“सादगी”, “मितव्ययता” और “सामान्य श्रेणी” का जीवन यापन करने में ही मनुष्य का गौरव है । “सज्जनता” का यही परिधान है। समाज में जब तक यह प्रवृत्ति विकसित न होगी, हम अशांति और असभ्यता की ओर बढ़ते रहेंगे । कहते हैं कि जरूरतों से प्रेरित होकर मनुष्य दुष्कर्म करते हैं, फिर हम इसकी जड़ को ही क्यों न काटें । अपनी जरूरतों को ही सीमित क्यों न करें, जिससे दुष्कर्म करने की आवश्यकता ही न पड़े। संतोषी को सबसे बड़ा सुखी माना गया है । वित्तेषणा पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए यदि हम “सादगी” को अपनी जीवन नीति बना लें और “मितव्ययता” को अपनाकर तृष्णा को निरर्थक अनुभव करने लगें, तो सचमुच अपना जीवन बड़ा सुखी हो सकता है ।
यदि स्वयं सुखी रहना और दूसरों को शांति से रहने देना हमें अभीष्ट हो तो वित्तेषणा को अस्वाभाविक, अनैतिक, अवांछनीय एवं अनुपयुक्त मानना पड़ेगा। यह जब तक हमारे पीछे पड़ी रहती है, तब तक न चैन की साँस लेने का अवसर मिलता है और न दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारे का कोई मार्ग रह जाता है। जिसे निरंतर धन की हाय लगी हुई है, वह सज्जनता और सदाचार का जीवन देर तक नहीं बिता सकता। अवसर आते ही उसका अनीति के मार्ग पर फिसल पड़ना निश्चित है । यह फिसलन ही असभ्यता है । सभ्य समाज की रचना के लिए वित्तेषणा को अपना प्रथम शत्रु मानते हुए “सादगी” “मितव्ययता” और “सज्जनता” की बुद्धि उत्पन्न करनी चाहिए ।