शिवतीर्थ और बीकेसी का संदेश

विजयादशमी के अवसर पर शिवाजी पार्क में शिवसेना द्वारा आहूत दशहरा मेला शिवसैनिकों की दृष्टि में वार्षिक वारकरी दिन होता है। जबसे यह मेला शुरू हुआ है, तबसे अत्यंत उत्साह पूर्वक युवा और युवतियां बाजे- गाजे के साथ इस मेले में जाते थे, और उसमें एक घोषणा “आवाज किसका…. शिवसेना का” और देखते-देखते मुंबई में शिवसेना का आवाज निर्माण हो गया। इस आवाज ने एक संतुलन साध्य किया। समाज में जो दुष्ट प्रवृत्तियां होती है, फिर वह धार्मिक हों या जातीय , उनमें एक डर निर्माण हो गया। इसका सारा श्रेय शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे को देना होगा।

इस बार भी शिवाजी पार्क पर शिवसेना का दशहरा उत्सव संपन्न हुआ। परंतु इस समय इस मेले की आभा फीकी थी।शिव सैनिकों में उत्साह नहीं था। स्वयं के खर्चे से प्रवास कर मेले में आने की मानसिकता नहीं थी। शिवाजी पार्क में भीड़ तो थी, परंतु इस भीड़ में जानकार लोग कितने थे, इसकी खोज करनी पड़ेगी। आवाज किसका यह घोषणा अब  उद्धव ठाकरे का ऐसे हो गया है, और यह घोषणा किसी भी प्रकार से ऊर्जा निर्माण करने वाली नहीं थी, किसी भी प्रकार का उत्साह निर्माण नहीं कर सकी; और मुंबई में संतुलन रखने के लिए यह घोषणा किसी काम की नहीं रही।

उद्धव ठाकरे का भाषण संपन्न हुआ। मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद ठाकरे गत 3 महीनों से सार्वजनिक रूप से रुदन कर रहे हैं। यह रुदन उन्होंने इस समय भी चालू रखा। “यदि किसी एक भी निष्ठावान शिवसैनिक का आक्षेप हो तो मैं शिवसेना के पक्ष प्रमुख का पद भी छोड़ दूंगा”। यह मजाक का वाक्य बना। 40 निष्ठावान शिवसैनिक विधायकों ने आक्षेप लेने के बाद भी उद्धव ठाकरे की दृष्टि में वे गद्दार हैं, वे खोका सुर हैं, एकनाथ शिंदे कटप्पा हो गए। ऐसे जो सैनिक उद्धव ठाकरे पर आक्षेप लगाते हैं, वे गद्दार कहलाते हैं। मैं पक्ष प्रमुख पद छोड़ दूंगा,केवल ऐसा कहने में क्या जाता है।

उद्धव ठाकरे का शिवतीर्थ का भाषण, दल के सर्वोच्च नेता ने इस प्रकार का भाषण नहीं करना चाहिए, इसका आदर्श पाठ था। दूसरों को गद्दार कहते समय वही तलवार उनके स्वत: की गर्दन पर लटक रही है यह उनके भी समझ में नहीं आ रहा है। उन्हें क्या कहना है? चुनाव शिवसेना और भाजपा ने एक साथ मिलकर लड़ा। जनता ने उन्हें सत्ता संभालने का आदेश दिया। जनता से गद्दारी कर यानी शिवसेना के शिव सैनिकों के साथ गद्दारी कर सोनिया गांधी और शरद पवार के चरणों में नत हो गए। यह गद्दारी ठाकरे परिवार भूल जाए फिर भी जनता उसे नहीं भूलेगी। सर्वोच्च राजनीतिक नेता ने विपक्ष पर  टीका करते समय  संयमित शब्दों का उपयोग आवश्यक है। असभ्य भाषा का प्रयोग करने से प्रतिमा नहीं बनती। उसमें से एक समय जो अपने साथ थे, हमारे साथ उठते- बैठते थे, भोजन करते थे, सुख- दुख में सहभागी हुए, उन्हें गद्दार कहना, खोकासुर कहना, कटप्पा कहना, यह परिपक्व राजनीतिक नेता के लक्षण नहीं हैं।

विजयादशमी मेले में समभ्रमित शिव सैनिकों को भविष्य कालीन मार्गदर्शन आवश्यक था। पार्टी  पुनःखड़ी करनी है, पार्षद और विधायक चुनकर लाना है, इसके लिए क्या करना होगा, यह दिशा दर्शन आवश्यक था। समय के अनुसार नारे लगाने की आवश्यकता थी। इस बाबत बाला साहब प्रतिभा संपन्न थे।
” प्रारंभ में मराठी मानुष के न्याय्य हकों के लिए लड़ना है”। यह घोषणा उन्होंने की। बाद में “गर्व से कहो हम हिंदू हैं”, यह घोषणा  दी, और चुनाव के समय में घोषणा की, “विधानसभा पर भगवा लहराना है”। ऐसी प्रत्येक घोषणा का अर्थ शिवसैनिक के समझ में आया और वह उसी में व्यस्त हो कर काम करने लगा। बदलती परिस्थिति में शिवसैनिकों में खोखासुर, कटप्पा, गद्दार, यह शब्द कौन सी चेतना निर्माण करते हैं?

दूसरा दशहरा उत्सव उसी समय बीकेसी के मैदान पर मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे द्वारा द्वारा आयोजित था। इस दशहरा मेले में शिवसेना की अपेक्षा ज्यादा भीड़ थी। इस मेले के लिए शिवसैनिक क्यों आए, कैसे आए, पैसे देकर लाए गए क्या? इस पर अलग-अलग चर्चाएं चल रही हैं। ऐसी टीका तो शिव तीर्थ पर आयोजित भीड़ के संबंध में भी की जा सकती है। नंगे द्वारा नंगे को नंगा कहना इसका कोई अर्थ नहीं है।

इस मेले में एकनाथ शिंदे का भाषण हुआ। एकनाथ शिंदे वक्तृत्व संपन्न राजनीतिक नेता हैं, ऐसा कोई नहीं कहता। वे काम करने वाले और कार्यकर्ताओं के साथ प्रेम करने वाले राजनेता हैं। वक्तृत्व की छाप छोड़ने वाले अनेक लोग शिवतीर्थ पर थे, भाड़े पर लाई हुई एक महिला भी थी। इस प्रकार के भाषण क्षणिक उत्तेजना निर्माण करते हैं। वह वडापाव सरीखे होते हैं, गरम है तभी तक उसका स्वाद है। एकनाथ शिंदे का भाषण, प्रहार करने वाला, लड़ाई के मैदान का भाषण या उत्तेजना निर्माण करने वाला नहीं था, परंतु सुनने वालों को विचार करने के लायक था। वह वडापाव वाला भाषण ना होते हुए केसर की सुगंध निर्माण करने वाला था। गद्दारी किसने की, कब की, किसलिए की, यह उन्होंने स्पष्ट कर दिया। बाला साहब किंग मेकर थे। उद्धव ठाकरे ने स्वयं किंग बनने की घोषणा की। परिवारवाद का अध:पतन हो गया यह शिंदे ने स्पष्ट रूप से कहा।

“मेरा परिवार मेरी जवाबदारी” यह कोरोना काल की उद्धव ठाकरे की घोषणा थी। तब उसकी खिल्ली उड़ाई गई थी कि, उद्धव ठाकरे मेरा परिवार मेरी जिम्मेदारी निभा रहे थे। वह कभी मंत्रालय नहीं जाते थे, किसी से भी नहीं मिलते थे, सहकारियों के साथ कभी संवाद नहीं करते थे। उनकी कार्यशैली मैं और मेरा परिवार को पोषक थी। एकनाथ शिंदे ने ऐसे कुछ उदाहरण दिए। शिवसेना कोई प्राइवेट लिमिटेड  कंपनी नहीं, वह शिव सैनिकों की है ऐसा भी उन्होंने अधोरेखित किया।

एकनाथ शिंदे का संपूर्ण भाषण सुनने के बाद, उनके हाव-भाव और चेहरे के भाव देखने के बाद ऐसा लगा कि यह व्यक्ति ईमानदार है। मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्हें नहीं चाहिए ऐसा नहीं है। राजनीति में ही जीवन खपाने वाले किसी भी राजनीतिक नेता को मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखना अत्यंत स्वाभाविक है, उसमें कुछ गलत नहीं है। गलती केवल यही है कि मुख्यमंत्री पद प्राप्त करने के लिए जो अपने वैचारिक शत्रु हैं उनसे यदि हाथ मिलाया तो वह काम गद्दारी कहलाता है। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस की विचारधारा समाज में धार्मिक कलह बढ़ाने वाली, जातीय द्वेष फैलाने वाली, किसानों को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाली, महिलाओं को दुर्बल बनाने वाली है। एकनाथ शिंदे ने उनका साथ छोड़ने का साहसिक निर्णय लिया। राजनीति में साहस किए बिना कुछ नहीं मिलता। मातोश्री में बैठकर और शिवतीर्थ पर दोनों हाथ पसारकर मांगने या केवल देह बोली से कुछ भी प्राप्त नहीं होता। प्राप्त हुए विधायक भी पार्टी छोड़ कर चले जाते हैं।

जो अपना वैचारिक मित्र है उस भाजपा के साथ एकनाथ शिंदे ने हाथ मिलाया, यह स्वाभाविक और प्राकृतिक युति है। राजनीति यह सत्ता प्राप्त करने के लिए होती है। इसके लिए प्रतिस्पर्धा होती है। यह स्पर्धा प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में होती है इसलिए युति का मार्ग बाधाओं भरा तथा विकट होता है। आने वाले प्रत्येक चुनाव में इस कसौटी पर इन दोनों दलों को कसना पड़ेगा। इन दोनों दलों में कितना लचीलापन है यह दिखाने के लिए महाराष्ट्र की भावी राजनीति पर अवलंबित रहना होगा। एकनाथ शिंदे ने खतरा मोल ले कर अपना मार्ग निश्चित किया है।

तमाम शिवसैनिकों के सामने प्रश्न है कि किसके साथ एकनिष्ठ रहना है ।उद्धव ठाकरे से या एकनाथ शिंदे के साथ। इसका निर्णय उन्हें स्वत: ही करना होगा। यह निर्णय केवल भावनाओं के वशीभूत होकर नहीं चलेगा। निर्णय के लिए कुछ कसौटियां निश्चित करनी होंगी, वह इस प्रकार–

1. बालासाहेब ठाकरे एक व्यक्ति थे  या विचार हैं?
2. व्यक्ति निष्ठा को बढ़ावा देना या विचार निष्ठा के साथ रहना?
3. विचारों की दासता स्वीकार करने वाला नेता कौन है?
4. विचारों के साथ गद्दारी करने वाला नेता कौन?
5. कार्यकर्ताओं के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करने वाला कौन?
6. जो नहीं चाहिए उस चौखट में फंसा हुआ नेता कौन?

ऐसी सब कसौटियों पर कस कर शिव सैनिकों ने निर्णय करना चाहिए,  वे जो निर्णय लेंगे उससे यह तय होगा कि महाराष्ट्र दाऊद गैंग के मार्ग से जाएगा या छत्रपति शिवाजी के मार्ग से! शिवतीर्थ और बीकेसी पर आयोजित दशहरा मेले का यही हमारे लिए संदेश है।

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