अनावश्यक धन संग्रह एक मूर्खता

वैभव को कमाया तो असीम मात्रा में भी जा सकता है, पर उसे एकाकी पचाया नहीं जा सकता । मनुष्य के पेट का विस्तार थोड़ा सा ही है । यदि बहुत कमा लिया गया है तो उस सब को उदरस्थ कर जाने की “ललक-लिप्सा” कितनी ही प्रबल क्यों न हो, पर वह संभव नहीं हो सकेगी । नियत मात्रा से अधिक जो भी खाया गया है, वह दस्त,उल्टी, उदर-शूल जैसे संकट खड़े करेगा, भले ही वह कितना ही स्वादिष्ट क्यों न लगे ?

शारीरिक और मानसिक दोनों ही क्षेत्र, भौतिक पदार्थ संरचना के आधार पर विनिर्मित हुए हैं । उनकी भी अन्य पदार्थों की तरह एक सीमा और परिधि है । जीवित रहने और अभीष्ट कृत्यों में निरत रहने के लिए सीमित ऊर्जा, सक्रियता एवं साधन सामग्री ही अभीष्ट है। इसका उल्लंघन करने की ललक तटबंधों को तोड़कर बहने वाली बाढ़ की तरह अपनी उच्छृखंलता के कारण अनर्थ ही अनर्थ करेगी । उस उन्माद के कारण पानी तो व्यर्थ जाएगा ही, खेत खलिहानों, बस्तियों आदि को भी भारी हानि उठानी पड़ेगी । यों चाहे तो नदी इसे अपने स्वेच्छाचार और अहंकार दर्प-प्रदर्शन के रूप में भी बखान कर सकती है, पर जहाँ कहीं, जब कभी इस उन्माद की चर्चा चलेगी तब उसकी भर्त्सना ही की जाएगी ।

उपयोग की दृष्टि से थोड़े साधनों में भी भली प्रकार काम चल सकता है । पर “अपव्यय” की कोई सीमा मर्यादा नहीं । कोई चाहे तो लाखों के नोट इकट्ठे करके उनमें माचिस लगाकर होली जलाने जैसा कौतूहल करते हुए प्रसन्नता भी व्यक्त कर सकता है, पर इस अपव्यय को कोई भी समझदार न तो सराहेगा और न उसका समर्थन करेगा। बेहद चाटूकार तो कुल्हाड़ियों से अपना पैर काटने के लिए उद्यत अतिवादी की भी हाँ में हाँ मिला सकते हैं ।

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