सन् १८५८की क्रान्तिके बाद ब्रिटिश शासनने भारतीयोंको कहीं पर भी एकजुट होने पर ,सभा करने पर पूर्ण रूपसे पाबंधी लगा दी थी । ऐसे में जन-जन से सम्पर्क करके उनके भीतर राष्ट्रीयताकी भावना को कैसे भरा जाय इसी विचारसे श्रीबालगङ्गाधर “तिलकजी” ने पुणे में १८९३ सन् में सार्वजनिक गणेशोत्सव का आयोजन किया ,धार्मिक कार्यक्रम होने के कारण कोई सरकारी हस्तक्षेप भी नहीं हो सकता था और तिलकजीकी योजना सफल रही ।
गणेशजी को इसलिए चुना क्योंकि गणपति अर्थात् गणों (समाज)के अधिपति तो भगवान् गणपति ही हैं जिन्हें सभी समाजके लोग सभी सम्प्रदायके लोग पूजते थे । यद्यपि अंग्रेजोंने इसमें कई रुकावट उत्पन्न की तथापि ये आंदोलन दिनों दिन बढ़ता ही गया ।
सन् १८९३ से प्रारम्भ हुआ ये राष्ट्रीय जागरण का “श्रीगणेश महोत्सव” सन् १९२०में तिलकजी की मृत्यु तक महाराष्ट्र से निकलकर पुरे भारतमें व्यापकरूप कर चुका था इस राष्ट्र जागरण आंदोलनमें गाँधीजी,स्वामी श्रद्धानन्दजी , तिलकजी ,लाजपतरायजी , जैसे क्रान्तिकारी और राजनेता सम्मिलित होते थे ।
१९२० में तिलकजीकी मृत्युके बाद “गणपति महोत्सव ” रुका नहीं अपितु और व्यापक रूप धारण कर लिया था ,कश्मीरसे कन्याकुमारी ,कराची से कलकत्ता तब सम्पूर्ण भारतमें गणेश उत्सव मनाये जाने लगा और उसकी आड़ में क्रान्तिकारी राष्ट्रप्रेमकी भावना भरते रहे !
इस क्रांतिकारी दल के सदस्य रहे श्री खानखोजेजी लिखते हैं ” गणानां त्वा गणपतिं हवामहे” -इस व्यापक दृष्टिसे गणराज्य दिलाने वाले गणपति हमारे स्वातन्त्र्यके देवता हैं ,इस प्रकार का प्रचार शुरू हुआ ।
गणेशोत्सवके माध्यमसे प्रभावशाली और देशभक्त वक्ता एवं कीर्तनकारों द्वारा क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं को इकट्ठा करने का काम सुलभ हुआ । धार्मिक उत्सव् होने के कारण पुलिस भी गणेशोत्सव में हस्तक्षेप करने में हिचकिचाती थी । खुद लोकमान्य तथा अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता गणेशोत्सवके अवसरपर व्याख्यानद्वारा स्वराजका ही प्रचार किया करते थे ।” अब आप स्वयं ही निर्णय कर सकते हैं भारतीय स्वातन्त्र्य समर में पौराणिकोंका कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
– वरुण शिवाय