ओटीटी पसंद से कठघरे तक

ओटीटी नाम अब किसी के लिए नया नहीं रहा। मनोरंजन का वर्तमान और भविष्य अभी यही है। इसलिए मनोरंजन जगत से जुड़कर व्यवसाय करनेवाले लोगों और दर्शकों दोनों की यह जिम्मेदारी है कि वे स्वस्थ मनोरंजन का हिस्सा बनें न कि मनोरंजन के माध्यम से चलाए जा रहे अनुचित विमर्शों का।

से तो भारत में ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म की शुरुआत वर्ष 2008 में हुई, जब रिलायंस एंटरटेनमेंट ने भारत में सबसे पहला ओटीटी प्लेटफॉर्म बिगफ्लिक्स शुरू किया परंतु सिनेमा प्रेमियों के बीच जगह बनाने में ओटीटी प्लेटफार्म को एक सदी की प्रतीक्षा करनी पड़ी। भारत में वैश्विक महामारी कोरोना के समय से ओटीटी प्लेटफॉर्म का चलन बढ़ा है। आज अमेजन प्राइम वीडियो, डिज्नी हॉटस्टार, सोनी लिव, जी5, नेटफ्लिक्स, वूट, आल्ट बालाजी और जियो सिनेमा से लेकर कई ओटीटी प्लेटफॉर्म उपलब्ध हैं और देखे जा रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए अमेरिका के बाद भारत दूसरा सबसे बड़ा बाजार है। रिजर्व बैंक साउथ अफ्रीका की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स का दबदबा और भी मजबूत हो जाएगा। लोकप्रिय ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के अलावा स्थानीय प्लेटफॉर्म्स भी अपना स्थान बनाएंगे। ओटीटी का उपभोग क्यों बढ़ रहा है? इस प्रश्न का एक सीधा उत्तर तो यही है कि यह दर्शकों को विविध प्रकार का कंटेंट उनकी सुविधा के अनुसार उपलब्ध करा रहा है। अब मनोरंजन के लिए लोगों को सिनेमाघर जाने के लिए अलग से समय निकालने और खास दिन की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। वह जब चाहे, अपनी पसंद की सामग्री देख सकता है। यानी उसका सिनेमाघर अब उसके हाथ में है।

कोरोनाकाल में जब सिनेमाघर बंद थे, तब मनोरंजन के क्षेत्र में ओटीटी ने एक जगह बना ली थी। ओटीटी को लेकर दर्शकों के क्या अनुभव हैं, ओटीटी क्यों बढ़ रहा है और ओटीटी के बढ़ते चलन से भविष्य में सिनेमाघरों पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? इस तरह के प्रश्नों का उत्तर शोधार्थी मनोज पटेल, राहुल खड़िया और डॉ. गजेन्द्र सिंह अवास्या के शोध ‘अ स्टडी : ओटीटी व्यूअरशिप इन लॉकडाउन एंड व्यूअरर्स डायनेमिक वॉचिंग एक्सपीरियंस’ में मिलते हैं। इस शोध के परिणाम बताते हैं कि दर्शकों को गुणवत्तापूर्ण डिजिटल कंटेंट कम कीमत पर उनकी सुविधा के अनुसार मिल रहा है, इसलिए वे ओटीटी की ओर मुड़ गए हैं। वैश्विक सिने जगत का कंटेंट भी ओटीटी पर उपलब्ध है, जो दर्शकों को सिनेमाघरों में नहीं मिलता। वेबसीरीज के रूप में रोचक कहानियों ने दर्शकों को आकर्षित किया है। ओटीटी ने दर्शकों के मन पर इस तरह का प्रभाव छोड़ा है कि 38 प्रतिशत दर्शक मानते हैं कि लॉकडाउन के बाद जब सिनेमाघर सामान्य रूप से खुलेंगे तो दर्शकों की संख्या घट सकती है। हम देखते हैं कि कोरोनाकाल के बाद बहुत अच्छी फिल्मों को भी मुश्किल से दर्शक मिल रहे हैं और जिस तरह की फिल्में पहले सफल हो जाती थीं, अब वे औंधे मुंह गिर रही हैं। इसके दो कारण हैं- एक, दर्शकों को अच्छा कंटेंट देखने की आदत लग गई है। दो, घिसी-पिटी कहानीवाली फिल्में देखने के लिए सिनेमाघर जाने की अपेक्षा दर्शक उनके ओटीटी पर आने की प्रतीक्षा करते हैं। वहीं, ओटीटी पर लगातार देशज और विदेशी सिनेमा का इतना कंटेंट आ रहा है कि वह सिनेमाघर के बारे में विचार ही नहीं बना पा रहा है।

मुंबई केंद्रित सिनेमा (तथाकथित बॉलीवुड) ने पैसा बनाने के लिए नयी कहानियां रचने की जगह दक्षिण भारत के सिनेमा की अच्छी फिल्मों के साथ ही वहाँ की मसाला फिल्मों के रीमेक बनाने की परंपरा शुरू की। ओटीटी के आने से पहले तक यह धंधा खूब चला लेकिन अब दर्शक दक्षिण भारत की मूल फिल्में पहले ही ओटीटी पर देख लेते हैं, इसलिए बॉलीवुड का यह प्रयोग विफल हो चुका है। इसलिए ही कठपुतली से लेकर विक्रम वेधा तक, रीमेक फिल्में उतनी सफल नहीं हो सकीं, जितनी ओटीटी युग से पहले हो सकती थीं। पिछले कुछ वर्षों में दक्षिण भारत के सिनेमा जगत में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। वहाँ भारतीय आख्यान एवं भारतीय मूल्यों से ओतप्रोत कहानियां रचना शुरू हुआ, जिनका संपूर्ण भारत में स्वागत किया जा रहा है। जबकि तथाकथित बॉलीवुड अब भी ‘शाहरूख खान शैली’ की फिल्में बनाने में फंसा हुआ है। बॉलीवुड दर्शकों की बदलती अभिरूचि को या तो अपने दंभ के कारण अनदेखा कर रहा है या फिर वह नये परिवर्तन को समझ नहीं पा रहा है। जब दर्शकों के पास अनेक अच्छे विकल्प उपलब्ध होंगे, तब वह बॉलीवुड के खूंटे से क्यों बंधा रहेगा? आज भारत का दर्शक ओटीटी पर न केवल भारत के विविध प्रांतों में रचे जा रहे कंटेंट को देख रहा है बल्कि सुदूर कोरियन, इटेलियन, जर्मन और फ्रेंच सिनेमा तक भी उसकी पहुँच हो गई है।

ओटीटी नयी कहानियों के साथ नयी प्रतिभाओं को भी भारत के कोने-कोने से लेकर आया है। ऐसे कई कलाकार आज सिनेमा में स्थापित हो गए, जिन्हें बॉलीवुड का खास गिरोह कभी उभरने नहीं देता। दर्शक बासी हो चुके चेहरों और स्थायित्व पा चुकी उनकी अभिनय कला को छोड़कर नये कलाकारों की ओर आकर्षित हुए हैं। ऐसा नहीं है कि दर्शक तथाकथित बॉलीवुड को ही खारिज कर रहे हैं, बल्कि नेटफ्लिक्स जैसा ओटीटी प्लेटफार्म भी भारतीय दर्शकों को लुभा नहीं पा रहा है। दरअसल, नेटफ्लिक्स के साथ भी वही दिक्कत है, जो बॉलीवुड के साथ है। नेटफ्लिक्स पर भारतीय दर्शकों के लिए जितना कंटेंट उपलब्ध है, उसमें ज्यादातर भारत विरोधी विमर्श का हिस्सा है। भारत का आज का दर्शक पहले की तरह मूक नहीं रह गया है। अब भारतीय मूल्यों पर आघात करनेवाले सिनेमा की न केवल आलोचना की जाती है बल्कि उसका बहिष्कार करने का साहस भी दर्शकों में दिखाई दे रहा है।

सिनेप्रेमियों के बीच अपनी जड़ें जमा रहे ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कुछ सवाल भी उठते हैं, जैसे- यह अश्लीलता फैलाने, भारत विरोधी विमर्श को बढ़ावा देने, हिन्दू और भारतीय मूल्यों पर आघात करने का माध्यम बन गया है। यह आरोप/प्रश्न बेबुनियाद नहीं हैं। सेक्रेड गेम्स, लीला, तांडव, पाताललोक, आश्रम, घोउल, काली और द फैमली मैन जैसी कई वेबसीरीज हैं, जिन्होंने खुलकर और कहीं-कहीं अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दुओं और भारतीय मूल्यों पर सीधा आघात किया है। ‘सेक्रेड गेम्स’ में एक धर्मगुरु को मुंबई पर न्यूक्लियर हमला करने की साजिश करते हुए दिखाया गया है। ‘लीला’ के माध्यम से यह झूठ फैलाने का प्रयास किया है कि आनेवाले समय में भारत में धार्मिक कट्टरता बढ़ जाएगी और लोगों का जीना मुश्किल हो जाएगा। इस वेबसीरीज में भी हिन्दुओं को लक्षित किया गया है। ‘ताडंव’ में राष्ट्रीय विचार की राजनीति को खलनायक की तरह प्रस्तुत करने के साथ ही हिन्दुओं के भगवान महादेव का आपत्तिजनक चित्रण किया गया। ‘पाताललोक’ भी जातीय वैमनस्यता के झूठे नैरेटिव और हिन्दूफोबिया को बढ़ावा देती है। ‘द फैमली मैन’ तो बहुत चतुराई से भारतीय जाँच एजेंसियों की छवि खराब करती है और आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति का वातावरण बनाने की कोशिश करती है। इनके अलावा कई फिल्में एवं वेबसीरीज और भी हैं, जिनका यदि फ्रेम-दर-फ्रेम विश्लेषण किया जाए, तो उक्त आरोप सही ही पाये जाएंगे।

ओटीटी पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होने से यहाँ रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर वह सब दिखाया गया, जिसको भारत का बहुसंख्यक समाज (यहाँ बहुसंख्यक का अर्थ किसी मत-संप्रदाय या धर्म से न होकर, जनसंख्या के अधिकांश भाग से है) स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए जैसे ही समाज ने अनुभूति की कि ओटीटी के माध्यम से अश्लील दृश्य दिखाने की सभी सीमाएं टूट रही हैं, तो उसने न्यायालय में गुहार लगाई। शुरुआती दौर की चर्चित वेबसीरीज सेक्रेड गेम्स में संभोग करते हुए दृश्य खुलेआम दिखाए गए। अन्य वेबसीरीज में भी ऐसे दृश्यों की भरमार रहती है। गालियां तो जैसे प्रत्येक कैरेक्टर के संवाद का अनिवार्य हिस्सा हो गईं। ऑल्ट बालाजी की वेबसीरीज अपहरण-2 में तो गालियों से भरा गाना ही बना दिया। और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि माँ-बहन का अपमान करनेवाली यह गालियां एक महिला कैरेक्टर से ही दिलवाई गई हैं। इस गाने को वेबसीरीज की ‘यूएसपी’ की तरह प्रस्तुत किया गया है और इसे प्रत्येक एपिसोड के आखिर में क्रेडिट लाइन के साथ चलाया जाता है। ऑल्ट बालाजी की अन्य वेबसीरीज भी अश्लीलता के चरम को छूती हैं। जब जाग्रत समाज और दर्शकों ने अश्लील दृश्यों पर आपत्ति लेना शुरू किया तो कुछ हद तक इस पर निर्माताओं ने स्वयं ही पाबंदी लगा ली है। लेकिन अभी भी स्थिति यह है कि ओटीटी प्लेटफार्म पर जारी हो रहीं बहुत-सी वेबसीरीज और फिल्मों को परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता। अश्लीलता और अन्य प्रकार के व्यभिचार को दिखाने के पीछे फिल्मों को सफल बनाने का फार्मूला नहीं है। यदि ऐसा होता तब पंचायत और गुल्लक जैसी वेबसीरीज सफलता के झंडे नहीं फहरा रही होतीं। दर्शक बेडरूम के दृश्य देखना और सड़कछाप गालियां सुनना पसंद नहीं करते, उन्हें तलाश रहती है अच्छी कहानी की और सार्थक सिनेमा की। जब भी सार्थक सिनेमा आया है, उसको दर्शकों का भरपूर प्रेम मिला है। जिन गिने-चुने लोगों को अश्लीलता देखनी है, उनके लिए दूसरे अन्य माध्यम हैं।

ओटीटी प्लेटफार्म के इस प्रकार के कंटेंट को लेकर भारतीय समाज का प्रबुद्ध वर्ग इसलिए अधिक चिंतित है क्योंकि आज हर हाथ में मोबाइल है और ओटीटी का कंटेंट सबसे अधिक इसी मोबाइल फोन की स्क्रीन पर एकांत में देखा जा रहा है। किशोर और युवा अपने मोबाइल फोन पर अकेले में क्या देख रहे हैं और जो देख रहे हैं, उसका उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, अमूमन यह सब समय रहते पता नहीं चलता है। जब पता चलता है, तब बहुत देर हो चुकी होती है। अश्लीलता, हिंसा, ड्रग्स, शराबखोरी, व्यभिचार और अपराध को जिस तरह से परोसा जा रहा है, उससे युवा पीढ़ी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। हिंसक दृश्यों एवं आपराधिक चरित्र को तर्कसंगत और न्यायसंगत दिखाने से युवाओं की संवेदनाएं प्रभावित हो रही हैं। व्यभिचार और नशाखोरी का सामान्यीकरण करके यह सिनेमा कहीं न कहीं इस ओर युवाओं को धकेल रहा है। ऐसे दृश्यों के लिए चेतावनी लिखने की खानापूर्ति करके निर्माता-निर्देशक अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते। तेजी से लोकप्रिय हो रहे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स से जुड़े ये कुछ पहलू ऐसे हैं, जिन पर फिल्मकारों से लेकर शासन-प्रशासन और आम समाज को अविलंब विचार करना होगा और भारतीय मानस के अनुकूल नीति बनाने की ओर कदम बढ़ाने होंगे।

           लोकेन्द्र सिंह 

Leave a Reply