सुरों की यात्रा में संतुष्ट हूं – पद्मश्री पं. उल्हास कशालकर

अपने गायन में ग्वालियर, आगरा, जयपुर तीनों परिवारों की परम्परा को आगे बढ़ाया और संगीत को एक अलग ऊंचाई पर ले गए। यदि कोई  गायन सुनकर संगीत की समृद्धि का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पंडीत उल्हास कशालकर के गायन को अवश्य सुनना चाहिए। पं. उल्हास कशालकर की इस संगीतमय पृष्ठभूमि पर उन्हें मिले पदम्श्री पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एक बहुत बड़ा और सार्थक सम्मान हैं। आप अपने सुमधुर शास्त्रीय गायन के माध्यम से भारतीय शास्त्रीय गायन परम्परा में अपना विशिष्ट स्थान बना चुके है।

कला को देखने का आपका क्या नजरिया है?

हमें जिन चीजों के माध्यम से आनंद मिलता है, वह कला है। कला मानव अनुभव को संप्रेषित करने का एक तरीका है।  जैसे विचार शब्दों के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचते हैं, उसी प्रकार कला के माध्यम से भावनाएं एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचती हैं। कला भावनाओं की अभिव्यक्ति है। गायन (अभंगवाणी), भीमसेन जोशी, डॉ. वसंतराव देशपांडे का गायन (नाटकीय संगीत), जितेंद्र अभिषेकी का गायन (नाट्य संगीत, अभंगगायन) तथा बिरजू महाराज का नृत्य एक उत्कृष्ट कृति है। इन चीजों को लम्बे समय से कई लोगों द्वारा कला के कार्यों के रूप में मान्यता दी गई है। जब आम आदमी आसानी से कह देता है कि लता मंगेशकर, आशा भोंसले की आवाज सुरीली है। उनकी आवाज में वे बहुत आसानी से मिठास और दर्द महसूस करते हैं। वह उन्हें गुनगुनाते हैं। इससे आम आदमी की कला का आनंद लेने की भावना का पता चलता है। ‘कला’ एक विशेष माध्यम से मनुष्य द्वारा की गई एक उत्तम अविष्कार है।

 शास्त्रीय गायन क्षेत्र में आप गत 5 दशकों से अपना योगदान दे रहे हैं। शास्त्रीय गायन क्षेत्र के संदर्भ में आपका निरीक्षण किस प्रकार का है?

मैं यवतमाल जिले के एक छोटे से गांव से आता हूं। वहां संगीत खासकर शास्त्रीय संगीत का कोई माहौल नहीं था, गांव में कुछ लोग सिर्फ भजन करते थे। मेरे पिता जी ने मुझे संगीत की तरफ जाने के लिए प्रेरित किया और उसके बाद से मुझसे जितना हो सका मैं कोशिश कर रहा हूं। शास्त्रीय संगीत एक ऐसी विद्या है जिसका कोई अंत नहीं है और इसका यश कितना मिलेगा यह भी किसी को पता नहीं होता है। पंडित राम मराठे जी और गजानन बुवा जोशी जी जैसे महान संगीतकारों के साथ काम करने का भी सौभाग्य मिला है। इसके अलावा और भी महत्वपूर्ण लोगों से मिलने का मौका मिला और मैंने सभी से कुछ ना कुछ सीखने की कोशिश की और सफल भी रहा। संगीत में एक बदलाव भी देखने को मिला, पहले का संगीत अलग था। फिर उसमें परिवर्तन होने लगे जिसमें गायकी पर भी सुधार करना पड़ा, हर कोई परिपक्व नहीं होता है, सभी में कुछ ना कुछ कमियां होती ही है। शायद मुझमें भी होंगी लेकिन इस सब बातों के बाद भी मैंने अपना सबसे अच्छा देने की कोशिश की है।

 “यह लड़का संगीत जगत में नाम रोशन करेगा” ऐसे शब्द संगीत के माननीय लोगों से आप को बचपन में ही मिल गए थे, आखिर ऐसी कौन सी विशेषता थी जिससे आप को लेकर लोगों में इतना विश्वास था?

करीब तेरह साल की उम्र से ही मैं नाट्य गीत की तरफ तेजी से बढ़ रहा था जिसकी वजह से नाट्य गीत प्रतियोगिता में मैं भाग लेता था। जहां बड़े-बड़े संगीतकार जज के तौर पर आते थे। एक कार्यक्रम के दौरान हीराबाई बडोदेकर व वसंतराव देशपांडे जज के तौर पर थे और मेरी प्रस्तुति के बाद उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि तुम बहुत आगे बढ़ सकते हो लेकिन तुम्हें अच्छे कलाकारों के पास जाकर सीखना चाहिए।

 आप में संगीत के संस्कार आप के परिवार की वजह से आए। आप के परिवार का शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में जो योगदान रहा है उस संदर्भ में जानकारी दीजिए?

संगीत का संस्कार मुझे मेरे पिता जी से मिला था। हम लोग कुल 6 भाई हैं। पं. अरुण कशेलकर मेरे बड़े भाई हैं। वे भी बहुत अच्छा आगरा घराने का संगीत गायन करते हैं। विकास कशेलकर सहित हम 3 भाई संगीत से जुड़े हुए हैं, जबकि बाकी लोग अलग अलग काम करते हैं। लेकिन संगीत घराना होने से हम सभी को संगीत की जानकारी है।

 भारतीय गायन क्षेत्र में ही अपना मौलिक योगदान देना है, इस पर आप ने कब निर्णय लिया?

करीब 24 वर्ष की उम्र में जब मैं गुरु जी के पास गया तभी यह निश्चित किया कि मुझे एक कलाकार बनना है। कलाकारों के साथ जब रहता था तब अच्छा लगता था और ऐसा महसूस करता था कि हमें भी ऐसा ही बनना चाहिए लेकिन यह खुद पर निर्भर करता है कि आप को कितना काम मिलेगा और आप कितने सफल होंगे। मैंने संगीत के साथ-साथ नौकरी भी की है लेकिन मन से कभी संगीत कम नहीं हुआ। करीब 35 वर्ष की आयु में मैंने नौकरी छोड़ दी और संगीत की दुनिया में लौट आया।

 आप गायन की कौन सी विधा ज्यादा पसंद करते हैं, और क्यों ?   

गायन में एक ख्याल गायकी होती है जिसमें मैं गाता हूं और पूरी तरह से निपुण हूं। संगीत में कुल 3 घराने होते हैं, आगरा घराना, ग्वालियर घराना और जयपुर घराना। इसी के आधार पर हमें शिक्षा मिली है।

 किसी भी क्षेत्र में अपना पूर्ण योगदान देना है तो उसके लिए समर्पण अत्यंत आवश्यक होता है। शास्त्रीय गायन के तय मार्ग पर चलते हुए आप को कौन से समर्पण करने पड़े?  

संगीत सीखने और उसका रियाज करने के लिए बहुत धीरज रखना पड़ता है। शुरुआत के कुछ महीने तो ऐसा लगता है कि इसे अब छोड़ देना चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे सीख जाते हैं। हालांकि ऐसा कोई दौर नहीं आता जब कोई संगीतकार यह कह सके कि वह पूरी तरह से सीख चुका है। संगीतकार को अगर यह लगने लगा कि वह अब सब कुछ सीख चुका है तो फिर उसके बुरे दिन शुरू हो जाएंगे।

 वर्तमान में गायन क्षेत्र में कई आधुनिक आयाम निर्मित हो रहे हैं। ऐसे में शास्त्रीय गायन के अस्तित्व पर कोई खतरा नजर आ रहा है? 

शास्त्रीय संगीत की बॉलीवुड के साथ तुलना नहीं करनी चाहिए। सभी संगीत अपनी अपनी जगह सही हैं लेकिन शास्त्रीय संगीत का जो स्थान है वह बहुत उच्च है। यह आम लोगों के पास कम ही पहुंचता है। शास्त्रीय संगीत में बहुत नामचीन लोग ही हैं जिन्हें आम जनता जानती है। शास्त्रीय संगीत को समझने के लिए सुरों का, संगीत का थोड़ा संस्कार होना चाहिए और अगर आप एक बार सुर को समझने लगे तो फिर आप को मजा आने लगेगा और अन्य के संगीत को सुनना छोड़ देंगे। हम दूसरे देशों में भी जाते हैं तो वहां के युवा इसे सुनना पसंद करते हैं। तो, यह कहना गलत होगा कि शास्त्रीय संगीत पर कोई खतरा नजर आ रहा है।

 आप ने कहा कि गायन क्षेत्र में गुरु से सीखना जरूरी है, लेकिन वर्तमान समय में क्या ऐसा लगता है कि यह गुरु-शिष्य परम्परा खत्म होने की कगार पर जा रही है?

संगीत एक ऐसा क्षेत्र है जहां सफल लोगों की संख्या कम होती है। आजकल स्कूलों और अन्य संस्थानों में जो संगीत सिखाया जा रहा है वह बिल्कुल अलग है और संगीत को अलग अलग नाम भी दिया जा रहा है। संगीत स्कूलों से सीख तो सकते हैं, संगीत शिक्षा में यह तो बताया जा सकता है कि किस राग में क्या बंदिश का इस्तेमाल होगा लेकिन जब तक आप गुरु के पास नहीं जाते आप संगीतकार नहीं बन सकते हैं। आप कितनी भी शिक्षा ले लें लेकिन जब तक आप गुरु के पास नहीं जाते आप एक कलाकार नहीं बन सकते हैं। अभी तक के जितने भी संगीतकार हुए उन्होंने किसी गुरु के पास से ही शिक्षा ग्रहण की है। कलकत्ता में एक मॉडर्न रिसर्च गुरुकुल संगीत पर शुरू हुआ है। जहां पूरे भारत से प्रमुख संगीतकार लोगों को बुलाया गया है और यहां नये लोगों को संगीत सिखाया जा रहा है। कलकत्ता के अलावा कर्नाटक सहित कई और राज्यों में ऐसे गुरुकुल शुरु किये गये हैं।

 हिन्दुस्थानी गायन और संगीत क्षेत्र में पहले राजाश्रय मिलता था लेकिन अब यह राजाश्रय से लेकर रसिकाश्रय तक इसका प्रवास हुआ है। वर्तमान में रसिकाश्रय का जो स्वरूप है उसके विषय में आप के क्या विचार हैं?

मेरे हिसाब से रसिक हर प्रकार के होते हैं। कलाकारों को कम या ज्यादा पसंद करने वाले हो सकते हैं। आज के समय में हर क्षेत्र में कलाकार प्रसिद्ध हो रहे हैं जैसे तबला, सितार, गायन। यह ना सिर्फ भारत बल्कि विदेशों में भी प्रसिद्धि पा रहे हैं। देश के बड़े शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद और भोपाल में संगीत के बड़े बड़े कार्यक्रम होते हैं और यहां पर नये कलाकारों को भी बुलाया जाता है और इनके माध्यम से संगीत का प्रचार प्रसार किया जाता है।

 शास्त्रीय व नाट्य संगीत के क्षेत्र में आप का अद्भुत योगदान रहा है और इसके लिए आप को पद्मश्री सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। पुरस्कार स्वीकारने के समय आप के मन में किस तरह की प्रतिक्रिया आती है?

पुरस्कारों का सबसे पहले श्रेय गुरु जी को जाता है जिनके बिना यह असम्भव था। साथ ही जिन श्रोताओं ने हमें सालों साल तक सुना और अपने दिल के करीब रखा, उनका भी उतना ही श्रेय होता है।

 आप की गायकी का आविष्कार ग्वालियर, आगरा और जयपुर के दायरे में रहा है इसके बाद आप के कला की एक स्वतंत्र प्रतिभा भी रही है। यह दोनों कैसे सम्भव हुआ?

हम जिस गुरु से संगीत सीखते हैं उनका अपना एक तरीका होता है और उसी के अनुरूप वह हमें सिखाते हैं लेकिन इस दौरान हमें यह सोचना होता है कि हम इससे अलग क्या कर सकते हैं। अगर हूबहू गुरु जी जैसा गाया तो इसे नकल कहा जाएगा। इसलिए एक कलाकार को खुद की सोच को भी आगे लाना होता है तभी वह एक सफल कलाकार बनता है और उसे उसकी एक अलग पहचान मिलती है।

 आप को लेकर ऐसा कहा जाता है कि आप में शास्त्रीय गायक के प्रस्तुति में आगरा, जयपुर और ग्वालियर घराने का मिश्रण होता है जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है। यह कला कैसे प्राप्त हुई?

यह मेरे लिए सौभाग्य की बात रही है कि मैंने सभी घरानों की गायकी सीखी और इसका किस तरह से मिश्रण करना है, वह भी सीखा है। जैसा पहले कहा कि गायकी दो तरह की होती है, पहली कि आप ने जैसा सीखा वैसा ही प्रस्तुत कर दिया और दूसरा आपने अपनी कला का इस्तेमाल करते हुए कुछ अलग करने की कोशिश की। इसे आप का स्टाइल कहा जाता है। हमने तीनों घराने के संगीत को सीखा और उसी से यह मिश्रण तैयार होता है जो श्रोताओं को पसंद आता है। हां इस बात का विशेष ध्यान रखना होता है कि किस गीत में कब कौन सा घराना इस्तेमाल करना है। उसकी सही जानकारी होनी चाहिए।

 किसी भी क्षेत्र में उच्च स्थान प्राप्त करने के बाद भी जीवन का प्रवास नहीं रूकता है। गायकी के क्षेत्र में आप का अगला पड़ाव कौन सा होगा? 

एक संगीतकार को पता होता कि वह वर्तमान में कहां पर है और उसी हिसाब से यह होता है कि उसका अगला पड़ाव क्या होगा? सुर, लय और रियाज की तरफ ध्यान देने की हमेशा जरूरत होती है और इसी सुधार और सीख में पूरा जीवन निकल जाता है। संगीतकार के लिए सुर व लय का फायदा तभी है जब सुनने वाला उसे सुनकर खुश हो जाए। इसके साथ ही नए नए राग व बंदिश की खोज हमेशा जारी रहती है। यह कभी खत्म नहीं होती है। हमने संगीत से जो कुछ सीखा है उसे अगली पीढ़ी को सिखाना भी एक काम है जिससे यह निरंतर आगे बढ़ती रहे।

 संगीत और गायन का व्यक्ति के जीवन में महत्व क्या है?

संगीत हमें खुश करता है। कठिन परिश्रम करने वालों के लिए संगीत उनकी कठिनाइयों को भूलने में सहायक होता है। देशभक्ति के गीतों को सुनकर संगीत लोगों के दिलों में देशभक्ति जगाने की ताकत रखता है। जिम में वर्कआउट करते समय संगीत आपको ऊर्जावान महसूस करने में मदद कर सकता है। संगीत के समान मानसिक तनाव का कोई अन्य रामबाण इलाज नहीं है।

 युवा पीढ़ी का शास्त्रीय गायन व संगीत में रूझान हो, इसके लिए आप के माध्यम से कौन से प्रयास किए गए हैं?

हमने कई युवाओं को तैयार किया है और अभी भी कर रहे है। अगर वह सफल होते हैं तो अगले करीब 50 सालों तक वे शास्त्रीय संगीत का गायन करते रहेंगे। यह सबसे बड़ा प्रयास है। शास्त्रीय संगीत के नाम से डरने की जरूरत नहीं होती है। यह शास्त्र से जरूर बना है लेकिन यह भी सिर्फ एक आर्ट है जिसे अब नई युवा पीढ़ी पसंद भी कर रही है। युवा पीढ़ी जब कुछ अच्छा करती है तो बहुत खुशी होती है। किसी भी युवा कलाकार से बहुत उम्मीद नहीं करनी चाहिए क्योंकि इसे सीखने में समय लगता है। उसे अपना एक स्टाइल बनाना होता है जिसे करने में करीब 35-40 की उम्र हो जाती है। कड़ी प्रयास के बाद ही वह सही मार्ग पर आ सकता है।

 विदर्भ के एक गांव से लेकर पद्मश्री पुरस्कार तक आप का गायन के क्षेत्र में प्रवास रहा है। इस प्रवास का सिंहालोकन आप किस प्रकार से करते हैं?

मैं जिस गांव से आया हूं वहां संगीत का नाम भी नहीं था लेकिन पिता जी ने संगीत के बीज बोए और फिर मैंने संगीत में एमए किया और यहीं से मेरी संगीत की यात्रा शुरू हो गयी। संगीत की इस यात्रा में बड़े बड़े लोग मिलते गए और मेरा संगीत का सफर आज पद्मश्री तक पहुंच गया। संगीत की इस यात्रा के अंतिम पड़ाव में मैं आज संतुष्ट हूं।

 ऐसा कहा जाता है कि कला का मूल भाव सौंदर्य है। कला सौंदर्य अविष्कार पर आपके विचार व्यक्त कीजिए?

शास्त्रीय गायन अथवा शास्त्रीय संगीत या अन्य कलाओं में लालित्य, परम्परा के साथ सम्बंध, नवीनता का आविष्कार, उससे प्राप्त होने वाले आनंद के गुणों के कारण संगीत को सच्ची कला माना जाना चाहिए। कला श्रोताओं को भौतिक स्तर से आध्यात्मिक और अलौकिक स्तर तक ले जाती है। कला के मानदंड परम्परा पर आधारित हैं, इसलिए किसी भी कला में परम्परा महत्वपूर्ण है। परम्परा से नवप्रवर्तन का जन्म होता है; वास्तव में यह होना चाहिए। यह कला की श्रेष्ठता साबित करने के लिए काफी है। कलाओं का सुखद गुण सौन्दर्य है, जो आम लोगों को भाता है वह है सौन्दर्य, प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कला से आनंद प्राप्त करता है। हर श्रोता हर स्वर या शब्द का अर्थ या माधुर्य नहीं जान पाएगा; लेकिन फिर भी कोई खास गाना गाकर वो इंसान खुश हो जाता है। आम आदमी भले ही ‘सौंदर्य’ या ‘सौंदर्य’ का सही अर्थ न जानता हो, उसे कला, भावना में कुछ न कुछ अच्छा लगता है। यही कला का  मूल सौंदर्य भाव है।

 संगीत व शास्त्रीय गायन के संवर्धन के लिए सरकार की तरफ से भी योगदान महत्वपूर्ण होता है। वर्तमान सरकार की तरफ से इस क्षेत्र में किस तरह का योगदान दिया जा रहा है?

सरकार की तरफ से योगदान जारी है, जब मैंने संगीत की शिक्षा ली थी तब मुझे भी स्कॉलरशिप मिली थी और अभी भी नये बच्चों को मिल रही है। राज्य सरकार की तरफ से अलग से पुरस्कार दिए जाते हैं। सरकार के साथ साथ प्राइवेट संस्थान भी इसमें योगदान दे रहे हैं। तो यह कहना गलत होगा कि सरकार की तरफ से योगदान नहीं मिल रहा है। हालांकि जितनी बड़ी संख्या में संगीत के लिए बच्चे आ रहे हैं, योगदान उसकी तुलना में कम होता है। अगर इसे बढ़ाया जाए तो अधिक लाभ लोगों तक पहुंचेगा।

 संगीत में जिन युवाओं को अपना करियर बनाना है उनके लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

संदेश देना और प्रयास करना दोनों में बहुत फर्क है लेकिन मैं युवाओं को यही कहना चाहता हूं कि आप कभी भी अपना धैर्य मत छोड़ो। अपनी प्रतिभा की कभी पैसों से तुलना नहीं करनी चाहिए अन्यथा आप को निराशा होगी। संगीत के जड़ को हमेशा पकड़ कर चलो और अपना अभ्यास व प्रयास कभी मत कम करो। कभी किसी को जल्दी सफलता मिल जाती है, ऐसे में निराश नहीं होना चाहिए। आप संगीत को विद्या समझ कर सीखते रहो, ना कि इसे पैसे के लिए सीखो।

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