सभ्य समाज का निर्माण ऐसे करेंगे

जिस समाज में लोग एक दूसरे के दु:ख-दर्द में सम्मिलित रहते हैं, सुख संपत्ति को बाँटकर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते, स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं, उसे “देव समाज” कहते हैं । जब जहाँ जनसमूह इस प्रकार पारस्परिक संबंध बनाए रहता है, तब वहाँ स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी रहती हैं । पर जब कभी लोग न्याय-अन्याय का, उचित-अनुचित का, कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार छोड़कर उपलब्ध सुविधा या सत्ता के साधनों का अधिकाधिक उपयोग करने लगते हैं तब क्लेश, द्वेष और असंतोष की प्रबलता बढ़ने लगती है ।

शोषण और उत्पीड़न का बाहुल्य होने से वैमनस्य और संघर्ष के दृश्य दिखाई पड़ने लगते हैं। पाप, दुराचार, अनीति, छल एवं अपराधों की प्रवृत्तियाँ जहाँ पनप रही होगी, वहाँ प्रगति का मार्ग रुक जाएगा और पतन की व्यापक परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगेगी । चातुर्य, विज्ञान एवं श्रम के बल पर आर्थिक स्थिति सुधारी जा सकती है, पर उससे उपभोग के साधन बढ़ सकते हैं । मनुष्य की वास्तविक प्रगति एवं शांति तो पारस्परिक स्नेह-सौजन्य एवं सहयोग पर निर्भर रहती है यदि वह प्राप्त न हो सके तो विपुल साधन-सामग्री पाकर भी सुख शांति के दर्शन दुर्लभ होंगे ।

अच्छे व्यक्तित्व अच्छे समाज में ही जन्मते, पनपते और फलते-फूलते हैं । जिस समाज का वातावरण दूषित तत्वों से भरा होता है उसकी अगली पीढ़ियाँ क्रमशः अधिक दुर्बल एवं पतित बनती चली जाती है । नम्रता, सज्जनता, कृतज्ञता, नागरिकता एवं कर्तव्य-परायणता की भावना से ही किसी का मन ओत-प्रोत रहे, ऐसे पारस्परिक व्यवहार का प्रचलन हमें करना चाहिए। दूसरों के दु:ख-सुख समझें और एक दूसरे की सहायता के लिए तत्परता प्रदर्शित करते हुए संतोष अनुभव करें, ऐसा जनमानस निर्माण किया जाना चाहिए । आदर्शवादी आचरण में एक दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयत्न करें, यह प्रतिस्पर्धा तीव्र की जानी चाहिए। पशु प्रवृत्तियों का उन्मूलन और मानवीय सभ्यता का अभिवर्धन निरंतर होता रहे, ऐसी योजनाएँ प्रचलित करने पर ही नव निर्माण का लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे । “संस्कृति” पर ही “संपन्नता” निर्भर रहती है, यह हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए ।

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