सत्कर्म करने के लिए उच्च स्तर की मनोभूमि चाहिए

“सत्कर्म” अनायास नहीं बन पड़ते । उनके पीछे एक प्रबल दार्शनिक पृष्ठभूमि का होना आवश्यक है । सस्ती नामवरी लूटने के लिए या किसी आवेश में आकर कभी-कभी घटिया स्तर के लोग भी बड़े काम कर बैठते हैं, पर उनमें स्थिरता नहीं होती । यश कामना की पूर्ति भी हर घड़ी नहीं होती रह सकती । न आवेश ही स्थिर रखा जा सकता है । ऐसी दशा में निम्न मनोभूमि के लोग श्रेष्ठ कार्य भी निरंतर नहीं कर सकते । यदि जीवन में दो चार बार ऊपरी मन से कुछ अच्छे काम कर दिए जाएँ और भीतर ही भीतर दुष्प्रवृतियाँ काम करती रहें, तो जीवन में बुराइयाँ ही अधिक होती रहेंगी । “सत्कर्मों” का निरंतर होते रहना और कठिनाई आने पर भी दृढ़ बने रहना तभी संभव है, जब मनोभूमि को उत्कृष्ट स्तर पर विकसित एवं परिपक्व किया जाये । श्रेष्ठ कार्यों और श्रेष्ठ परिस्थितियों से परिपूर्ण वातावरण इन्हीं परिस्थितियों में बन सकता है ।

घृणा, द्वेष, निराशा, चिंता, विक्षोभ, आवेश में आकर कई बार मनुष्य दु:साहस्सपूर्ण कार्य कर डालते हैं । लोभ और मोह के वशीभूत मनुष्य भी कभी-कभी प्राणों की बाजी लगा डालते हैं, पर वे कार्य होते निकृष्ट कोटि के पापपूर्ण ही हैं । प्रतिशोध, हत्या, फौजदारी, आत्महत्या, घर छोड़कर भाग निकलना, अपना सब कुछ लुटा देना जैसे उद्धत कार्य आवेश ग्रस्त लोग करते देखे गए हैं, पर उनका लक्ष्य दूसरों को परेशान करना ही होता है । द्वेषवश ही ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं और उनका प्रतिफल अपने एवं दूसरों के लिए हानिकारक ही होता है ।

संसार में शांति और श्रेष्ठता उत्पन्न करने के लिए त्यागपूर्ण, श्रेष्ठ आदर्श प्रस्तुत करने वाले साहस पूर्ण बड़े काम करने की आवश्यकता रहती है । उन की संभावना तभी बनती है जब व्यक्ति का उद्देश्य उच्च कोटि के आदर्शवाद की प्रेरणाओं से ओतप्रोत बन सके ।

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