भारत की आत्मा उसके ग्रामोें में बसती है। इसलिए यदि भारत की प्राचीन सनातन संस्कृति को बचाए रखना है तो ग्राम की संस्कृति और वहां के निवासियों के शहर की ओर हो रहे पलायन को रोकना ही होगा। इसके लिए आवश्यक है कि एक बार फिर ग्राम का मौलिक विकास नवीन पद्धति के आधार पर लेकिन विशुद्ध भारतीय संस्कृति को बचाए रखते हुए किया जाए। इस संदर्भ में प्रस्तुत है भैयाजी जोशी (अ. भा. कार्यकारिणी सदस्य, रा. स्व. संघ) का साक्षात्कार…
भूतकाल में आक्रांताओं ने भारत पर आक्रमण किए थे। आज प्रत्यक्ष तौर पर तो नहीं, पर जो सांस्कृतिक आक्रमण किए जा रहे हैं उनसे निपटने की भविष्य की क्या योजना है?
भारत का जो स्वभाव और संस्कृति है, वह जीवन मूल्यों पर विकसित हुई जीवनशैली है। भारत ने दो प्रकार के आक्रमणों का सामना किया है। एक हिंसक आक्रमण था, जबकि दूसरा चतुराई से किया गया। हिंसक आक्रमणों का सामना करना आसान होता है परंतु, कुटिल राजनीतिक दृष्टिकोण रखकर किए जाने वाले शांतिपूर्ण आक्रमण से समाज को जाग्रत करना कठिन होता है। इसीलिए ब्रिटिश काल का आक्रमण ज्यादा खतरनाक था क्योंकि उसने हमेें जड़ों से काटने का काम किया। हिंसक आक्रमणों को हमने पुरुषार्थ के बल पर परास्त किया लेकिन अंग्रेजों के आक्रमण ने सामान्य जन के साथ ही साथ हमारे समाज के बुद्धिजीवियों और सम्भ्रांत वर्ग को भी प्रभावित किया। उन्होंने हमें जो सुराज्य देने का प्रयास किया उसके चक्कर में हम गलत दिशा में चल दिए। फिर चाहे शिक्षा पद्धति हो या प्रशासन पद्धति या फिर समाज को विकेंद्रित रखने वाली व्यवस्था; अंग्रेजों ने उन सब को मिटाने का प्रयास किया। मुझे नहीं लगता कि हम अभी पूर्ण रूप से उससे बाहर आ पाए हैं। पर बाहर आ सकते हैं क्योंकि हमारे संस्कारों का बीज बहुत सशक्त है। हम सामाजिक जीवन में जो काम करते हैं उसके आधार पर कह सकते हैं कि भारत पुनः उस प्रतिष्ठा पर स्थापित हो सकता है।
आपकी नजर में पिछले 75 वर्षों की वे कौन सी घटनाएं हैं, जिन्होंने भारत का स्व जाग्रत किया है?
सबसे बड़ा प्रभाव आक्रमण का होता है। फिर चाहे हमने सीमा पर हुए आक्रमण के कारण कुछ खोया हो या वार्ता के कारण, उसकी पीड़ा जन सामान्य के हृदय में दिखाई देती है। एक उदाहरण देना चाहूंगा। 1965 की लड़ाई में कच्छ का कुछ हिस्सा पाकिस्तान को देने की बात हुई। कच्छ एक रेगिस्तानी इलाका है पर देश के जन सामान्य ने अपनी जमीन न देने के लिए विरोध किया। दूसरा उदाहरण लेते हैं। एक समय कश्मीर में तिरंगा लहराना मना था। कन्याकुमारी से लेकर देश के उत्तरी छोर तक के विभिन्न भाषा और प्रांत के लोग लालचौक पर तिरंगा लहराने के लिए तमाम कठिनाइयां उठाकर श्रीनगर तक पहुंचते हैं। तीसरा उदाहरण तो अभी का है, यानी राम मंदिर आंदोलन का। अयोध्या में राम मंदिर बना पर इसलिए नहीं कि देश में मंदिरों की कमी थी, बल्कि वह मंदिर निर्माण आंदोलन हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के प्रकटीकरण का प्रतीक है। लोगों ने जाति-धर्म-भाषा आदि भावनाओं से ऊपर उठकर कंधे से कंधा मिलाकर उस आंदोलन में हिस्सा लिया और लाखों कारसेवक अयोध्या पहुंचे। यही राष्ट्रीय अस्मिता का प्रगटीकरण है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।
संकट के समय नेपाल और श्रीलंका को भारत जिस तरह से सहायता कर रहा है, उस पर आपका क्या कहना है?
इन दोनों देशों को हमने कभी शत्रु माना ही नहीं है। उनका भारत के प्रति क्या व्यवहार रहा है, वह अलग बात है। भारत हमेशा संकट की घड़ी में इन देशों के साथ खड़ा रहा है। नेपाल और श्रीलंका के लाखों लोग रोजगार के लिए भारत में आते हैं। वर्तमान समय में किसी देश का नागरिक रोजगार के लिए अन्य देश में जाता है तो आसानी से प्रवेश नहीं मिलता है। पर भारत में ऐसा नहीं है। खासकर, श्रीलंका और नेपाल के बारे में तो बिलकुल नहीं है। नेपाल के लोगों को तो वीजा-पासपोर्ट की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। श्रीलंका जब आतंकवाद का शिकार हुआ था तो उस समय भी हमने कहा था कि हम आतंकवाद से लड़ने के लिए आपको सहयोग कर सकते हैं। वर्तमान आर्थिक संकट में भी भारत ने वही परिचय दिया है कि हम आपकी आर्थिक स्थिति सुधारेंगे। नेपाल के साथ तो धार्मिक और सांस्कृतिक सम्बंध भी हैं। हम तो उसे अलग मानते ही नहीं हैं।
स्व जागरण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगभग 100 सालों से कार्य कर रहा है। व्यक्ति निर्माण करते हुए स्व को जाग्रत करने का संघ का जो विचार है, वह अब किस स्तर तक पहुंच गया है?
संघ ने देश के इस सुप्त भाव को जगाने का कार्य किया है कि राष्ट्र और व्यक्ति अलग नहीं हैं। राष्ट्र को हमने एक जीता जागता पुरुष बनाया है। पुरुष सूक्त में जो आता है; सहस्र पाद, सहस्र शीश, सहस्र हाथ, सहस्र मुख। यह क्या है? यह कोई हजार हाथों या शीश वाला पुरुष नहीं है। यह समाज पुरुष है। इसलिए हम संघ में कहते हैं कि हर व्यक्ति इस राष्ट्र का एक अंग है। हिंदू राष्ट्र एक शरीर है और उसका अंग है(सदस्य नहीं) समाज का हर व्यक्ति। सदस्य होना अलग मानसिकता का प्रगटीकरण है। मैं अंग हूं। शरीर के किसी अंग का अलग अस्तित्व नहीं है और उस छोटे से अंग के बिना शरीर अपूर्ण है। इसलिए संघ ने लोगों में ‘अंगांगी भाव’ जगाया है, यानी यह राष्ट्र एक शरीर है और हम सब इसके अंग हैं। संघ के लाखों स्वयंसेवक इसी भाव को लेकर व्यवहार करते हैं। राष्ट्र एक पुरुष है; इसकी अनुभूति संकटकाल में तो होती है। संकटकाल में समाज के अंदर राष्ट्र पुरुष का एक आवश्यक अंग होने का जो भाव पैदा होता है वह संघ के नेतृत्व में फलीभूत होता दिखता है कि उत्तराखंड में कोई संकट आया तो केरला का व्यक्ति दौड़कर मदद के लिए आ जाता है। संघ का स्वयंसेवक उस प्रदेश मात्र की भाषा को नहीं समझता। उसमें कुशलता नहीं है। फिर भी ऐसे संकटों पर जाता है। मैं समझता हूं कि यह जो जागरण है, वही स्व की जागृति का प्रतीक है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।
संघ की जब से शुरुआत हुई, उसकी समाज में आवश्यकता पर प्रश्न उठे। स्वतंत्रता आंदोलन समाप्त हो गया, अब संघ की आवश्यकता है? राम मंदिर बन गया, अब संघ की क्या आवश्यकता है? परंतु आज समाज में जो चल रहा है, उसमें आपको संघ की क्या आवश्यकता प्रतीत होती है?
संघ काम इस राष्ट्र के सर्वांगीण विकास को आकार देना है। सर्वांगीण उन्नति कैसे होगी? संघ ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हिंदू समाज-हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति का संरक्षण करने से ही सर्वांगीण उन्नति होगी। भौतिक, आदि भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति के सर्वांगीण विकास की भी यही राह है। अर्थात् संघ के कार्यों की कभी भी अप्रासंगिकता नहीं रही है। 1925 से पहले भी संघकार्य था। लोगों को आश्चर्य होगा कि संघ की स्थापना तो 1925 में हुई थी। पूज्यनीय डॉक्टर जी के वाक्य का एक संदर्भ देना चाहूंगा। उन्होंने कहा कि, मैं नया कुछ भी नहीं करूंगा। नया कुछ नहीं करूंगा का मतलब है कि, प्राचीन काल से जो चला आ रहा है उसका वर्तमान नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व्यवस्था आगे भी रहेगी कि नहीं, यह तो काल तय करेगा। लेकिन मैं इतना मानता हूं कि काम हमेशा रहेगा। सामान्य काल प्रवाह में समाज सुप्त अवस्था में रहता है, शिथिल होता है, निष्क्रिय होता है। उसको ठीक, स्वस्थ और सक्रिय रखने के लिए किसी न किसी प्रकार की व्यवस्था निर्मित होती रहेगी। वर्तमान में वह व्यवस्था संघ देख रहा है। कल भी वह व्यवस्था चलती रहेगी। कैसे चलेगी वह समय तय करेगा। लेकिन मैं समझता हूं कि संघ जो करना चाहता है वह नित्य और निरंतर करने का काम है।
ग्राम विकास जो कि भारत के स्व को जाग्रत करने का एक आयाम है, एक अध्ययन का विषय है। आपके हिसाब से ग्राम के विकास का मूल अर्थ क्या होना चाहिए? क्या एक विकसित और स्वावलम्बी ग्राम भारत का स्व जाग्रत करने में सहायक होगा?
हमें पता होना चाहिए कि प्राचीन काल में सभी गांव अपना-अपना ख्याल रखते थे। फिर अंग्रेजों द्वारा सत्ता का केंद्रीकरण हुआ। उन्हें भारत पर राज करना था इसलिए भारत के सभी स्वायत्त केंद्रों को समाप्त करने की आवश्यकता थी। एक उदाहरण लीजिए। एक पद है डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर। आखिर यह कलेक्ट क्या करता है? जिलाधिकारी समझ में आता है, जिला प्रशासक भी। अंग्रेजों ने कलेक्टर नाम क्यों दिया है? कलेक्टर का मुख्य काम सभी गांवों से रिवेन्यू इक्ट्ठा करना और उसे केंद्रीय कार्यालय में जमा करना था और केंद्र सरकार का कार्य सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराना था। यह सत्ता का केंद्रीकरण है। सौ- सवा सौ वर्षों तक यह व्यवस्था चलने के कारण हमारे गांव भी सरकार पर आश्रित हो गए। संघ की कल्पना है कि इस परिस्थिति को बदलना है। गांव के लोग ही गांव के बारे में सोचें और वहां की कमियां दूर कर सुविधाएं निर्मित करें। जिन सुविधाओं के लिए आर्थिक बल लगता है वह सरकार से लें, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। एकाएक परिस्थिति बदलना सम्भव नहीं है पर निर्णय लेने का केंद्र गांव को होना चाहिए। वर्तमान समय में निर्णय लेने के लिए ग्राम पंचायत बनती है। कहने के लिए ग्रामसभा है पर इनके निर्णय लेने की स्वातंत्र्य मर्यादित है। इसलिए जन सामान्य के मन में आता है कि ग्राम पंचायत का विकास करना तो सरकार का कार्य है। दूसरा विचार यह चला है कि धनी लोग हमारे गांव के विकास के लिए कार्य करेंगे। वे लोग ही धर्मशाला, विद्यालय और मंदिर बनाकर देंगे। हम तो नहीं बनाएंगे। एक तीसरा प्रवाह भी इन दिनों चल पड़ा है कि, कोई एनजीओ आएगा और ग्राम विकास का कार्य करेगा। इस प्रकार गांव के लोगों को लगता है कि जो कुछ करना है वह संस्थाएं करेंगी, उद्योगपति करेंगे, सरकार करेगी। हमें कुछ नहीं करना है। इस प्रकार की मानसिकता के कारण कई विकसित गांव भी अविकसित हो जाते हैं। हमें गांव के लोगों में यह परिवर्तन लाना है कि हमें ही अपने गांव के अंदर परिवर्तन लाना है। संघ की ग्राम विकास योजना में ग्राम के लोग ही अपनी आवश्यकताएं तय करेंगे। प्रश्नों का समाधान ढूढ़ेंगे और स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करेंगे। उसमें जो भी सहायता लगेगी वो हम लोग लाएंगे। यह संघ का एक भिन्न प्रकार का दृष्टिकोण है। यही दृष्टिकोण जयप्रकाश नारायण जी और महात्मा गांधी जी का था। ग्राम स्वराज्य की कल्पना में यही बातें थीं।
आचार्य विनोबा भावे ने भी यही बात कही। नानाजी देशमुख ने इसी दिशा में कार्य किया। मुझे लगता है कि इन महापुरुषों ने ग्राम के विषय में जो सोचा था कि ग्राम स्वावलम्बी बनेंगे, आत्मनिर्भर बनेंगे और कई प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हुए ग्राम विकास का कार्य करेंगे। इसी भाव को लेकर संघ ने ग्राम विकास के क्षेत्र में प्रवेश किया।
आपने जैसा कहा कि लोग सरकार और सामाजिक संस्थाओं पर आश्रित हो गए हैं। ग्राम स्वावलम्बन की दृष्टि से जन जागरण के लिए आप लोग क्या प्रयास कर रहे हैं?
इस भाव के जागरण के लिए हमने सबके सामने एक नारा रखा है कि, हमारा ग्राम हमारा तीर्थ। यही हमारा तीर्थ है जो भाग्य से हम सबको मिल गया है। परंतु इसे ठीक रखना हमारी जिम्मेदारी है क्योंकि हम इसे अपना तीर्थ क्षेत्र मानते हैं। तीर्थ क्षेत्र की भावना के तहत वहां गंदगी न होने पाए, यह हमारा काम है। जब यह काम सरकार का हो जाता है तो लोग इसके बारे में निष्क्रिय हो जाते हैं तथा नई समस्याएं खड़ी करते हैं। उदाहरण के तौर पर सरकार ने गांव-गांव में बस स्टैंड बनवाए हैं। उनमें बेंच नहीं हैं, कुर्सियां टूटी हुई हैं, छत गायब है। यह सब बाहर के लोग नहीं कर रहे हैं, गांव के लोग ही हैं। इसलिए हम जाग्रत करते हैं कि अगर कुछ मिला है तो सम्भालना आपका काम है। यदि किसी गांव का प्रधानाध्यापक अच्छे स्वभाव का रहा तो वह गांव वालों के साथ मिलकर वहां बगीचा बनाएगा, पेड़-पौधे लगाएगा। गांव के लोगों के सहयोग से फर्नीचर की कमियां पूरी करेगा। एक बार अगर सरकार ने हमें बनाकर दिया है तो उसे सम्भालना हमारा काम है। कई रास्तों पर कांटे हैं। बबूल के पेड़ हैं। कोई काटता नहीं है उन्हें। आप अगर किसान हैं तो यह आपका काम है, पर आप कम्प्लेन्ट करेंगे। विद्यालय में अगर शिक्षक नहीं आ रहे हैं तो आपका काम है कि उस पर ध्यान दें। शिक्षक से मित्रता करिए। यदि आपलोग उदासीन हो कि इस काम के लिए शिक्षक को पगार मिल रही है तो वह भी उदासीन रहता है। जब तक हम स्वयं सक्रिय नहीं होंगे तब तक इस पर कार्य नहीं हो सकता है। हम ग्राम विकास की कल्पना में इन बातों को लोगों के सामने रखते हैं।
आज ग्राम या गांव की बात की जाती है तो उसे पिछड़ेपन की निशानी माना जाता है। इस भ्रम को शहरी लोगों की मानसिकता से निकालने के लिए क्या कर रहे हैं?
शहरी लोगों की मानसिकता का एक कारण हैं। शहरों ने कभी ग्राम की समस्या को समझा ही नहीं, अनुभव ही नहीं किया। इसलिए उनको इससे सम्बंधित छोटी-छोटी बातों का महत्व ही नहीं पता। इसके लिए हमने एक अभियान चलाया है। हम सभी शहरों में गांव से ही आए हैं। इसलिए यहां रहकर गांव के लिए कुछ न कुछ करो। गांवों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। लगभग सभी लोग साल में एक दो बार वहां जाते रहते हैं। हर गांव के दो-चार लोग किसी न किसी बड़े शहर में रहते हैं। वे लोग एक साथ मिलकर कार्य कर सकते हैं। आपके गांव की कमियां हैं तो उन्हें दूर करने की पहल आपको ही करनी चाहिए। हम यह भी सिखाते हैं। मुंबई में अकसर देखता हूं कि बगीचे में अलग-अलग ग्रुप बैठे रहते हैं। पहले मुझे मालूम नहीं था तो मैंने पूछा। उन्होंने बताया कि वे एक ही गांव के लोग हैं। वो लोग वहां क्या करते हैं! गांव का उत्सव कब है, मंदिर का कार्यक्रम कब है? वहां बैठकर उसकी चर्चा करते हैं। मैंने कहा कि, ग्राम की समस्या क्या है, इसकी चर्चा करना भी आरम्भ करना चाहिए। हमने यह मानते हैं कि, ग्राम असुविधाओं में क्यों रहे? ग्राम में भी सुविधा होनी चाहिए। इसलिए हमने एक प्रयोग चलाया कि, शरीर भले शहरी हो लेकिन आत्मा ग्राम की रहनी चाहिए। ग्राम की आत्मा का क्या अर्थ है? छोटे ग्राम में लोग एक दूसरे का पहचानते हैं। एक दूसरे की कठिनाइयों में दौड़कर जाते हैं। यह गांव की आत्मा है। इसको हम बल दें और शहर के लोग अपने गांवों को ठीक करने के लिए जो भी प्रयोग कर सकते हैं, करें। आप सुविधाओं में रहते हैं तो उन्हें भी सुविधाओं में रहना चाहिए। आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी अब जंगल में नहीं जाएगी। पानी भरकर नहीं लाएगी। उसे नल चाहिए। उसे गांव में जाने के लिए वाहन सुविधा भी चाहिए, वह पैदल नहीं जाएगा। बोलो कि जंगल में जाओ तो नहीं जाएंगे। नई पीढ़ी को अगर गांव में रोकना है तो गांव का शरीर शहर जैसा बनना चाहिए।
स्वावलम्बी गांव, जिसकी संकल्पना नानाजी देशमुख और विनोबा भावे ने की थी, आज के समय में कैसी होनी चाहिए? अर्थात् आज के गांव का स्वरूप क्या हो?
आज के बदलते परिदृश्य के बावजूद गांव में आय का सबसे प्रमुख साधन कृषि ही है। हम चाहते हैं कि गांवों के कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि होनी चाहिए। थोड़ा कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति खेती में भले जाए पर उसी किसान का पढ़ा-लिखा बेटा मूल्य वृद्धि की वजह से जाएगा, प्रोसेसिंग प्रक्रिया के तहत जाएगा। वर्तमान में जो पैसा मिल रहा है उससे डेढ़-दो गुना पैसा उसी मार्ग से मिल सकेगा। तो नई पीढ़ी में सामूहिक स्तर पर अथवा क्षेत्र बड़ा है तो व्यक्तिगत तौर पर ऐसी प्रोसेसिंग होनी चाहिए। एक गांव अकेले स्वावलम्बी नहीं हो सकता। इसलिए हम चाहते हैं कि पांच-दस गावों का एक समूह बनाएं और उन गावों की जो आवश्यकताएं हैं उन्हें पूरा करने वाले केंद्र विकसित करवाएं, तो हो पाएगा। एक उदाहरण लेते हैं। सामान्यतः पांच या दस गांवों के एक समूह में लगभग हजार परिवार रहते हैं। उन हजार परिवारों के लोग अपनी दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं शहर से खरीदते हैं। उन उत्पादों को वहां बनाने की व्यवस्था की जा सकती है। बड़ी-बड़ी इंडस्ट्री नहीं बनेगी पर छोटी-छोटी चीजें बन सकती हैं। अगर फर्नीचर बनाना हो तो उसकी व्यवस्था हो सकती है। आज भी लकड़ी के फर्नीचर का जमाना गया नहीं है। मटके तो हम खरीदते ही हैं। आज की नई तकनीक से कुम्हार अपना काम कर सकते हैं। उन दस गावों में दो अच्छे टेलर होने चाहिए। लोग कपड़े सिलवाने के लिए शहर क्यों जाएं? ऐसी चीजों से शुरुआत करनी चाहिए। कृषि व्यवस्था में मूल्य वृद्धि तथा आधुनिक तंत्र व्यवस्था से दस गावों का क्लस्टर आत्मनिर्भर बनेगा। हर गांव आत्मनिर्भर नहीं बनेगा। पहले भी नहीं था। अपने गांव में बनी हुई चीजें लोग बाजार में लाते थे और साप्ताहिक बाजार में जरूरतमंद लोग खरीदते थे क्योंकि वह वस्तु अपने गांव में नहीं बनती थी लेकिन बगल के गांव में उसका निर्माण होता था। बड़े उद्योगों पर निर्भर न रहकर छोटी पूंजी लगाकर ऐसा कर सकते हैं। उद्योग के लिए दो शब्द उपयोग किए जाते हैं। बड़े उद्योग और लघु उद्योग। हम उससे भी छोटे स्तर पर ग्रामोद्योग की बात करते हैं। कुटीर उद्योग को बढ़ावा मिलना चाहिए। अगर सरकार इस दिशा में गम्भीरता से सोचती है तो आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा जा सकता है। इस प्रकार की शिक्षा नीति भी लानी पड़ेगी। शिक्षा में नई चीजें जोड़नी पड़ेंगी जिससे आधुनिक साधनों के साथ आत्मनिर्भरता लाई जा सके। अब प्राचीन साधन नहीं चलेंगे। वर्तमान में भी बहुत सारी चीजें हमें बाजार से खरीदनी ही पड़ेंगी पर सामान्य चीजें खरीदने के लिए बाजार क्यों जाएं? दूसरे एक विषय में भी हम प्रयास कर रहे हैं कि शहरों की कौन सी आवश्यकता हम ग्राम से पूरी कर सकते हैं। उसकी भी एक सूची बनाई गई है। महाराष्ट्र में मुंबई के पास एक सफल प्रयोग हुआ है। हमने पालघर जिले के गांवों की महिलाओं को राखी बनाना सिखाया है। हर महिला ने दो-ढाई महीने काम किया और उन्हें दस-पंद्रह हजार रुपए मिले हैं। यह शहरों की आवश्यकता है। ग्रामीण के लिए कोई बहुत बड़ी टेक्नोलॉजी नहीं लगने वाली है। बड़ी पूंजी नहीं लगने वाली है। इस प्रकार का तालमेल शहर और ग्राम के बीच होना चाहिए।
अभी आपने जैसा कहा कि वहां पर भी पुरानी की बजाय आधुनिक चीजें होंगी तो तकनीक और मशीनों के प्रयोग का गांवों के स्वावलम्बन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। ऐसी कौन सी चीजों के इंप्लीमेंटेशन पर ध्यान दे रहे हैं?
जैसा मैंने पहले कहा न! अभी तो तकनीक को लेकर नकारात्मक भाव है परंतु उसे सकारात्मकता की दिशा में ले जा सकते हैं। इसलिए मैंने कहा कि छोटी मशीनरी का इस्तेमाल कर कम ऊर्जा में भी काम कर सकते हैं। ज्यादा जगह की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। ऐसे उद्योगों को सूचीबद्ध करने और उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। तकनीकी विरोधी होने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि तकनीकके के कारण हमेशा परिष्कार होता ही रहता है, आधुनिकता आती रहती है। आधुनिकता गांवों तक पहुंचनी चाहिए। प्रश्न यह है कि पुरानी पद्धति से करना है या आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। मैं समझता हूं कि हम आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में जाएंगे तो अच्छा होगा। मुझे लगता है कि तकनीक और ग्राम विकास के बीच परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए।
गांवों के स्वावलम्बी होने से भारत पर क्या सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा?
भारत पर अच्छा ही प्रभाव पड़ेगा। मुझे इसमें कुछ नकारात्मक दिखता नहीं है। आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र का केंद्रीकरण हो रहा है। जाहिर है जनता का भी। मुंबई में देश का तीस प्रतिशत उद्योग है तो देश का तीस प्रतिशत लेबर यहां आने वाला है। शहर बढ़ते जा रहे हैं। इनको मैनेज करना मुश्किल हो रहा है। अगर विकेंद्रित व्यवस्था के साथ उद्योग चलेंगे तो कई प्रकार के उत्पादन खर्चे भी कम पड़ेंगे। उत्पादनों में विविधता भी बढ़ेगी। मुझे लगता है कि भारत का मोनोटॉनस स्वभाव ही नहीं है। उसमें विविधता है और उस विविधता को कभी केंद्रित नहीं कर सकते हैं। असम का गमछा असम में ही बने। केरल की लुंगी केरल में ही बननी चाहिए। अगर हम यह सब सूरत और अहमदाबाद में बनाते हैं तो क्या होगा? ढुलाई का खर्च बढ़ेगा विविधता का स्वरूप बनाए रखना है। भारत की यही पहचान है। भारत कभी एक जैसा नहीं है। हम भारत को एक जैसा बनाना भी नहीं चाहते हैं। अगर आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी गांव बनते हैं तो अच्छा ही परिणाम निकलेगा।
जैसा कि आपने कहा कि इतिहास और संस्कृति में हमारा स्व अभी जाग्रत है। भारत को विश्वगुरु बनने की दिशा में आगे बढ़ते समय और कौन-कौन से आयाम जाग्रत हों, जिससे विश्वगुरु बनने की दिशा में आगे बढ़ सकें?
मैं कुछेक बातें बताना चाहूंगा। एक तो भारत की जो पर्यावरण केंद्रित जीवन शैली है, उसके अनुसार हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाते हुए चलने की आवश्यकता है। वर्तमान चकाचौंध में हम प्रकृति के साथ स्पर्धा करने में लग गए हैं। भारत इस दिशा में विश्वगुरु बनेगा कि प्रकृति के साथ स्पर्धा भी नहीं, और संघर्ष भी नहीं। हमें समन्वय करके चलना पड़ेगा। यह भारत दुनिया को सिखाएगा। दूसरा है कि आधुनिकता में जाने के परिणामस्वरूप हमने कई प्रकार के संकटों को खरीदा है। एक समय था कि सम्पूर्ण विश्व में जैविक कृषि हुआ करती थी। रासायनिक खाद के दुष्परिणाम हम सबके सामने हैं। एक बार फिर भारत जैविक कृषि और गो आधारित कृषि की ओर बढ़ रहा है। विश्व के अन्य देशों के प्रामाणिक वैज्ञानिक, जैसे कि ब्राजील के, भी कह रहे हैं कि रासायनिक कृषि ने बहुत नुकसान किया है। भूमि की फर्टिलिटी समाप्त हो गई है तथा पानी विषैला हो गया है। अन्न विषाक्त होने के कारण कई प्रकार की बीमारियां बढ़ गई हैं। अगर पूरे विश्व को इससे मुक्त करना है तो सबको भारतीय कृषि पद्धति पर चलना होगा। तीसरा है विज्ञान का उपयोग। विज्ञान की अपनी शक्ति है। उसका उपयोग होता है और दुरुपयोग भी। उदाहरण के लिए बम बनता है। उसका ऊर्जा के लिए उपयोग है और विनाश के लिए भी। हाइड्रोजन बम बनाकर हिरोशिमा पर गिराया गया। उसमें भी तो ऊर्जा थी। ऊर्जा ने अपना काम किया। इस ऊर्जा के लिए वैज्ञानिक सकारात्मक दिशा में सोचें और उसका उपयोग मानव जाति के हित में करने के प्रति विचार करें। यह दृष्टिकोण केवल भारत दे सकता है। विश्वगुुरु बनने का मतलब यह नहीं कि हम सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। विश्व का साम्राज्य हमारे हाथ में रहे, ऐसी कोई इच्छा नहीं है। प्रकृति के साथ समन्वय आवश्यक है। जीवन के मूल्यों का पालन आवश्यक है, वरना मनुष्य पशु बन जाएगा। मनुष्य अगर मनुष्य बना रहना चाहता है तो उसे भारत की पद्धति को अपनाना पड़ेगा।
समाज में निरंतर कुछ न कुछ प्रयोग करते रहना पड़ता है नहीं तो समाज विचलित अवस्था में चला जाता है। भारत का स्व हमेशा जाग्रत रहे उसके लिए निरंतर क्या प्रयोग कर रहे हैं?
एक तो शिक्षा है। दूसरी अपने यहां की कुटुम्ब व्यवस्था है। विद्यालय में औपचारिक शिक्षा प्राप्त होती है। जीवन शिक्षा परिवार में प्राप्त होती है। एक बार फिर परिवार इस भाव जागरण के केंद्र बनने चाहिए। हमारे मंदिर केवल पूजा-पाठ के केंद्र न बनें, बल्कि जन जागरण के केंद्र भी बनें। इसलिए मंदिर, विद्यालय और घर इन तीनों को सही दिशा में चलने के लिए मार्गदर्शन की आवश्यकता है। इस प्रकार के प्रशिक्षण की भी आवश्यकता है। इस प्रकार का जनमानस बने, इसकी भी आवश्यकता है। पश्चिम की चकाचौंध और आकर्षण से भारत कैसे बचे, हमारे सामने यह भी एक चुनौती है। इसका एक मार्ग यह है कि संस्कारों की ओर क्रमण अधिक प्रभावी होना चाहिए। बाह्य संस्कार बहुत आसान है लेकिन आंतरिक शुद्धता के संस्कार के लिए सटीक और सार्थक व्यवस्था होनी चाहिए। एक ही तरीका है कि अच्छे संस्कार मिलें, शिक्षा मिले। सुसंस्कारित शिक्षा मिलनी चाहिए जिससे अच्छे मानव बनें। इसकी दिशा में सभी विद्यालयों, मंदिरों, कुटुम्बों, सामाजिक जाति-बिरादरी की संस्थाओं को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।