कलाएं कितनी हो सकती हैं?
सब लोकोपयोगी हों। लोक उपयोगी सृजन से बड़ा कोई सृजन नहीं। सृजन श्रम, संघर्ष, समय को बचाने वाला और परिश्रम को सार्थक कर आजीविका देने वाला हो।
भारत विश्वकर्मीय ज्ञान के 100 से ज्यादा ग्रंथों से समृद्ध रहा है। ये गोपनीय अधिकांश ग्रंथ गत डेढ़ दशक में ही सानुवाद प्रकाश में आए हैं… क्या आप जानते हैं
आज विश्वकर्मा जयंती की
हार्दिक शुभकामनाएं…
विश्वकर्मा और उनके शास्त्र
(संदर्भ : विश्वकर्मा ग्रंथों का बढ़ता प्रयोग)
यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि कल तक जो शिल्प और स्थापत्य के ग्रंथ केवल शिल्पियों के व्यवहार तक सीमित और केन्द्रित थे, उन पर आज अनेक संस्थानों से लेकर कई विश्व विद्यालयों तक ज्ञान सत्र आयोजित होने लगे हैं, सेमिनार, राष्ट्रीय, अंतर राष्ट्रीय गोष्ठियां होने लगी हैं। अनेक विद्वानों की भागीदारी होने लगी है। शिल्प के ये विषय पाठ्यक्रम के विषय होकर रोजगार और व्यवहार के विषय हुए हैं।
शिल्प और स्थापत्य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्येय रहा है। विश्वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्पकारों ने समय-समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्वयं कोई श्रेय नहीं लिया। सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्वरूप के रचयिता विश्वकर्मा को दिया।
उत्तरबौद्धकाल से ही शिल्पकारों के लिए वर्धकी या वढ्ढकी संज्ञा का प्रयोग होता आया है। ‘मिलिन्दपन्हो’ में वर्णित शिल्पों में वढ्ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है, इसी के आसपास सौंदरानंद महाकाव्य, हरिवंश (महाभारत खिल) आदि में भी अष्टाष्टपद यानी चौंसठपद वास्तु पूर्वक कपिलवस्तु और द्वारका के न्यास का संदर्भ आया है। हरिवंश, ब्रह्मवैवर्त, मत्स्य आदि पुराणों में वास्तु के देवता के रूप में विश्वकर्मा का स्मरण किया गया है…।
प्रभास के देववर्धकी विश्वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्स्य, विष्णु आदि पुराणों में आया है जिनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्मरण किया गया किंतु शिल्पग्रंथों में विश्वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्त सृष्टिरचना को ही विश्वकर्मीय कहा गया।
विश्वकर्मावतार, विश्वकर्मशास्त्र, विश्वकर्मसंहिता, विश्वकर्माप्रकाश, विश्वकर्मवास्तुशास्त्र, विश्वकर्मशिल्पशास्त्रम्, विश्वकर्मीयम् … आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्वकर्मीय परंपरा के शिल्पों और शिल्पियों के लिए आवश्यक सूत्रों का गणितीय रूप में सम्यक परिपाक हुआ है। इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्छा आदि ग्रंथों के प्रवक्ता विश्वकर्मा ही हैं। ये ग्रंथ भारतीय आवश्यकता के अनुसार ही रचे गए हैं।
इन ग्रंथों का परिमाण और विस्तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। अनेक पाठ्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। इसके बाद हमें पाश्चात्य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्य है कि यदि यह सामान्य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्या में शिल्प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्थापत्य शास्त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया।
भवन की बढ़ती आवश्यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्यान ही नहीं गया…। इस पर लगभग 100 ग्रंथों का संपादन और अनुवाद का संकल्प किया है और ईश्वर ने सफलता दी। संस्कृत साहित्य के प्रकाशक कहेंगे : इस सदी में सबसे ज्यादा विश्वकर्मा ग्रंथ घर घर पहुंचे हैं।
विश्वकर्मा के चरित्र पर स्वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। पिछले वर्षों में ‘महाविश्वकर्मपुराण’ का प्रकाशन भी हुआ। मेरा मन है कि भारत के ये ग्रंथ विश्व समुदाय के लिए प्रेरक बने देश वास्तु गुरु भी सिद्ध हो।
– डॉ. श्रीकृष्ण जुगनु