बॉलीवुड के बेशर्म रंग

‘बेशर्म रंग’ वैसे तो शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण अभिनीत नई फिल्म पठान का एक गीत मात्र है, जिसे लेकर पिछले कई दिनों में कई चर्चाएं हुई हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड का ही रंग ‘बेशर्म’ हो चला है। एक समय था जब फिल्मों को समाज का आईना कहा जाता था, फिल्म बनाने वालों को समाज की नसों की परख थी, काल्पनिक ही सही पर पटकथाएं ऐसी होती थीं जिसपर लोग विश्वास करते थे, उनसे कुछ अच्छी बातें सीखते थे। पर आज की अधिकतर फिल्मों को देखकर तो ऐसा लग रहा है कि इनका सामान्य जनता की भावनाओं से कुछ सम्बंध ही नहीं है बल्कि ये लोग जानबूझकर किसी विशिष्ट एजेंडे के तहत भारतीय समाज की भावनाओं को आहत करने का कार्य कर रहे हैं।

वर्तमान में फिल्म बनाने वालों को ही आईना दिखाने की आवश्यकता आन पड़ी है और अब जब भारतीय समाज वही कर रहा है तो बॉलीवुड का एक धड़ा तिलमिला क्यों रहा है? अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर बॉलीवुड को जो चाहे दिखाने की स्वतंत्रता किसने दे दी? बॉलीवुड यह कैसे समझ बैठा कि भारतीय दर्शकों की भावनाओं को आहत करने के बाद भी उसे वाहवाही मिलेगी? बॉलीवुड यह कैसे भूल गया कि दर्शकों को जो पसंद नहीं आता उसे दर्शक जमीन पर पटकने की ताकत रखते हैं।

अब तक यह सब इसलिए हो रहा था क्योंकि पिछले कुछ सालों में दर्शकों ने भी बॉलीवुड को अपनी भावनाओं से खेलने की स्वतंत्रता दे दी थी। जो बॉलीवुड दिखाता उसे दर्शक अपना लेते। बॉलीवुड ने कॉमेडी के नाम पर हिंदुओं की श्रद्धा को ठेस पहुंचाई, दर्शकों ने हंसकर टाल दिया। बॉलीवुड ने रोमांस के नाम पर अश्लीलता परोसी, दर्शकों ने आंखें बंद कर लीं। बॉलीवुड ने विशिष्ट विमर्श के अंतर्गत मुसलमानों को दिल के साफ, सबकी मदद करनेवाले एक बहुत अच्छे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया, दर्शकों ने बिना सोचे-समझे उसपर विश्वास कर लिया जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर थी। भारतीय दर्शकों की सबसे बड़ी भूल यह हुई कि वे बॉलीवुड को केवलकाल्पनिक मानकर मनोरंजन के उद्देश्य से फिल्में देखते रहे, परंतु बॉलीवुड उन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता रहा।

अब थोड़ी देर से ही सही भारतीय समाज जाग्रत हो रहा है। उसे बॉलीवुड के एक विशिष्ट खेमे का एजेंडा समझ में आने लगा है। वह बॉलीवुड द्वारा परोसी जा रही गलत बातों को नकार रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि जीवन से जुड़ी सभी बातों की ओर देखने का भारतीय समाज का दृष्टिकोण अब बदल रहा है और चूंकि बॉलीवुड भी जीवन से जुड़ा है अत: उसके प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदलना स्वाभाविक ही है। परंतु सम्पूर्ण समाज का दृष्टिकोण बदला कैसे? क्यों एकाएक उसे यह संज्ञान होने लगा कि उसकी भावनाओं से खेला जा रहा है? क्यों अब उसे गलत बातों का प्रतिकार करने की शक्ति मिलने लगी? यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि अब भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रभाव का पुनर्जागरण हो चुका है।

लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में ‘यथा प्रजा तथा राजा’ वाली कहावत चरितार्थ होती है, जनता ही शासनकर्ताओं को चुनती है और उनसे सुरक्षा तथा विकास की अपेक्षा रखती है। अगर भारतीय समाज अपनी संस्कृति, श्रद्धास्थानों और मान्यताओं पर प्रहार होने पर प्रतिकार करता है तो इन शासनकर्ताओं को उन्हें सुरक्षा देनी होगी। वर्तमान में केंद्र में ऐसी सरकार है जो भारतीय समाज की हर प्रकार से सुरक्षा करने हेतु कटिबद्ध है और भारतीय समाज को भी यह विश्वास है कि शासनकर्ताओं द्वारा उसकी भावनाओं को समझा जाएगा। इसी का मिलाजुला रूप हम आज देख रहे हैं कि भारतीय समाज गलत को नकारने की स्थिति में आ चुका है। वह प्रतिकार भी करता है।

दूसरा पक्ष यह है कि इस जाग्रत सांस्कृतिक राष्ट्रभाव का विरोध करनेवाले भी लामबंद हो रहे हैं और उनके लिए भी बॉलीवुड एक सशक्त हथियार है, जिसका परीक्षण उन्होंने इतने वर्षों तक किया और सफल भी रहे। इसीलिए बॉलीवुड भी दो धड़ों में बंटा हुआ दिखाई दे रहा है।

अब जनता की यह जिम्मेदारी है कि वह केवल अंधानुकरण या केवल विरोध के लिए विरोध न करे। ‘बायकॉट बॉलीवुड’ इस समस्या का हल नहीं है। जनता को यह परखना होगा कि जो फिल्म वे देखने जा रहे हैं, उसके निर्माता-निर्देशक, अभिनेता-अभिनेत्री किस विचारधारा का अनुसरण करते हैं, उन्होंने अपनी पुरानी फिल्मों में क्या प्रस्तुत किया था? अब फिल्मों को केवल मनोरंजन का माध्यम मानकर नहीं चलेगा बल्कि उसके माध्यम से समाज में जो विमर्श चलाए जा रहे हैं, उनको समझना आवश्यक होगा तभी उनका विरोध भी किया जा सकेगा।

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