हब्बा हरिदिनगळल्ली बदुकु नेलेसिदे (उत्सवों में बसी है जान)

संस्कृति की नींव हमारे उत्सव-त्यौहार हैं और कर्नाटक की तो जान ही उत्सवों में बसती है। कर्नाटक के राजा-महाराजों के समय से चली आ रही उत्सव प्रथाओं को यहां की जनता आज भी पूरे विश्वास और उसी उत्साह के साथ आगे बढ़ा रही है। मैसूर का दशहरा हो या नागमण्डला का लोकनृत्य जनता की सहभागिता हर उत्सव में रहती है। विशेष बात यह है कि यहां उत्सवों को सामूहिक रूप से मनाने का ही प्रचलन अधिक है।

किसी भी राज्य की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और सामुदायिक पहचान की बात करनी हो तो हमें वहां की आध्यत्मिक, लोक संगीत, लोक नृत्य और लोक कला के बारे में जानने की आवश्यकता है, यह भी जानना महत्त्वपूर्ण है कि इन सभी ने आजादी के आन्दोलन और देश के विकास में सम्पूर्णरूप से भागीदारी की है। जब हमारे देश के विकास के बारे में विचार करते हैं तो यह दिखाई देता है कि जिन राज्यों में उनकी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, लोक संस्कृति, तीज-त्योहारों को बचाए रखने के लिए प्रमुखता से कार्य किया गया उनमें कर्नाटक की सहभागिता को स्वीकार करने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। हमारे देश में शास्त्रीय संगीत की दो धाराएं प्रमुख मानी जाती हैं, हिन्दुस्तानी और कर्नाटकी संगीत…..। इन दोनों धाराओं के संगीतज्ञ अपने संगीत की उच्चतम परम्पराओं को बनाए रखने के लिए नये रागों की रचना करने में निरंतर ही कुछ प्रयोग करते रहते हैं। कर्नाटकी संगीत आध्यत्मिकता से परिपूर्ण होता है और  कर्नाटकी संगीत का क्षेत्र सम्पूर्ण दक्षिणी राज्य ही हैं।

प्रत्येक दस मील पर बोल चाल की भाषा और अभिव्यक्ति के लिए लोक संगीत और नृत्य में कुछ भिन्नता दिखाई देना नैसर्गिकता का अंग है। कर्नाटक की लोक संगीत और नृत्य में इस भिन्नता को देखा जाना स्वाभाविक है। कर्नाटक में यक्षगान और ढोल्लुकुणिता को प्रमुख माना जाता है। यक्षगान मंच पर अभिनीत किया जाने वाला लोक नाट्य है जबकि ढोल्लुकुणीता लोक नृत्य है। ढोल्लुकुणिता नृत्य में महिला और पुरुष दोनों ही भाग लेते हैं लेकिन पुरुष और महिला दोनों का ही समूह अलग-अलग होता है। ढोल्लुकुणिता मुख्यतः उत्तर कर्नाटक क्षेत्र का लोक नृत्य है, यह नृत्य कुरुबा समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है। वर्तमान में इस नृत्य का प्रदर्शन लगभग हर प्रकार के आयोजनों में देखा जा सकता है।

कर्नाटक के कोडगु छेत्र में पारम्परिक रूप से हुट्टारी, बोलक, उम्मत और कोम्ब नृत्य प्रसिद्ध हैं।

इसी तरह मैसूर क्षेत्र में ढोल्लुकुणिता, बीसु समसेले, कामसेले और सोमना कुणित नृत्य मैसूर, नन्जनगुड, कोल्लेगाल और बेंगलूरु जिलों में देखा जा सकता है। इसी प्रकार उत्तर कर्नाटक में जग्गाहालिगे कुणिता, कराडीमजल, कृष्णा पारिजात और लावणी (महाराष्ट्र) प्रसिद्ध है। भूता आराधने और यक्षगान का मंचीय प्रदर्शन भी प्रमुख माना जाता है। दक्षिण बेंगलूरु के तटवर्तीय क्षेत्र मंगलूरु और कारवार के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी भूत आराधने और यक्षगान को प्रमुखता मिलती है। आज भी ये मंचीय नाट्य और लोक नृत्य लोकप्रिय हैं। कर्नाटक में जहां शास्त्रीय संगीत और भरतनाट्यम नृत्य परम्परा को अविरल बनाए रखने के लिए यहां की जनता अभिरुचि रखती है उसी तरह से पारम्परिक लोक नृत्यों और लोक नाट्य के प्रति भी रुचि रखती है। इन सबसे जुड़े कलाकारों के सामने आज के समय में अपने जीवन यापन के लिए भिन्न रोजगार की ओर जाने के लिए मज़बूर होना पड़ा है, परन्तु पारम्परिक रूप से कई ऐसे परिवार हैं जो आज भी समर्पित हैं। कर्नाटक में जो भी त्योहार मनाए जाते हैं उनमें लोकसंगीत, लोककला और लोकनाट्य का अद्भुत मिश्रण देखा जा सकता है। इन सबमें यह जादुई दृश्य देखा जा सकता है जिनमें, दुष्टों के माध्यम से देवी देवताओं की पूजा को देखा जा सकता है।

मैसूर और माण्ड्या जिले में पाटा कुणीता पारम्परिक लोक नृत्य लोगों में लोकप्रिय है। इस बहुरंगी नृत्य की छटा ही निराली होती है। यह आकर्षक नृत्य बेंगलूरु और माण्ड्या जिले में लोकप्रिय है।

गारूडी गोम्बे नाम के लोक नृत्य में बांस के बने हुए वस्त्रों को पहना जाता है। आकर्षक परिधानों को पहनकर कलाकारों के लिए लोक नृत्य प्रस्तुत करना चुनौती है। कलाकारों को इस पारम्परिक नृत्य की तैयारी में काफी परिश्रम करना पड़ता है।

नागमण्डला एक ऐसा लोक नृत्य है जो पूरी रात चलता है। यह नृत्य, एक संस्कार महोत्सव के रूप मनाया जाता है। सम्पूर्ण रात्रि चलने वाले इस महोत्सव में देवी से यह प्रार्थना की जाती है कि वे सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण करें। सम्पूर्ण रात्रि मनाए जाने वाले नागमण्डला महोत्सव में संगीत, नृत्य तो होता ही है इसी के साथ मंदिर के प्रमुख पुजारी द्वारा संस्कृत तथा कन्नड़ मंत्रोच्चार किया जाता है।

कर्नाटक में लोक कला, लोक संगीत और लोक नृत्यों की एक लम्बी श्रृंखला है। कर्नाटक की विश्वस्तरीय पहचान केवल इसलिए नहीं है कि यहां आईटीबीटी के उद्योग संस्थान स्थापित किए गए हैं। राज्य का नाम कर्नाटक दिए जाने के पहले से ही कई विश्वस्तरीय महोत्सव की परम्परा यहां पर चली आ रही है। जिसमें से लगातार 10 दिनों तक मनाए जाने वाले मैसूर दशहरा का नाम प्रमुख है।

मैसूर के महाराज कृष्णराज वाडियार (1805) ने मैसूर महल में विशेष दरबार परम्परा की शुरुआत की और इस विशेष दरबार के आयोजन का समय था दशहरा। इस दरबार में परिवार के सभी सदस्यों, विशेष आमंत्रितों के साथ अधिकारी और जनता भी शामिल होते थे। महाराज श्रीकांतदत्त वाडियार की मृत्यु के बाद यह महोत्सव की परम्परा आज भी चल रही है। दशहरा के एक दिन पूर्व नवमी के दिन महाराजा के तलवार की पूजा की जाती है। इस अवसर पर महाराज की तलवार की शोभायात्रा का आयोजन किया जाता है। शोभायात्रा की विशेषता यह होती है कि उसमें हाथी, घोड़े और ऊंट भी शामिल रहते हैं। मैसूर में स्थित प्रसिद्ध चामुण्डेश्वरी देवी की प्रतिमा तथा महाराज की राजशाही तलवार को हाथी के ऊपर सोने के हौदे में ऱखकर पूरे नगर में घुमाया जाता है। इन दस दिनों के समारोह को कर्नाटक सरकार राज्योत्सव के रूप में मनाती है। इस राज्योत्सव के दौरान अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर दषमी तक राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के लिए आकर्षण केन्द्र तो होता ही है, साथ ही पर्यटकों के लिए भी ये दस दिन विशेषत: दशहरे का दिन अधिक आकर्षित करता है। मैसूर महल को बिजली के लड़ियों से इस तरह सजाया जाता है कि रात में भी दिन होने का आभास कराता है। दशहरे के दिन राज्य के विभिन्न संगीत और नृत्य के समूहों द्वारा अनेक तरह के लोक संगीत और लोक नृत्य सहित कर्नाटकी संगीत के प्रसिद्ध गायकों द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। इस अवसर पर कुश्ती और अनेक तरह के प्रतिस्पर्धीय खेलों का आयोजन भी किया जाता है। मैसूर का दशहरा को देखने के लिए लोगों को सरकार द्वारा विभिन्न श्रेणी के प्रवेश पत्र दिए जाते हैं। पहले जब यह महाराजा द्वारा आयोजित किया जाता था तो उस समय जनता की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए विशेष व्यवस्था नहीं की जाती थी। कर्नाटक राज्य के दशहरा समारोह की ख्याति विश्व प्रसिद्ध होती जा रही है। इस समारोह के आयोजन से शहर और आस पास के नगरों में होटल व्यवसाय में वृद्धि देखी जा सकती है।

यहां कर्नाटक की जनता से जुड़े एक और त्योहार का उल्लेख करना समीचीन होगा। यह त्योहार भी दस दिनों तक अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से ही दशहरे तक मनाया जाता है जिसे गोम्बे त्योहार कहा जाता है। गोम्बे का तात्पर्य है, खिलौनों का संग्रहालय, इस अवसर पर लोग अपने-अपने घरों में पूरे वर्ष एकत्र किए गए खिलौनों को सजाकर रखते हैं और यदि कुछ नया खिलौना मिल गया तो उसे भी संग्रहालय में जोड़ लेते हैं। इन सारे खिलौनों के बीच लकड़ी के बने हुए राजा रानी के खिलौनों को रखा जाता है। पूरे दस दिनों तक घरों में प्रतिदिन प्रातः और सायंकाल विशेष पकवान भी बनाए जाते हैं सातवें दिन सरस्वती की पूजा की जाती है। इसी दिन से कलम, पेन्सिल, पुस्तक, कापियों की पूजा की जाती है और महानवमी को आयुध पूजा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन घर में स्थित सभी औजारों की भी पूजा की जाती है। कर्नाटक में आयुध पूजा महत्व यहां तक है कि सरकारी दफ्तरों में लोग अपनी अलमारियों और कार्यालय के काम में आने वाली सभी वस्तुओं की भी पूजा करते हैं। चुंकि उस दिन सरकारी अवकाश घोषित होता है अत: कर्मचारी एक दिन पहले ही पूजा कर लेते हैं। कर्नाटक में इस तरह के अनेक त्योहार हैं जिनमें जनता की सहभागिता बनी रहती है।

Leave a Reply