नीतीश सहित जदयू के नेता इसकी चर्चा नहीं कर रहे।

नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव के साथ पत्रकारों से बातचीत में कहा कि समाज में विवाद पैदा करने की जो कोशिश हो रही थी वह मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। उनके अनुसार भाजपा से सम्बंध तोड़ने की मुख्य वजह यही है। बिना शब्द प्रयोग किए उन्होंने संदेश देने की कोशिश की कि सेक्यूलरवाद की रक्षा के लिए हमने भाजपा से सम्बंध तोड़ा है। पीछे लौटें तो जून 2010 से नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के विरुद्ध उत्तेजक बयान देना आरम्भ किया। पटना में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उपस्थित नेताओं को खाने का निमंत्रण देकर भी रद्द कर दिया। उसके बाद 2013 में उन्होंने भाजपा से गठबंधन तोड़ते हुए यही कहा कि जब नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री का उम्मीदवार बना दिया गया तो कोई विकल्प नहीं बचा था। इस तरह उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं को सेक्यूलर खेमे का सबसे बड़ा हीरो बनाकर पेश किया। स्वयं को सेक्यूलर लिबरल मानने वाले कुछ नेताओं, पत्रकारों, एक्टिविस्टों, बुद्धिजीवियों ने नीतीश को प्रधान मंत्री मटेरियल का कहना शुरू किया और उन्हें समझाया कि मोदी के विरुद्ध आक्रामक लाइन लिया तो विपक्ष के सबसे बड़े चेहरा हो जाएंगे। निश्चित रूप से फिर कुछ ऐसा हुआ है। हालांकि तब विपक्षी दलों ने उन्हें अपनाया नहीं और 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू 2 सीटों तक सिमट गई। इसी कारण उन्हें मुख्य मंत्री पद से त्यागपत्र देकर जीतन राम मांझी को बागडोर सौंपनी पड़ी थी।

यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि नीतीश के अंतर्मन में मोदी के समानांतर तथाकथित सेक्यूलर खेमे का राष्ट्रीय चेहरा बनने की छटपटाहट बनी हुई है। उनके प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा ने ट्वीट में कहा भी है कि देश आपका इंतजार कर रहा है। जो व्यक्ति स्वयं को, जो है उससे कई गुना बड़ा व्यक्तित्व मानने की ग्रंथि पाल लेता है तथा जिसे लगता है कि उसके विचार और व्यवहार अन्यों से श्रेष्ठ हैं, वह हमेशा अहं और असुरक्षा बोध से ग्रस्त रहता है तथा उसका व्यवहार दोलायमान होता है। इसलिए वे राजद गठबंधन के साथ बने ही रहेंगे इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता। लालू यादव ने उन्हें पलटूराम कहा था। इसका व्यापक विश्लेषण इसी मायने में हो सकता है।

जरा बिहार की दृष्टि से सोचिए। आज तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद एक बड़ी शक्ति है। किंतु लोगों ने 15 वर्ष के कुशासन से मुक्ति के लिए मतों के माध्यम से क्रांति की थी। नीतीश के नेतृत्व में राजद लगातार पांच चुनाव में पराजित हुई। लालू यादव सहित उनके परिवार के सारे सदस्य पराजित हो गए थे। 2020 में जद यू को कम सीटें आई तो उन्हें विचार करना चाहिए था कि जनता उन्हें क्यों पहले की तरह पसंद नहीं कर रही? बोचहा विधानसभा उपचुनाव में समाज के बड़े तबकों ने मुख्यतः नीतीश की शैली और उनका अनुसरण करने वाले भाजपा नेताओं के विरुद्ध विद्रोह करके भाजपा व राजग उम्मीदवार को पराजित किया था। नीतीश और जदयू के नेता इस कटु यथार्थ को मानने को तैयार नहीं कि लोगों का उनसे मोहभंग होना काफी पहले से आरम्भ हो चुका है। आज तेजस्वी के नेतृत्व में राजद का जनाधार नीतीश से ज्यादा है। जेहादी आतंकवादी तत्वों के विस्तार की आवाज उठाना समाज को बांटना नहीं होता। विश्व का कुख्यात आतंकवादी भटकल बिहार से पकड़ा गया, कई हिस्सों के आतंकवादी हमलों के षड्यंत्रकारी बिहार में पाए गए, पीएफआई के बड़े मॉड्यूल का पर्दाफाश हुआ और वे मानने को तैयार नहीं कि बिहार जिहादी आतंकवादियों के रडार पर है। क्या बिहार की जनता इस खतरे को नहीं समझती? उसे पता है कि ऐसे खतरे से मुक्ति दिलाने की सोच नीतीश या राजद में नहीं है। देश का माहौल ऐसा है जिसमें यह बड़ा मुद्दा बन चुका है। नीतीश और उनके पाला बदल से उत्साहित लोग इसे समझें तो पता चलेगा कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा क्या होगी।

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