संस्कृति: बहती धारा हो, रुका पानी नहीं

संस्कृति ही राष्ट्र की पहचान होती है। उसकी विशालता, प्राचीनता और नवीनता के प्रति आग्रह ही उसे महान बनाती है। भारतीय संस्कृति में ये सभी गुण विद्यमान हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति ने तमाम विदेशी संस्कृतियों को अपने में समेटने के साथ ही साथ ज्यादातर बाहरी संस्कृतियों पर व्यापक प्रभाव भी डाला है।

 

जो संस्कृति अभी तक दुर्जेय सी बनी है।

जिसका विशाल मंदिर आदर्श का धनी है॥

उसकी विजय ध्वजा ले हम विश्व में चलेंगे।

संस्कृति सुरभि पवन बन हर कुंज में बहेंगे॥

इन चारों पंक्तियों का भावार्थ भारतीय संस्कृति पर और उसको संवाहित करने वाले सभी भारतीयों पर सटीक बैठता है। भारतीय संस्कृति सनातन है। इतने वर्षों तक वह दुर्जेय बनी रही क्योंकि उसने कभी अपनी जड़ों को नहीं छोड़ा। उसकी नींव में हमेशा उसके आदर्श रहे। इन आदर्शों की नींव पर ही आज की भारतीय संस्कृति का मंदिर खड़ा है, जिसके दर्शन को समस्त वैश्विक सभ्यता लालायित है।

आयाम 

संस्कृति शब्द जितना छोटा है उसके आयाम उतने ही विस्तारित हैं। भारतीय संस्कृति किसी किताब में लिखा कोई नियम या कानून नहीं है, जिसे कुछ लोगों ने सालों पहले बनाया हो और आज तक लोग उसका पालन कर रहे हों। भारतीय संस्कृति वह प्रक्रिया है जो नियमित रूप से अपने आप में परिवर्तन करके स्वयं को समृद्ध करती रही है। वह उस बहती नदी की तरह है जिसमें अन्य प्रवाह भी मिलते गए। कहीं वे प्रवाह नदी से अधिक प्रभावी हो जाते हैं और कहीं नदी में ही समा जाते हैं।

भारत का भौगोलिक विस्तार देखते हुए यहां की संस्कृति को किसी एक सांचे में बांधना वैसे भी बहुत कठिन है क्योंकि जहां केवल चार कोस पर बानी अर्थात भाषा बदलती हो, वहां संस्कृति में विविधता होना लाजमी ही है। अगर कोई सोचे कि संस्कृति किन-किन शब्दों से पारिभाषित होती है तो उसके समक्ष सूर्य रश्मियों की तरह हजार चीजें बिखर जाएंगी। संस्कृति अर्थात भाषा, संस्कृति अर्थात दिनचर्या, संस्कृति अर्थात ॠतुकाल, संस्कृति अर्थात पहनावा, संस्कृति अर्थात खान-पान, संस्कृति अर्थात लोकगीत-लोकवाद्य, संस्कृति अर्थात स्थानीय इतिहास, संस्कृति अर्थात मनोरंजन के माध्यम, संस्कृति अर्थात खेल और सबसे महत्वपूर्ण संस्कृति अर्थात अध्यात्म और धर्म में विश्वास। ऐसा कोई भी बिंदु जो मानवीय जीवन और संवेदनाओं से सम्बद्ध हो, संस्कृति के अंतर्गत ही आता है।

विविधता

इन सभी मापदंडों पर अगर भारत की संस्कृति का विश्लेषण किया जाए तो उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक के सभी राज्यों की विविधता का आंकलन करना होगा। अगर केवल पहनावे को ही देखें तो उत्तर भारत में ऊनी कपड़ों का चलन है क्योंकि वहां हड्डियां गला देने वाली सर्दी होती है और दक्षिण भारत में सूती और सिल्क कपड़ों का चलन है क्योंकि वहां गर्मी अधिक होती है। जिन राज्यों की सीमाएं समुद्र से लगी हों वहां का पहनावा अलग होता है और पठारी भागों का अलग। भाषा की विविधता तो हम सभी को ज्ञात ही है। उत्सव-परम्पराओं की तिथियां तो पंचांग के अनुसार समान ही होती हैं पर उन्हें मनाने का तरीका अलग-अलग होता है। यहां किसी का प्रमुख खाद्य चावल है, तो किसी का गेंहू तो किसी का मांसाहार। कोई गणपति पूजक है, कोई वैष्णव है, कोई शैव है तो कोई शाक्त अर्थात शक्ति का उपासक है। कोई भांगड़ा करता है, कोई कथकली तो कोई रामलीला-रासलीला। कोई घटम बजाता है, कोई तुतारी तो कोई ढोल। कहीं साहित्य देवनागरी में रचा जाता है, कहीं गुरुमुखी में तो कहीं ब्राह्मी की उपशाखाओं में। कुल मिलाकर विविधता इस देश की संस्कृति की जान है। यह विविधता ही सभी प्रांतों का गौरव है और उनकी अस्मिता भी।

आत्मीय  सम्बंध

इतनी विविधता के बाद भी भारत की संस्कृति दुर्जेय बनी रही क्योंकि यह विविधता तो शरीर पर ओढ़ाए गए कपड़ों की भांति है जो परिवर्तनशील हैं, उन्हें जब चाहे बदला जा सकता है, परंतु शरीर के अंदर जो आत्मा है वह अपरिवर्तनशील है। वह जब निकल जाती है तो शरीर में कुछ नहीं बचता। भारतीय संस्कृति की आत्मा है हमारे आदर्श, हमारी मान्यताएं, हमारी परम्पराएं, हमारा विश्वास। ये आदर्श पूर्व से पश्चिम तक उत्तर से दक्षिण तक सारे भारत में समान हैं।

भारत का हर नागरिक अपने बच्चे को अच्छे संस्कार देना चाहता है, उसे अच्छा व्यक्ति, अच्छा नागरिक बनाना चाहता है, अत: ‘अतिथि देवो भव’ हमें बचपन से सिखाया जाता है। बड़ों के पैर छूकर उनका आशिर्वाद लेना हर भारतवासी का संस्कार है चाहे कोई प्रणाम कहे, चाहे जुल्लै कहे, चाहे पैरी पोना या वणक्कम, भाव वही हैं। आज भी हमारा विवाह संस्था और कुटुम्ब व्यवस्था पर पहले जितना ही विश्वास है। आज भी एक परिवार में तीन पीढ़ियों को एक साथ देखा जाता है। माता-पिता अपने बच्चे को शिक्षित करने से लेकर उसे अपने पैरों पर खड़े करके उसके बच्चों तक का पालन-पोषण करने की जिम्मेदारी उठाते हैं। इस रिश्ते में कोई जोर-जबरदस्ती नहीं होती अपितु यह मधुर भाव होता है कि ‘सूद मूल से प्यारा होता है।’ नाती-पोतों के सबसे अच्छे दोस्त दादा दादी ही होते हैं। बच्चों को भी अपने माता-पिता के लिए कोई ‘डे’ मनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे जीवन के हर पल को उनके साथ मनाते हैं। अलग व्यक्तियों के अलग स्वभाव होने के कारण कुछ नाराजगी जरूर होती है, परंतु कुटुम्ब के द्वारा सभी को संभाल लिया जाता है। यही कुटुम्ब व्यवस्था भारतीय समाज के मजबूत तानेबाने की रीढ़ की हड्डी है क्योंकि संस्कार और संस्कृति इसी से अगली पीढ़ी तक पहुंचती है।

एक कुटुम्ब की दिनचर्या में जो भी शामिल होता है, उस कुटुम्ब के द्वारा जिस प्रकार उत्सव त्यौहार मनाए जाते हैं, जिस प्रकार पूजा- आराधना की जाती है, जैसा भोजन किया जाता है अमूमन वैसा ही उसकी अगली पीढ़ी करती है। कई बार चार महिलाएं जब एक साथ बैठती हैं तो उनकी बातों का विषय ‘हमारे यहां ऐसा होता है…’ ही होता है। यह जो ‘हमारे यहां’ वाली बात होती है असल में वही संस्कृति है, जो कहीं लिखित स्वरूप में नहीं है, बस पीढ़ियों से चली आ रही है।

परिवर्तन 

काल के प्रवाह में जहां सब कुछ परिवर्तित होता है, हुआ है, वहां संस्कृति भी परिवर्तित हुई है और आगे होती भी रहेगी। संस्कृति परिवर्तन के कारक भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। भारत में विदेशियों का आक्रमण सबसे बड़ा कारक रहा जिसने भारत की संस्कृति को अपने तरीके से बदलना चाहा। परंतु चूंकि भारतीय संस्कृति प्रवाही रही है अत: ये आक्रांता अपने साथ जो उनकी संस्कृति लाए थे, वह भी भारत में रच-बस गई। आज कौन ये जानता है कि गेहूं, आलू और सेब जैसी वस्तुएं भारत में नहीं हुआ करती थी। ये बाहर से आई हैं। पैजामा, पतलून, सलवार-कुर्ता भी बाहरी हैं। यह तो सभी मानेंगे कि जाने-अनजाने हम बहुत सारे फारसी-अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह सब कुछ भारतीय संस्कृति के प्रवाह में शामिल होता चला गया।

स्वतंत्रता के समय जो पीढ़ी थी उसने इन बाहर से आई संस्कृतियों को अपने यहां से हटाने की कोशिश नहीं की। उसके भी दो कारण थे कि भारत की मूल संस्कृति ही सर्वधर्म समभाव वाले रही है और दूसरी बात उस समय भारत के सामने मूल संस्कृति को अमिश्रित रखने से अधिक बड़ी चुनौती थी स्वतंत्र भारत को पुन: तात्कालिक विश्व के साथ भगाने की, क्योंकि तब तक दुनिया बहुत आगे निकल चुकी थी।

परतंत्रता के बाद भारतीय संस्कृति में परिवर्तन का बड़ा कारक रहा वैश्वीकरण। वैश्वीकरण ने भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया को अपने अंदर समेट लिया था। सम्पूर्ण विश्व एक गांव की तरह हो गया था। भारत के कई लोग काम के लिए भारत के बाहर जाने लगे। वे जाते-जाते भारत की संस्कृति को वहां ले गए तो कुछ लोगों के साथ अन्य देशों की संस्कृतियां भारत में आ गईं। भारतीय स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ-साथ चायनीज-कांटिनेंटल खाना आम हो गया। शादियों में पंगत की जगह ‘बुफे सिस्टम’ ने ले ली। ये भी आज की मॉडर्न लाइफ स्टाइल का हिस्सा हो चुका है।

इसके बाद का सबसे बड़ा कारण है तकनीक और कोरोना। इन दोनों ने भारत की तो क्या दुनिया भर की संस्कृतियों की जड़ें हिला दी थीं। चूंकि संस्कृति का सीधा सम्बंध इंसानों से ही है और इन दोनों ने इंसानों के बीच ही दूरियां बढ़ा दी हैं। कोरोना ने सभी को घरों में बंद कर दिया था और तकनीक ने मोबाइल में। उत्सवप्रिय भारतीय समाज अगर इस प्रकार कैद हो गया तो भारतीय संस्कृति क्या होगा यह प्रश्न चिन्ह समाज के प्रबुद्ध वर्ग के सामने खड़ा हो गया था। आने वाली पीढ़ी ने अगर ‘हमारे’ संस्कारों को आगे नहीं बढ़ाया तो हमारी संस्कृति को कौन बचाएगा, यह विचार पुरानी पीढ़ी को खाए जा रहा था, परंतु जिस तरह सरकार के द्वारा कोरोना से सम्बंधित पाबंदियों को हटाते ही लोगों ने दोबारा उत्सव मनाने शुरू किए हैं, उससे यह चिंताएं मिटती हुई दिखाई दे रही हैं।  सावन के त्यौहार हों, सार्वजनिक गणेश उत्सव हो या नवरात्रि, लोग अपने घर और मोबाइल से बाहर निकलकर आए ही और उन्होंने त्यौहार मनाए ही। बाहर रहने वाले लोगों को टेक्नॉलॉजी के प्रयोग से भगवान और लड्डू-मोदक दोनों के दर्शन भी कराए गए और खूब चिढ़ाया भी गया। नवरात्रि के कपड़े-गहने भले ही ऑनलाइन ऑर्डर किए गए हों परंतु उसे पहनकर कोई अपने घर में बैठा नहीं रहा।

अपेक्षा 

जैसा कि लेख के शुरुआत में ही कहा था कि इतने बड़े आघातों के बाद भी संस्कृति मिटी नहीं क्योंकि यह प्रवाही रही। कुछ परिर्वतनों को अपने में मिलाकर और कुछ को हटाकर यह बहती रही। इसे अब तक प्रवाही रखने का काम जिन पीढ़ियों ने किया है उनकी आनेवाली पीढ़ी से निश्चित ही यह अपेक्षा होगी कि वह भी इसे प्रवाही बनाए रखें। समयाभाव, वैश्वीकरण, तकनीक आदि को अड़चनें न समझकर साधन समझें और अपनी संस्कृति को आगे प्रवाहित करते रहें। जगह की कमी और अन्य कारणों से आजकल परिवार छोटे हो रहे हैं। परंतु कुछ विशेष अवसरों पर अगर सब साथ मिलकर समय बिताएं और अपनी परम्पराओं को निभाएं तो निश्चित ही यह अगली पीढ़ियों तक पहुंचेंगी।

मुद्दा फिर वही है कि हमें आवरणों पर ध्यान देने की जगह  संस्कृति की आत्मा पर ध्यान देने की आवश्यकता है। जिस प्रकार भोजन, वस्त्र और आस-पास का माहौल शरीर पर निश्चित रूप से असर डालता है उसी प्रकार भोजन, वस्त्र, उत्सव परम्पराओं को मनाने का तरीका भी हमारी संस्कृति पर दुष्प्रभाव डालेगा ही। परंतु उससे भी अधिक दुष्प्रभाव पड़ेगा जब हम अपनी संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह खड़े करेंगे, उसे अवैज्ञानिक मानकर उसका तिरस्कार करने लगेंगे और तथाकथित प्रगतिशील बनने की अंधी दौड़ में अपनी ही जड़ों को काटने की कोशिश करने लगेंगे।

अपनी संस्कृति पर हमारा विश्वास ही अभी तक हमें तारता आया है। इसी विश्वास के आधार पर उसकी वैज्ञानिकता और आवश्यकता कोे तटस्थता के साथ पुन: सामयिक मानदंडों पर नापे जाने की और पुनर्प्रतिपादित करने की आवश्यकता है। जब-जब हम ऐसा कर पाए तब-तब विश्व ने भारत से कुछ नया पाया है चाहे वह विश्व योग दिवस हो, कोरोना पर असरकारक आयुर्वेदिक औषधि या वैक्सीन हो, पर्यावरण पर हमारे विचार हों या फिर विश्व बंधुत्व का आधार रखकर युद्ध समाप्त करने की दी गई सलाह हो। हमने जब-जब अपनी आंतरिक शक्ति पर विश्वास किया है तब-तब हमारी संस्कृति दुर्जेय रही और उसकी विजय ध्वजा पूरे विश्व में फैली और उसकी सुरभि ने सभी को सम्मोहित भी किया।

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