सशक्त भारत से होगा मजहबी साम्राज्य पाकिस्तान का पतन

पड़ोसी पाकिस्तान की वित्तीय स्थिति खराब होती जा रही है. कर्ज वापसी के पैसे नहीं हैं. चीनी सीपेक योजना खटाई में है. बाढ़ बेहाल किये है. वे आईएमएफ के दरवाजे पर कटोरा लिए बैठे हैं लेकिन जहां तक कश्मीर में जेहाद का सवाल है, वहां कोई कमजोरी नहीं है. आतंकियों की खेप आती जा रही है. रूसी फेडरल सिक्योरिटी एजेंसी ने अपने यहां तुर्की में प्रशिक्षित एक आईएसआईएस के आत्मघाती हमलावर को पकड़ा है जिसे भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के उच्चतम नेतृत्व को लक्षित करने का निर्देश था. इसका निहितार्थ क्या है ? भारतीय शीर्ष नेतृत्व क्यों पाकिस्तान के जेहादियों से लेकर तुर्की और आईएसआईएस के आतंकवादी समूहों का लक्ष्य बना हुआ है. देश के अंदर भी साम्प्रदायिक विभाजनकारी शक्तियां, सत्ता को आतुर क्षेत्रीय नेता हर प्रकार के दांवपेच चल रहे हैं. अपने सत्ता केंद्रों तक सीमित एकल राज्यीय दलों से किसी राष्ट्रीय विमर्श की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती. संकटकाल लगातार चल रहा है. प्रछन्न राष्ट्रविरोधी, जेहादी, नक्सली, क्षेत्रीय अलगाववादी, विदेशों से वित्त पोषित एनजीओज संगठित होने का आभास दे रहे हैं. इन समस्त देशी-विदेशी शक्तियों का भविष्य खण्डित विभाजित भारत में है. एक 2047 का मजहबी एजेंडा खुलता है और एक राज्य की सरकार बदल जाती है.
वे भारत के वर्तमान नेतृत्व से इतनी घृणा क्यों करते हैं ? उन्होंने कभी नेहरूजी या इंदिरा गांधी से, वीपी सिंह, मनमोहन सिंह जी से कोई घृणा नहीं की. ये नेता सऊदी किंग फैजल, फहद, फिलिस्तीन के यासर अराफात, पोप और मदर टेरेसा आदि का कितना सम्मान करते रहे. अरब, वेटिकन पक्षधरों से भारत में अबाध धन आता रहा. धर्मपरिवर्तन के प्रछन्न अभियान चलते रहे. किसे तकलीफ थी ? घृणा का कोई कारण ही नहीं था.
लेकिन सन् 2014 से हो रहे बदलाव की उन्हें आशा नहीं थी. उन्होंने देखा था सत्ताधिकार परिवारों, सत्ता समूहों में बंट जाता है.राष्ट्रीय चरित्र परिवर्तन उनका लक्ष्य नहीं होता. यह बदलाव तो सोये हुओं के इस देश में जागृति ला रहा है. वे लक्ष्य बिगड़ रहे हैं जिनके लिए वोटबैंक बनाए गये थे. कुछ ऐसी हवा चली है कि मजहबों की सीवनें भी उधड़ कर सबके सामने आ रही हैं. उन सबने बड़े प्रयास से हिंदुओं को अंधा बनाया था. कभी मशहूर कवि दुष्यंत कुमार ने कहा था, ‘अंधों को रोशनी का गुमान और भी खराब …’ राष्ट्रीयता का यह जागरण इन राष्ट्रविरोधियों का आज सबसे बड़ा संकट है. तो यही कारण है कि मोदी-विरोध शत्रुता की सीमाएं तोड़ रहा है. वे राष्ट्रवादी तो बन नहीं सकते. जिन्होंने कभी राष्ट्रवाद की तान ही नहीं छेड़ी, वे प्रयास करेंगे तो बेसुरे हो जाएंगे. एक बड़ा समूह सत्ता के हाशिये पर जा रहा है वह अपनी हताशा में कुछ भी कर गुजरेगा.
आइये, वैश्विक इस्लामिक परिदृश्य का आकलन करें. तुर्की से लेकर पाकिस्तान व सेंट्रल एशिया के नवस्वतंत्र देशों तक एक इस्लामिक आर्क बनता है जो भारत म्यानमार के आगे मलेशिया इंडोनेशिया तक चलता जाता है. सदियों से भारतवर्ष इस आर्क की पूर्णता में सबसे बड़ी बाधा रहा है. जो बाधाएं होती हैं वे ही तो लक्ष्य होती हैं. भारत सन् 712 ई. से लगातार मजहबी आक्रांताओं का लक्ष्य बना रहा. अब भारत के इस्लामीकरण में तुर्की जैसे देशों को क्यों रुचि होनी चाहिए ? उनके मजहबी सीरियल यहां लोकप्रियता की हदें पार कर रहे हैं.
अंग्रेज भी मिशनरियों को लेकर हमें सभ्य बनाने आ गये. आजादी के दौर में तुष्टीकरण के प्रयोग हमने देखे हैं. देश के धार्मिक विभाजन के बाद भी तुष्टीकरण को समर्पित हमारे तटस्थ नेताओं ने गंगाजमुनी संभावनाएं कायम रखीं. लेकिन अब राष्ट्रवाद का यह जो जबरदस्त रोडब्लॉक आ गया है उससे पार पाना विरोधियों के लिए असंभव होता जा रहा है. वैश्विक इस्लाम की एक तिहाई आबादी जिसका निवास भारतीय उपमहाद्वीप अर्थात् पाकिस्तान भारत बांग्लादेश में है, इनकी जड़ें मूलतः भारतीय संस्कृति में हैं. भारत के एक बड़ी आर्थिक व सैन्यशक्ति के रूप में सशक्त होते जाने का परिणाम यह है कि अपने एटम बमों के बावजूद पाकिस्तान एक मजबूर किस्म का देश होता जा रहा है. वह अपने आंतरिक विरोधाभास के कारण चार भारत पर निर्भर भागों में विभाजित हो सकता है. बांग्लादेश भारत से घिरा है. तात्पर्य यह कि सशक्त भारत के फलस्वरूप एक मजहबी साम्राज्य बिखरने को है.
इसीलिए भारतीय मुस्लिम समाज को मुख्य भारतीय धारा से भटका देने के लिए वैश्विक व आंतरिक मजहबी शक्तियां जी जान से लगी हैं. वरना टीवी चैनलों पर हो रही हजारों बहसों में से कोई एक मामूली सी बात अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा कैसे बन गयी ? क्योंकि वैश्विक मजहबी ताकतें भारत में अपने मजहबी अभियानों का क्रमशः बाधित होते जाना पचा नहीं पा रही हैं. उनकी समस्या यह भी है कि मोदी का भारत अपने चरित्र में अल्पसंख्यक समाज के प्रति दुराग्रहमुक्त है. मजहबी ताकतें चाहे वे तुर्की हों या आंतरिक वामी-सांम्प्रदायिक गठजोड़, भारत को इस अतिसंवेदनशील काल में खलनायक नहीं बना पा रही हैं. देश के नेतृत्व को एहसास है कि कोई भी प्रायोजित सांम्प्रदायिक समस्या देश को भीषण आर्थिक संकट के दायरे में ले आएगी. दूरगामी लक्ष्यों के दृष्टिगत मोदी सरकार बहुत सी आलोचनाओं को झेलते हुए भी धैर्य धारण कर अपने लक्ष्य से डिग नहीं रही है. अब भारत शत्रुओं और उनके हाथ बिके लोगों के पास विकल्प क्या है ? इसकी एक छोटी सी बानगी रूसी एजेंसी के सामने एक आतंकी के कुबूलनामे से सामने आयी है. ऐसे कितने ही आतंकी देश की सीमाओं में दाखिल हो चुके होंगे.
आज देश में वही हो रहा है जो राष्ट्रीय सशक्तीकरण के लिए आवश्यक है, इसमें संदेह नहीं. अनुच्छेद 370 के संवैधानिक संकट का निराकरण कोई सरल नहीं था. पाकिस्तान पहली बार अपनी औकात में दिखा है. यहां अब देश के नागरिकों के दायित्व की बात आती है. नेहरू-लियाकत पैक्ट को ध्वस्त करने वाले सीएए-एनआरसी जैसी महत्वपूर्ण पहल पर देश की जनता को अपनी सरकार के साथ खड़ा होना चाहिए था. यही गलती हमने तीन कृषि कानूनों के साथ की है. सरकारों की सीमाएं भी होती हैं. हम जन सरोकारों की बात तो करते रहे हैं लेकिन हमारे जनदायित्व भी हैं. हमारे पास सामाजिक नेतृत्व नहीं है. सत्ता के आकर्षण ने हमें राजनैतिक नेता तो हर रंग के दिये लेकिन सामाजिक दायित्वों का निर्वहन कर सकने वाला कोई सशक्त हस्ताक्षर हमें नहीं मिला. तो इस धर्म-संस्कृति के देश में समाज नेतृत्वविहीन रहा और उसे जातिपाँति की दिशा में उन्मुख होने से रोका नहीं जा सका. राष्ट्रीय एकीकरण समाज का नेतृत्व करने वालों का एक स्वाभाविक लक्ष्य होता है. देश में सामाजिक धार्मिक नेतृत्व के अभाव के कारण यदि प्रधानमंत्री मोदीजी से देश की अपेक्षाएं इस दिशा में भी हो गयी हैं तो वह अकारण नहीं है.
यह देश का कठिन समय है. वैश्विक मजहबी शक्तियां प्रत्याक्रमण कर रही हैं. नीतिश्लोक है, ‘…न्यायात्पथ प्रविचलंति पदं न धीरा: ।।’ जो धर्यवान हैं वे न्यायपथ से विचलित नहीं होते. अभी झंझावातों से अपनी कश्ती को निकाल ले जाना ही साध्य है.
कैप्टेन आर. विक्रम सिंह
पूर्वसैनिक पूर्व प्रशासक

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