“क्रिया”, “विचारणा” एवं “भावना” के तीनों ही क्षेत्रों में एकरूपता हो तो मनुष्य असामान्य व्यक्तित्व का स्वामी बन सकता है। इसके विपरीत इन तीनो में एकता न होने पर विकासक्रम अवरूद्घ हो जाता है । सामान्यतया इन तीनों में एकता कम ही स्थापित हो पाती है । प्रायः युग्म दो का बन जाता है । प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाला व्यक्तित्व उन्हीं के समन्वय से बनता है, जिसे ज्ञात व्यक्तित्व कहते हैं ।
अपने इस व्यक्तित्व का बोध अधिकांश व्यक्तियों को होता है । संभव है कि मनुष्य अपने ज्ञात स्वत्व में चरित्रवान, आदर्शवादी एवं सिद्धांतनिष्ठ हो, किंतु अज्ञात व्यक्तित्व में अनुदार, अनैतिक, क्रूर एवं व्यभिचारी हो सकता है । इसका प्रमाण कितने ही व्यक्तियों में मिलता रहता है । नीति, सदाचार, आदर्श एवं सिद्धांत की बातें करते कितने ही व्यक्ति देखे जाते हैं, किंतु लोभ-मोह के, वासना-तृष्णा के अवसर आते ही वे उस प्रवाह में बह जाते हैं । इसका कारण यह होता है कि भीतरी अज्ञात व्यक्तित्व में निकृष्ट प्रवृतियों के संस्कार ही जड़ जमाए रहते हैं और अवसर उपस्थित होते ही प्रबल हो उठते तथा बाह्य प्रत्यक्ष व्यक्तित्व पर हावी हो जाते हैं ।
न चाहते हुए भी कितनी ही बार मनुष्य कितने ही ऐसे कार्य कर जाते हैं, जो सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से अनुचित होते हैं और जिसके लिए वे बाद में भारी पश्चाताप करते हैं । यह अचेतन व्यक्तित्व का ही प्रभाव है कि मनुष्य अपने को अशक्त एवं असमर्थ पाता है । मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बाह्य-भीतरी सामंजस्य न होने से द्विमुखी व्यक्तित्व का निर्माण होता है । “डबल पर्सनैलिटी” को मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में सभी प्रकार के मनोरोगों का कारण माना गया है ।