सभ्यपणाचे संस्कारपुराय दर्शन (सभ्यता का संस्कारपूर्ण दर्शन)

गोवा, जिसे दूसरी काशी कहा जाता है, आज रंगरेलियां मनाने के ठीहे के तौर पर दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसलिए भगवान परशुराम की तपस्थली पुण्यभूमि गोमंतक की वास्तविक पहचान पीछे रह गई परंतु अब वहां के लोगों के मन की छटपटाहट बाहर आ रही है कि गोवा की पहचान उसकी सनातन संस्कृति के आधार पर हो, और इस दिशा में सार्थक प्रयत्न भी किया जा रहा है।

गोवा एक छोटा सा क्षेत्र ‘पुण्यभूमि-देवभूमि गोमंतक’ के रूप में पहचाना जाता है। समूचे गोवा में लगभग पांच हजार मंदिर हैं और वे सभी विशाल एवं सम्पन्न हैं। मंदिरों से समृद्ध इस भूमि पर देवताओं का निवास होने की अनुभूति मिलने से ही यहां के मंदिरों को ‘देवस्थान’ कहा जाता है। सम्पन्न-सजग गोवा में सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं कला जैसे सभी विषयों में मंदिरों का काफी योगदान ऐतिहासिक काल से रहा है। नयन-मनोहर प्राकृतिक सौंदर्य से सजे हुए इन वैभवशाली, ऐतिहासिक देवस्थानों को लेकर पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है।

साहित्य अथवा अन्य प्रसार माध्यमों द्वारा यह दिखाया जा रहा है कि “गोवा का जनजीवन स्वेच्छाचारी, नशेबाज और उच्छृखल है, गोवा पूरब का रोम है, पुर्तगालियों का लाया हुआ ‘कार्निवल’ ही यहां का प्रमुख लोकोत्सव है।” सरकारी पैसा बेहद मात्रा में खर्च करके देशी-विदेशी पर्यटकों के समक्ष भी यही परोसा जा रहा है। गोवा के इस विकृत दर्शन पर रोक लगाते हुए, गोवा मंदिरों से पवित्र बनी ‘कोंकण काशी’ है, इसकी जानकारी जन-जन तक पहुंचाना अति आवश्यक है।

किसी ने संस्कृति की व्याख्या करते हुए कहा है कि मानव समाज की दृष्टि को दिखने वाली भौतिक, वस्तुरूप निर्माण और आंखों को न दिखनेवाली, मगर विचारों में अंकित होने वाली जो सृष्टि है, वहीं संस्कृति है। गोवा की लोक-संस्कृति में तो यह उच्चतम मूल्य निश्चित रूप से है। नैसर्गिक एवं सांस्कृतिक समृद्धि यहां की मिट्टी के कण-कण में बसी हुई है। हरियाली की खुशहाली और सागर के पानी की सुंदरता गोवा की विशेषता है। सह्याद्रि की पर्वत श्रृंखला और अथाह अरब सागर की गोद में बसे गोवा के प्राकृतिक सौंदर्य और सांस्कृतिक वैभव को देखकर दुनिया के लोग आनंद भाव महसूस करते हैं। गोवा में पुर्तगालों शासनकाल तीन सौ सालों से भी ज्यादा समय तक रहा। इससे पहले पेडणे, डिचोली, फोंडा आदि प्रांतों पर छत्रपति शिवाजी महाराज का शासन था। इस कारण गोवा की संस्कृति में पूर्व और पश्चिमी संस्कृति का मिलाप देखने को मिलता है।

इस छोटे से राज्य में लोकनृत्य, लोकगीत, लोकपरम्परा की जो समृद्ध और सम्पन्न धरोहर है, वह इस राज्य के भारतीय संस्कृति से पुरातन रिश्ते का दर्शन कराती है। इससे गोवा की सांस्कृतिक समृद्धि का आभास होता है। गोवा के संस्कृति प्रेमी लोगों के जीवन-व्यवहार में त्योहारों, विधि, परम्परा, रूढ़ि रिवाजों का तो अलग ही स्थान है। रोजमर्रा की जिंदगी से निर्मित होने वाले इन लोक गीत-नृत्यों ने उनको जीने की सहजता और कलात्मकता प्रदान की है। इस लोक संस्कृति में इस मिट्टी की सभ्यता, पुराण, इतिहास का मनोहारी और संस्कारपूर्ण दर्शन होता है।

समूचा हिंदू समाज आज भयावह संकटों के जाल में फंसा हुआ है। इन संकटों का स्वरूप दो ही शब्दों में स्पष्ट करना हो तो कहना होगा कि अब समय ‘अस्तित्त्व रक्षा’ का है। अत्यधिक भोगवाद, विदेशी सम्प्रदायों का विस्तारवाद तथा राष्ट्र की एकात्मता को दी जा रही चुनौती आदि हिंदुओं के अस्तित्व को कुरेदने वाली समस्याओं पर चिंतन होना आवश्यक है। सुसंगठित समाज ही सामर्थ्यवान होता है तथा सामर्थ्यशाली राष्ट्र ही आक्रमणकारियों की कुटिल चालों को विफल कर सकता है। सामाजिक परिवर्तन का यह राष्ट्रीय कार्य करने में मंदिरों की भूमिका महत्वपूर्ण साबित हो सकती है।

पुर्तगालियों द्वारा थोपा गया धर्म संकट एक लम्बी अवधि तक सहने के उपरांत भी गोमंतकीय समाज उठकर खड़ा हुआ है। अपना आत्मसम्मान फिर से प्राप्त करना चाहता है। इसका एक बढ़िया उदाहरण है वेर्णा का श्री म्हालसा देवस्थान। यह देवस्थान पुर्तगालियों द्वारा जहां ध्वस्त किया गया, उसी जगह म्हालसा देवी की पुनर्स्थापना कर गोवा की जनता ने धार्मिक-सामाजिक मापदंड को फिर से स्थापित किया है। यह तो केवल आरम्भ है। इस मापदंड को मजबूत, शक्तिशाली, प्रकाशमान बनाने हेतु राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं का समूह समाज के सभी क्षेत्रों के साथ मंदिरों में भी प्रभारी बनना बहुत ही जरूरी है।

गोवा की वास्तविक सांस्कृतिक परम्परा के प्रतीक मंदिर एवं उनकी परम्पराएं कहीं कुछ धुंधली होती जा रही हैं। परशुराम निर्मित कोंकण क्षेत्र में गोवा प्राचीन काल से ही मंदिरों के प्रदेश के रूप में पहचाना जाता था। उसी कारण गोमंतक का उल्लेख ‘दक्षिण काशी’ के नाम से किया जाता है। पुर्तगालियों के आक्रमण के पश्चात धर्मांतरण के जो प्रयास हुए, उनका परिणाम मंदिरों को भी भुगतना पड़ा। आरम्भ में जिन तहसीलों में पुर्तगालियों का प्रभाव था, वहां से मंदिरों को स्थानांतरित करना पड़ा, फिर भी ईसाई धर्म गुरुओं और शासकों के असीम अत्याचार सहते हुए भी गोवा की संस्कृति अखंडित रही, इसका सब से बड़ा श्रेय मंदिरों को ही जाता है। उन मंदिरों के बल पर ही गोवा की सांस्कृतिक अस्मिता जाग्रत रही। इन सभी मंदिरों का इतिहास अगर लिखा गया, तो गोवा के लोमहर्षक तथा आत्मचिंतन करने के लिए बाध्य करने वाले सांस्कृतिक संघर्ष के इतिहास के रूप में उसकी गिनती हो सके। इसीलिये गोवा के ईसाइयों पर लैटिन संस्कृति का काफी प्रभाव दिखाई देता है। लेकिन दक्षिण गोवा में बसे हुए ईसाई अपने धर्म का पालन कार्निवाल उत्सव से सांस्कृतिक और लोकधर्म की धरोहर का दर्शन कराते हैं। आज धर्म से ये लोग ईसाई हैं, लेकिन इन्होंने अपने पूर्वजों की परम्परा का रक्षण प्रतिकूल स्थिति में भी किया है। उनके लोक नृत्य में हमें गोवा के गतकालीन ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक धरोहर का दर्शन होता है। उस दौरान वे जो लोकगीत गाते है, उनमें गोमंतकीय संस्कृति के दर्शन होते हैं।

गोवा में पेड़-पौधों से भरे हुए जंगल हैं। इस जंगल से जुड़े हुए वनवासी समाज अपनी परम्पराओं में पर्यावरण मूल्यों का पूर्ण संवहन करते हैं। समूचे बदन पर पेड़ पौधों की डालों को बांधकर प्रस्तुत किया जाने वाला नृत्य और लोकगीत कुणबी लोगों की परम्परागत लोक संस्कृति है। उसका दर्शन वह हमें आज भी कराते हैं। उनके ज्यादातर गीत एवं नृत्य, दशावतार नाटक वस्तुतः एक समृद्ध संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करते हैं, जिनका गौरवशाली अतीत रहा है। गोवा में होली का त्योहार ‘शिमगो’ नाम से जाना जाता है। खेतों में काम करनेवाले किसान और तरह-तरह की कला से जुड़े हुए कारीगर होली के दिनों में लोकगीत और नृत्य का प्रस्तुतीकरण करके आनंद उठाते हैं। ग्राम देवता के सामने वहां लोक नृत्य, दशावतार नाट्य, गायन करते हैं। चैत्र महीने की पूनम को गोवा में शिमगो मनाया जाता है। आम या अन्य उंचे वृक्षों के पौधे से बड़ा ऊंचा खम्भा बनता है, आम्रपल्लवों से अलंकृत कर वह खम्भा मंदिर के सामने खड़ा किया जाता है और लोकगीतों का गायन करते हैं। ये लोकगीत रामायण-महाभारत के कथासूत्रों पर आधारित होते हैं। मोर पक्षी से प्रेरणा लेकर ‘मोरूली’ नामक मयूर नृत्य बड़ी खुशी से शिगमों के समय वहां के कलाकार पेश करते हैं। इन लोकनृत्यों का प्रस्तुतीकरण मन को प्रसन्नता देता है।

विवाह के समय गोवा के लोगों में लोकगीत गाने की परम्परा है। विवाह की हर एक विधि अलग-अलग होती है, जैसे कि विवाह के एक दिन पहले हल्दी लगाने की विधि होती है। उस समय दीपज्योति को प्रणाम करते हुए गीत गाते हैं। विवाह के समय जो गीत पेश किए जाते हैं, उनसे गोवा के सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों के दर्शन होते हैं। विवाह केवल पति और पत्नी का मिलन नहीं होता, बल्कि संस्कृति का मन लुभावना संयोग होता है, इसका दर्शन गोवा के विवाह गीतों में दिखता है। गोवा में गणेशजी के नाम से बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता है। गणेशजी के प्रति एकनिष्ठ और आत्मीयता रखनेवाली महिलाएं, युवतियां उनके रूप पर, गुणों पर लोकगीत गाकर वर्तुलाकार में ‘फुगड़ी’ नृत्य पेश करती हैं। इस फुगड़ी में बहुत सारे प्रकार के नृत्य होते हैं।

प्राचीन काल से ही गोमंतक ‘देवभूमि’ के रूप में पहचाना जाता है। प्राचीन भारतीय साहित्य में गोमंतक का उल्लेख मिलता है। महाभारत के भीष्म पर्व के नौवें अध्याय में और स्कंद पुराण के सह्याद्रि खंड में ‘गोमंत’, साथ ही सूत संहिता में ‘गोवापुरी’ नाम पाये जाते हैं। इस भूमि के उद्गम के सम्बंध में भी कुछ कथाएं प्रचारित हैं। एक कथा के अनुसार भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम ने अपने बाण से यह भूमि निर्मित की। 21 युद्धों के पश्चात परशुराम को तप साधना करने के लिए किसी शांत स्थान की आवश्यकता थी। तब उन्होंने दक्षिण की ओर आकर सह्याद्रि के मस्तक से सागर की दिशा में एक बाण छोड़ा।

बाण जहां पहुंचा, उस स्थान से उन्होंने सागर को पीछे हटने का आदेश दिया। उस स्थान पर जो भूमि निर्मित हुई, वही गोमंत भूमि है। अपने साथी ऋषि-मुनियों के सहयोग से परशुराम ने यहां बहुत से यज्ञ किये और इससे इस भूमि को पवित्र बनाया। काल की गणना करने पर यह काल 9000 वर्ष पूर्व का होने के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं।

समय के साथ इसमें कई परिवर्तन हुए। हिंदुस्तान के अन्य प्रदेशों के अनुरूप ही विभिन्न शासकों ने इस क्षेत्र पर कब्जा करके यहां अपनी सत्ता स्थापित की। भोज, चालुक्य, शिलाहार, कदम्ब आदि विभिन्न राजवंशों ने इस प्रदेश पर राज किया। इन राजवंशों के राजाओं ने अपने-अपने धर्मों की विशेषताओं को इस क्षेत्र में दृढ़ करने के प्रयास किये। इसी कारण इस इलाके में बौद्ध स्तूप, विहार और मंदिरों का निर्माण हुआ। कुछ समय यहां मुगलों का राज रहा, फिर भी उनका कुछ खास प्रभाव दिखायी न दिया। अत: उनके शासन के चिह्न बड़े पैमाने पर कहीं बने हुए नहीं हैं।

पुर्तगाली सरकार ने विभिन्न कठोर कानून बनाकर हिंदुओं को यातना पहुंचाना जारी रखा। इन सभी बातों के फलस्वरूप हिंदुओं ने पड़ोसी राज्यों के सुरक्षित स्थानों पर भारी संख्या में स्थलांतर किया। मंदिरों का विनाश होने से कितने ही हिंदू अपनी देवताओं की मूर्तियों को साथ लेकर दूसरे इलाकों में जाकर बस गये। इस तरह विभिन्न दुष्कृत्य करने के बावजूद भी पुर्तगाली हिंदू संस्कृति को नष्ट करने में सफल न हो सके। गोमंतक से सभी हिंदुओं को ईसाई बनाने का उनका इरादा पूरा न हो सका। आगे चलकर राम मनोहर लोहिया ने गोवा के स्वाधीनता संग्राम का शंख फूंका और सारे गोमंतक में वह लहर फैलती गयी। पुर्तगाली सरकार की सावधानी धरी की धरी रह गयी। फलस्वरूप गोमंतकियों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर की पृष्ठभूमि में इसका परिणाम हुआ ही, उसके साथ ही को गोमंतक से समूल उखाड़ने के इरादे से जनता में जाग्रति तथा स्वाधीनता की आकांक्षा बढ़ती गयी। स्वाधीनता संग्राम को साधारण जनता से मिलने वाला समर्थन बढ़ता गया और आखिर दिसम्बर 1961 में गोवा में स्वाधीनता का उदय हुआ और आगे चलकर सन 1977 में वह घटक राज्य भी बन गया।

                                                                                                                                                                                                सूर्यकांत आयरे

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