24 x 7 काम ही काम

कोरोना आपदा ने हमारे जीवन में काफी कुछ बदल दिया है। पहले जो लोग जिंदगी को बेफिक्र अंदाज में जीते थे, बगैर किसी की परवाह किए, अब वे भी हर छोटी-छोटी सी बात की परवाह करने लगे हैं। कोरोना ने न सिर्फ जीवन के प्रति हमारा नजरिया बदल दिया है, बल्कि हमारे रहन-सहन का ढंग, खान-पान की आदतें, हमारे जीवन में रिश्तों की अहमियत तथा हमारे कामकाज का ढंग आदि बहुत कुछ भी प्रभावित हो गया है।

ऑफिस की दुनिया सिमट गई घर के टेबल पर

कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए ज्यादातर संस्थानों ने अपने कर्मचारियों को वर्क फ्रॉम होम मोड में काम करने की सुविधा प्रदान कर दी। शुरू-शुरू में तो हर किसी को यह सुविधा ‘आपदा में अवसर’ नजर आयी, लेकिन समय बीतने के साथ एहसास हुआ कि इसने लोगों के जीवन में व्याप्त ‘अनुशासन’ को किस कदर कुंद कर दिया है। जो लोग सुबह 9 बजे तक अपने सारे कामकाज निपटा कर ऑफिस की अटेंडेंस मशीन में पंच किया करते थे, अब वे 12 बजे तक नहाते या नाश्ता करते नजर आते हैं। पहले की स्थिति में उनके हर काम का एक तय वक्त हुआ करता था, पर अब वे ही लोग ‘कर लेगें न’ वाली मनोवृति का शिकार हो चुके हैं। नतीजन, आलस्य, मोटापा, बीपी, शूगर… आदि तमाम तरह की बीमारियां उन्हें घेरे जा रही हैं।

जिंदगी की अस्त-व्यस्तता से उपजी कुंठा

इंसान की जिंदगी में जब सारे काम तय समय और शेड्यूल के तहत होते हैं, तो इससे वे न सिर्फ तनावमुक्त रहते हैं, बल्कि उन्हें कई सारे ‘अन्य कार्यों’ को करने का वक्त भी मिल जाता है। वहीं दूसरी ओर, जब उनके काम समय से नहीं निपटते, तो वे कुंठित होते हैं। उनमें खीझ तथा गुस्सा उत्पन्न होता है। आत्मविश्वास डगमगाने लगता है। कई बार इस अस्त-व्यस्तता का खामियाजा सामने वाले को झेलना पड़ता है। नतीजा, न सिर्फ आपसी सम्बंध कुप्रभावित होते हैं, बल्कि बेवजह का मानसिक तनाव भी झेलना पड़ता है। यूएस प्रिवेंटिव सर्विसेज टास्क फोर्स एडवायजरी ग्रुप द्वारा अगस्त-2020 से फरवरी-2021 के बीच किये गये एक शोध अध्ययन में पाया गया कि वयस्कों में तनाव के लक्षण बड़ी तेजी से विकसित हो रहे हैं। चीन में तो युवाओं पर डिप्रेशन कुछ इस हद तक हावी हो गया है कि वे डेटिंग एप्स पर अपने लिए ऐसे साथी की तलाश कर रहे हैं, जिनके साथ वे अपना सुख-दुख शेयर कर सकें।

(नोट : उल्लेखनीय है कि चीन में सोशलिस्ट पार्टी की सरकार द्वारा सोशल मीडिया साइट्स को बैन कर दिया गया है।)

ओटीटी हुआ हिट और नींद गई पिट

कोरोना आपदा काल ने ऑनलाइन मीडिया मार्केटिंग के क्षेत्र में बूम ला दिया। लगभग हर महीने थोक के भाव से वेब सीरीज, वेब शोज आदि तैयार होने लगे। इससे एक ओर जहां थियेटर की महत्ता धूमिल पड़ गयी और कई नये और छोटे कलाकारों को अपनी परफॉर्मेंस दिखाने का मौका मिला, वहीं इसने कई लोगों के रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया। कोरोना काल में न कहीं जाना था, न ही घर में किसी को आना था। लोग दिन भर मोबाइल फोन या लैपटॉप के सामने बैठे-बैठे काम निपटाते और फिर रात-रात भर जाग कर बेव सीरिज देखते। इस लत के चक्कर में वे या तो सुबह देरी से जागते हैं या फिर उनकी नींद पूरी नहीं होती। यानी लोग सोने के समय जागने लगे हैं और जागने के समय सो रहे हैं, जबकि हम सभी जानते हैं कि स्वस्थ जीवन के लिए सेहतमंद नींद लेना बहुत जरूरी है- यानी नियत समय पर सोना और नियत समय पर जागना। यह चक्र बाधित होने पर न केवल शारीरिक स्वास्थ्य कुप्रभावित होता है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका काफी बुरा असर पड़ता है। आपको शायद यकीन न हो, पर  मोटापा, तनाव, हाइपरटेंशन, मधुमेह और दिल से जुड़ी कई बीमारियां अनियमित नींद का परिणाम हो सकती हैं।

तकनीकों से दोस्ती और अपनों से दूरी

यह सच है कि कोरोना ने हमारे काम के पैटर्न में अच्छा-खासा बदलाव ला दिया है। इससे पहले शायद ही किसी ने कभी सोचा होगा कि हमारे सारे काम या कहें कि पूरी दुनिया कम्प्यूटर या मोबाइल फोन के क्लिक पर सिमट सकती है, पर कोरोना आपदा ने इस सपने को सच कर दिखाया। उस वक्त स्कूल-कॉलेज से लेकर महत्वपूर्ण संस्थानों तक के कामकाज एक कमरे की चहारदीवारी में सिमट गये थे। एक ओर इसके कई सारे फायदे हुए, तो वहीं कुछ नुकसान भी हुए। बच्चों से लेकर बड़ों तक को मोबाइल फोन, कम्प्यूटर तथा टीवी की ऐसी लत लगी कि उनमें से कई दीन-दुनिया से पूरी तरह कट गये। उनकी दुनिया इन्हीं तकनीकों के संजाल में उलझ कर रह गयी है। वर्तमान में कई ऐसे घर हैं, जिसमें कहने को तो चार या पांच सदस्य एक साथ रहते हैं, लेकिन उनके बीच आपसी संवाद विरले ही हो पाता है। कारण, उनमें से हरेक के पास स्मार्टफोन है, जिसके माध्यम से अपनी वर्चुअल दुनिया में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके घर में कौन आया, कौन गया- उन्हें कुछ पता नहीं होता। यहां तक कि बगल के मकान में अगर किसी की मृत्यु भी हो जाये, तो उन्हें इसकी जानकारी न हो।

वाटरलू यूनिवर्सिटी द्वारा किये गये एक शोध में पाया गया है कि दिन में चार घंटे से अधिक मोबाइल फोन यूज करने से अभिभावक चिड़चिड़े हो जाते हैं और अपने बच्चों को 75 फीसदी अधिक डांटते हैं।

सूचनाओं के अथाह सागर में ‘सही सूचना’ की मशक्कत

सूचना क्रांति के इस युग में हमारे पास अथाह सूचनाओं का भंडार है। हर हाथ में स्मार्टफोन होने से हम सब एक हायर-कनेक्टेड दुनिया में जी रहे हैं, जिसमें अनवरत सूचनाएं प्रवाहित होती रहती हैं। व्यक्ति जब तक एक सूचना को खंगाल रहा होता है, उसी बीच उसके इनबॉक्स में 10 नयी और सूचनाएं गिर चुकी होती हैं। सूचनाओं की ऐसी बमबार्डिंग के बीच अक्सर व्यक्ति सारी सूचनाएं पढ़ नहीं पाता और बिना पढ़े ही उन्हें आगे फॉरवर्ड कर देता है। इसकी वजह से कई बार उसे भ्रम और तनाव की स्थिति बनती है। यही नहीं, तमाम तरह के कामों के लिए आज कई सारे एप्स भी मौजूद हैं, जिनके पासवर्ड या लॉग इन आइडी को याद रखना भी एक अलग मुसीबत है। इससे निर्णय क्षमता में कमी आती है और एकाग्र क्षमता घटती है।

दोस्त-दोस्त ना रहा, प्यार-प्यार ना रहा

बदलते वर्किंग पैटर्न का एक बड़ा खामियाजा हमारे व्यक्तिगत सम्बंधों पर भी पड़ा। पहले ऑफिस के दोस्त हों या लव बर्ड्स, काम के सिलसिले में बाहर निकलें, तो बात-मुलाकात होती रहती थी। वर्क फ्रॉम होम वाले कल्चर ने इन मुलाकातों में दूरी ला दी। नतीजा, जो बांडिंग डेवलप होनी चाहिए थी, नहीं हो पा रही। अब तो ऑफिस कुलीग्स की मुलाकातें वर्चुअली होती हैं और बातें फोन पर। ऐसे में एक-दूसरे के सुख-दुख की साझेदारी बस एक औपचारिकता भर ही रह गयी है।

दूसरी ओर, पूरे दिन घर में रहने से कई सारे पति-पत्नियों के बीच आये दिन झगड़े होने लगे। वो कहते हैं न कि ‘दूर के ढोल सुहाने लगते हैं।’ नजदीक आने पर उनकी कमियों का एहसास होता है। ठीक इसी तरह, पहले एक-दूसरे की जो आदतें अच्छी लगती थीं, अब वही खटकने लगीं। इसकी वजह से आये दिन झगड़े या क्लेश होने लगे। नतीजा, पिछले दो वर्षों में तलाक के मामलों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। लगभग हर राज्य के फैमिली कोर्ट में ऐसे पारिवारिक विवाद सम्बंधित मामलों की संख्या बढ़ी है।

पढ़ने-लिखने में रुचि हुई कम

तकनीकों पर बढ़ती इंसानी निर्भरता ने आज कुछ ऐसे हालात पैदा कर दिये हैं कि लोग अपने हर छोटे-बड़े काम के लिए तकनीकी सहायता की आस करने लगे हैं। पहले कार्यालयों या संस्थानों में लिखा-पढ़ी का सारा काम ऑफलाइन मोड में या कहें कि मैन्युअली हुआ करता था। हालांकि उसमें गलतियां होने अथवा डाटा के नष्ट होने की सम्भावना अधिक रहती थी। इसी वजह से धीरे-धीरे कार्यालयीन कार्यों के डिजिटलीकरण पर जोर दिया जाने लगा। नतीजा, अब हर काम कम्प्यूटर या मोबाइल फोन की मदद से सम्पन्न किया जाने लगा। वॉयस मैसेज की सुविधा ने तो उसे और भी आसान कर दिया है या यूं कहें कि इंसान के काहिलपन में इजाफा कर दिया है, क्योंकि इसने तो लिखने या उंगलियों से टाइप करने की बची-खुची मेहनत का स्कोप भी खत्म कर दिया। अब तो बस आपके बोलने भर की देरी है और कम्प्यूटर/मोबाइल फोन की स्क्रीन पर सबकुछ स्वतः ही टाइप होता चला जायेगा। इसी तरह किताबें हों या अखबार, इनके ऑफलाइन पाठकों की संख्या में भी कमी आयी है। कारण, समय बदल रहा है, अब जानकारियों के लिए लोगों के पास अखबार एकमात्र मीडिया नहीं है। 100-200 रुपये के डाटपैक में अब यूजर्स को एक ही जगह पर हर तरह की जानकारी (ज्ञानवर्धक से लेकर ज्ञानकुंदक तक) मिल जा रही है। ऐसे में वे महीने के अतिरिक्त पैसे और समय खर्च करके अखबार/पत्र-पत्रिका पढ़ने में रुचि नहीं ले रहे। सम्भवतः आनेवाले कुछ वर्षों में किताबें-कॉपियां या अखबार आदि हमें म्यूजियम में रखे दिखे मिले और हमारी आनेवाली पीढ़ी को यह बताया जाये कि ‘तुम्हारे पूर्वज अपने दैनिक कार्यों के लिए इन चीजों का उपयोग करते थे.’

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