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दिग्भ्रमित ना हो भाजपा

दिग्भ्रमित ना हो भाजपा

by रमण रावल
in राजनीति, विशेष, सामाजिक, सांस्कुतिक भारत दीपावली विशेषांक नवंबर-2022
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भाजपा ने उन सारे वादों को पूरा किया या पूरा करने की दिशा में अग्रसर है, जिनका उल्लेख उनके नेताओं ने अपने भाषणों या घोषणापत्र में किया था। परंतु देश विरोधी ताकतें और विपक्ष के नेता हमेशा अफवाह फैलाते रहते हैं कि भाजपा अपने लक्ष्य से दूर हो गई है, जबकि वास्तविकता यह है कि विपक्षियों की सत्ता लोलुपता ने ही उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है।

नातन मूल्यों की पुनर्स्थापना, राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक चेतना, देशभक्ति, स्वदेशी, आत्म निर्भर भारत, राम मंदिर, समान नागरिकता कानून, जनसंख्या नियंत्रण कानून, कश्मीर से धारा 370 को हटाने जैसे मामलों की जब भी बात आती है तो भारतीय जनता पार्टी की वचनबद्धता से उसे जोड़कर देखा जाने लगता है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। भारतीय जनसंघ की स्थापना जिन उद्देश्यों के साथ की गई थी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने जिस सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक राष्ट्रवा्द, अंत्योदय की पैरवी की थी, उनमें भी ये सारे भाव विद्यमान थे, इसमें भी संदेह नहीं। ऐसे में जब 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार पदारूढ़ हुई तो इन तमाम मसलों पर मौके-बेमौके बात होने लगी। कुछ मंचों पर इन दिनों जोर-शोर से इस तरह की बातें कही जाने लगी हैं कि भाजपा अपनी राह से भटक रही है या वचनबद्धता से पीछे हट रही है। क्या वाकई ऐसा ही है? इसे मान लेना जल्दबाजी कहलायेगी। जब भी किसी व्यक्ति या संस्था के क्रियाकलापों की बात और उसे महज चंद मसलों तक सीमित कर देखा जाये तो परिणाम आधे-अधूरे नजर आयेंगे। सच तो यह है कि एक राष्ट्र के तौर पर भाजपा की जो कल्पना है, वह एक कल्याणकारी राज्य की प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर की गई है। नरेंद्र मोदी सरकार इस मायने में अपने मानदंडों और प्राथमिकताओं पर सोलह आने खरी और सच्ची साबित हो रही है। उस पर संदेह करना हड़बड़ी तो है ही, दुष्प्रचार से प्रभावित होकर आकलन करना भी है। ऐसी बहुत सारी शक्तियां अभी-भी देश में सक्रिय हैं, जो भ्रम के काले बादलों को सच की धरती के ऊपर जबरिया धकेलकर अंधेरा छा जाने का दुष्प्रचार कर रही है। ऐसा ही एक मसला भाजपा में आते जा रहे अन्य दलों के नेताओं का भी है। कांग्रेस व अन्य दलों के असंतुष्ट तेजी से भाजपा की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जिससे भाजपा का अपना सांगठनिक ढांचा गड़बड़ाता नजर आता है और उसके मूल कार्यकर्ता के मन में संदेह उभरते दिखते हैं।

भारतीय जनता पार्टी जैसा राष्ट्रवादी दल कभी-भी सीमित व संकोची लक्ष्य लेकर नहीं चला। उसकी स्थापना के समय से ही नीतिकारों, नेतृत्वकर्ताओं के दिल-दिमाग में यह परिकल्पना स्पष्ट रही कि वह राष्ट्र का निर्माण करना चाहती है। उसे भारत का गौरव बहाल करना है। वह सही मायनों में जन कल्याण से जुड़ी योजनाओं के माध्यम से संदेश देना चाहती है कि उसकी सोच समग्र है, उसकी नीतियां संपूर्ण राष्ट्र के लिये है। इससे भी आगे बढ़कर वह वसुधैव कुटुम्कम की भावना से काम करना चाहती है। इसीलिये गौर कीजिये कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक तरफ राष्ट्र की आंतरिक संरचना को मजबूत बनाने के लिये प्राणप्रण से लगे हैं तो समूची दुनिया को जोड़ने, एकजुट करने और भारत की संप्रभुता को अक्षुण्ण रखते हुए विश्व शक्तियों की आंखों में आंखें डालकर बात करने, उन्हें अपने विचारों से प्रभावित करने में भी कसर नहीं छोड़ रहे। तब यह आकलन सही नहीं कहा जा सकता कि भाजपा अपनी राह से भटक रही है।

दरअसल, 2014 के बाद से भारत ने अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिये जो भगीरथ प्रयास किये, उसने विपक्ष की आंखों में मोतियाबिंद पैदा कर दिया है। गैर भाजपाई विपक्ष, वामपंथी विचारक, इतिहासकार, समाचार माध्यमों में बैठे मठाधीश, कॉफी हाउस में बैठकर राष्ट्र चिंतन का दम भरने वाले कथित बुद्धिजीवी, सरकार के जरिये कमीशन, दलाली में लिप्त सफेद कॉलर तबका, एक स्वर से मोदी सरकार और भाजपा की लानत-मलामत का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। वजह इतनी भर है कि अब इनकी चिलम कोई नहीं भर रहा। इन्हें मुफ्त का माल-असबाब नहीं मिल रहा। ये तमाम इनाम-इकराम से वंचित कर दिये गये हैं।वजीफे-अनुदानों पर रोक लगा दी गई है। विदेश यात्रायें नहीं कराई जा रहीं। तो ये झूठ की ऊंची मीनारों की मुंडेरों पर खड़े होकर जोर-जोर से बांग दे रहे हैं कि भाजपा तो वो कर ही नहीं रही, जिसका दावा कर सत्ता् में आई थी। जबकि असलियत तो यह है कि जिस गति से भाजपा सरकार देश में विकास के सोपान तय कर रही है, राष्ट्र का मान-सम्मान बढ़ा रही है, आत्म निर्भरता के ठोस कदम उठा रही है, जनता को आत्म विश्वास और गौरव से परिपूर्ण कर रही है, उसने इसके विरोधी वर्ग को सकते में ला दिया है।

ये तो वे बातें हैं, जिनके लिये आम जनता, विरोधी, मीडिया या कथित बुद्धिजीवी वर्ग कहता है, लेकिन उससे हटकर भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी द्वंदव् चल रहा है। जिसमें प्रमुखता से कहा जा रहा है कि भाजपा अपने मूल उद्देश्यों से भले ही न भटकी हो, किंतु उसका मूल स्वरूप विलुप्त होता जा रहा है। इस वर्ग का साफ तौर पर कहना है कि 2019 के बाद तेजी से भाजपा का कांग्रेसीकरण हो रहा है। इससे आशय यह है कि इन दिनों भाजपा में कांग्रेस समेत अनेक दलों से निकलकर नेता, कार्यकर्ता आये हैं और भाजपा ने इन्हें हाथोहाथ लिया, पदों से नवाजा, ससम्मान स्वागत किया। इससे भाजपा का अपना संगठक वर्ग आहत हुआ, पीछे धकेल दिया गया या स्वेच्छा से कदम पीछे खींच लिये। उसकी वजह यह है कि उसका प्रशिक्षण, संस्कार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जनसंघ, भाजपा से सीधे तौर पर प्राप्त हुए हैं। वे पद-प्रतिष्ठा के लालच या किसी चाहत के वशीभूत भाजपा में नहीं आये थे या आगे भी बने रहने की शर्त नहीं है। जो लोग राष्ट्रवाद की अलख जगाने निकले थे, उन्होंने जो त्याग किये, संघर्ष किया और प्रताड़नायें झेलीं, उन्हें उसका कोई प्रतिसाद नहीं चाहिये, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि जब प्रतिसाद मिलने की बारी आये तो दूसरे लोग इसका फायदा उठा ले जायें और मूल भाजपाई दरी उठाने-बिछाने, जिंदाबाद करने के लिये रह जाये।

इस तरह से भाजपा के कांग्रेसीकरण या सर्व समावेशी स्वरूप के प्रति अब विरोध प्रस्फुटित हो रहा है। कुछ प्रमुख घटनाओं का उल्लेख करें तो पाते हैं कि इस समय देश के 18 राज्यों में भजपा् की सरकारें हैं। इनमें से 4 राज्यों में सीधे तौर पर वे मुख्यमंत्री हैं, जो कभी कांग्रेस के नेता रहे हैं। इनमें प्रमुख नाम असम के हेमंत बिस्व सरमा है। वे 2015 तक कांग्रेस के प्रमुख नेता रहे, लेकिन भाजपा में आकर वे ऐसे रम गये कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत मिलने के बाद सर्वानंद सोनोवाल की बजाय हेमंत सरमा को मुख्यमंत्री बना कर उन्हें कांग्रेस छोड़ने और कांग्रेस को हराने का इनाम दिया गया। यह सही है कि हेमंत सरमा ने सात बरस तक तपस्या की और असम से कांग्रेस को उखाड़ फेकने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मध्यप्रदेश का सत्ता परिवर्तन भी भाजपा के लिये फायदे का सौदा रहा तो यहां के अनेक वरिष्ठ और समर्पित भाजपाइयों के लिये संताप का विषय बन चुका है। जिसकी सुगबुगाहट जब-तब सामने आती रहती है। मार्च 2020 में कांग्रेस से बगावत कर निकले नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के 18 विधायकों के समर्थन से तब एक बार फिर शिवराज सिंह चौहान ने सरकार बना ली थी, लेकिन इसके बाद से भाजपा के भीतरखाने में खदबदाहट मची हुई है। बाद में तीन और विधायकों के इस्तीफे से उप चुनाव हुए थे, जिनमें सभी टिकट इन बागी कांग्रेसियों को ही दिये गये थे। इससे स्थानीय वे नेता बुरी तरह नाराज हो गये थे, जो इनके सामने 2018 का चुनाव हारे थे।

यही कहानी पश्चिम बंगाल में भी दोहराई गई थी, जब तृणमुल कांग्रेस के 34 विधायक भाजपा में आये थे , जिनमें से 13 को भाजपा ने उम्मीदवार तो बना दिया था, किंतु केवल एक ही जीत पाया था। ये लोग तृणमुल का जनाधार रत्ती भर भी नहीं हिला पाये थे। यहां तक हुआ कि इनमें से ज्यदातर तृणमुल में लौट भी गये । इससे बंगाल में दशकों से पहले कम्युनिस्टों, फिर तृणमुल कांग्रेसियों से लोहा ले रहे भाजपा कार्यकर्ता, नेता बुरी तरह आहत और अपमानित महसूस करते रहे। इसी तरह से मणिपुर, गोवा, त्रिपुरा, नागालैंड में भी कांग्रेस व अन्य दलों से आये नेता मंत्री-मुख्यमंत्री पद पा गये और मूल कार्यकर्ता ठगा-सा महसूस करते रहे। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, उप्र के जतिन प्रसाद, आरिफ मोहम्मद खान, असम के मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सरमा् ऐसे प्रमुख नाम हैं, जो अन्य दलों से भाजपा में आये महत्वपूर्ण जिम्मेदारियो को निभाया।

ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले भारतीय राजनीत में कभी वैसा हुआ ही नहीं हो। यह खेल तो पुराना है, किंतु भाजपा के पुराने नेता इसे पचा नहीं पा रहे हैं। उसकी वजह यह है कि जो संघर्ष और तपस्या भाजपाइयों ने की है, वैसी किसी अन्य दल के नेता-कार्यकर्ताओं ने नहीं की। दूसरे दलों से आये नेताओं की राजनीतिक संस्कृति-संस्कार, परिवेश, वैचारिक दृढ़ता, राजनीतिक चेतना, प्रतिबद्धता सब कुछ बेहद भिन्न है। भाजपा के ज्यादातर नेता संघ की शाखाओं में से निकल कर आये ऐसे स्वयं सेवक हैं, जिनके अपने कुछ नीति-नियम हैं, राजनीतिक दर्शन है, संघ, दल और राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता है। इस पुरानी पीढ़ी को आशंका है कि यदि यह सिलसिला जारी रहा और इसकी कोई निश्चित प्रक्रिया नहीं अपनाई गई तो जिस कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना के सहारे भाजपा यहां तक पहुंची है, वह कांग्रेस युक्त भाजपा हो जायेगी, जो न पूरी तरह भाजपा रहेगी न कांग्रेस।

भाजपा का यह अंतरद्वंद्व आसान नहीं है। आगे 2023 में आठ, विधानसभा चुनाव हैं तो 2024 में लोकसभा चुनाव हैं। तब टिकट बंटवारे को लेकर घमासान मचने की पुरजोर आशंका है। यदि यह टसल परवान चढ़ी तो भाजपा को खासा नुकसान हो सकता है। जबकि भाजपा के सामने अपने कुछ ऐसे वचन पूरे करने का दबाव और अपेक्षा है, जिसके बूते वह 2 सीटों से 303 सीट तक पहुंची है। वह यदि राष्ट्रवाद, स्वराज, स्वदेशी, आत्म निर्भर, सक्षम भारत के सपने से विमुख हुई तो उसे मुंह की खानी पड़ेगी। अतीत में कांग्रेस की गलतियों ने भाजपा को उभरने का मौका दिया था, वह इतिहास दोहरा भी सकता है। जो भाजपा को कतई मंजूर नहीं होगा। ऐसे में उसे एक स्पष्ट नीति तो बनानी ही होगी, जिसमें किसी भी दल से आये व्यक्ति के लिये दिशा निर्देश हों कि उसे कब, कैसे दल के भीतर जिम्मेदारियां और सरकार में पद दिये जायेंगे। दुश्मन को परास्त करने के लिये दुश्मन के भेदिये तोड़ना तो रणनीत का हिस्सा होता ही है, किंतु यह भी देखना होता ही है कि जो अपने पुराने मालिक का नहीं हुआ, वह उनका कितना हो सकता है?

भारतीय जनता पार्टी का लक्ष्य यदि कांग्रेस को रसातल में पहुंचाना था, तो वह उसमें काफी हद तक सफल नजर आती है। इसके लिये उसे तात्कालिक तौर पर कुछ समझौते भी करने जरूरी रहे होंगे। लेकिन अपनी खुद की रेखा बड़ी खींच देने के बाद उसे मजबूरी के सौदे करने से बचना चाहिये। साथ ही हर हाल में हर राज्य की सरकार भाजपा की ही रहे, ऐसा पैमाना तय किया गया तो अंतहीन समझौतों की झड़ी लग जायेगी, जो एक दिन भस्मासुरी साबित हो सकता है। यदि भाजपा को अपना मूल स्वरूप कायम रखना है तो उन लोगों की कद्र करना होगा, जिन्होंने जड़ों को सींचा था। अपनों की पूरी उपेक्षा और आगंतुकों का पूरा सम्मान की नीति रखी गई तो नुकसान की संभावना ज्यादा है। आने वाले दो साल देश के लिये, कांग्रेस समेत गैर भाजपा विपक्ष के लिये और भाजपा के लिये भी बेहद महत्व के हैं। इस दौर के राजनीतित फैसले भविष्य की राजनीति का निर्धारण करेंगे और सुनिश्चित करेंगे कि इस देश को नेतृत्व प्रदान करने के लिये कौन सबसे उपयुक्त है।

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