संसार में जानने को बहुत कुछ है, पर सबसे महत्वपूर्ण जानकारी अपने आप के संबंध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियाँ प्राप्त कर लेना सरल हो जाता है । ज्ञान का आरंभ आत्मज्ञान से होता है । “जो अपने को नहीं जानता वह दूसरों को क्या जानेगा ?
आत्मज्ञान जहाँ कठिन है वहाँ सरल भी बहुत है । दूसरी वस्तुएँ दूर भी है और उनका सीधा संबंध भी अपने से नहीं है । किसी के द्वारा ही संसार में बिखरा हुआ ज्ञान पाया और जाना जा सकता है । पर अपना आपा सबसे निकट है, हम उसके अधिपति है —आदि से अंत तक उस में समाए हुए हैं, इस दृष्टि से “आत्मज्ञान” सबसे सरल भी है । शोध करने योग्य एक ही तथ्य है– आविष्कृत किए जाने योग्य एक ही चमत्कार है– वह है अपना—आपा । जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।
बाहर की चीजों को ढूँढने में मन इसीलिए लगा रहता है कि अपने को ढूँढने के झंझट से बचा जा सके, क्योंकि जिस स्थिति में आज हम हैं उसमें अंधेरा दीखता है और अकेलापन । यह डरावनी स्थिति है । सुनसान को कौन पसंद करता है ? खालीपन किसे भाता है ? अपने को इस विपन्न स्थिति में डालकर स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागते हैं । अपने को देखने खोजने और समझने की इच्छा इसी से नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजों को ढूँढते फिरते हैं, कैसी है यह विडंबना ?
क्या वस्तुत: भीतर अंधेरा है ? क्या वस्तुत: हम अकेले और सूने हैं ? नहीं, प्रकाश का ज्योतिपुंज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर विराजमान है । उसे पाने के लिए आवश्यक है कि मुँह.अपनी और हो । पीठ फेर लेने से तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता और सीमा और हिमालय तथा समुद्र भी दीखना बंद हो जाता है । अपनी और पीठ करके खड़े हो जाएँ तो शून्य के अतिरिक्त और दीखेगा भी क्या ?