मातृभाषा में न्यायालय के निर्णय अच्छी पहल

आजादी के बाद हर भारतीय का सपना था कि सरकार के सभी अंगों में मातृभाषा के जरिये संवाद हो। सरकारी रीतियां-नीतियां उसकी भाषा में समझ में आने वाली हों। आकांक्षा रही कि आम जनता को न्याय उसकी भाषा में मिले। सवाल पूछा जाना चाहिए कि आम आदमी के हिस्से में आये व्यवस्था के इस अंधेरे के लिये कौन जिम्मेदार है? हमें न्याय और चिकित्सा व दवाइयां हमारी भाषा में क्यों नहीं मिल पातीं? आजादी के बाद से ही आम आदमी के लिए सहज-सरल न्याय उपलब्धता के मार्ग में भाषा एक बड़ी बाधा रही है। देशवासियों की आकांक्षा थी कि जब देश अंग्रेजी दासता से मुक्त होगा तो उन्हें अपनी मातृभाषा के जरिये न्यायिक प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी का अवसर मिलेगा।

निरक्षरता के दंश से जूझते देश में तो यह और भी जरूरी था कि आम लोगों को न्यायिक फैसले मातृभाषा में सहजता से समझ में आ सकें। बहरहाल, आजादी के अमृतकाल में यह खबर सुकून देने वाली है कि अब आदमी को न्यायाल के फैसले हिन्दी व अन्य भाषाओं में मिल सकेंगे। पिछले दिनों मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने न्यायालय के फैसले हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराने की बात कही तो पूरे देश ने इसका स्वागत किया। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस कदम पर सकारात्मक प्रतिसाद दिया। कह सकते हैं आम जनमानस को गणतंत्र दिवस से पूर्व एक सौगात मिली है।

मुख्य न्यायाधीश ने इस बात की घोषणा महाराष्ट्र और गोवा बार काउंसिल के सम्मेलन के दौरान की। उनका मानना था कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद इस अभियान में ली जाएगी, जिससे हिंदी व अन्य भाषाओं में शीर्ष अदालत के निर्णयों का अनुवाद किया जा सके। उल्लेखनीय है कि गत वर्ष मुख्य न्यायाधीश का पद संभालने के बाद न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की कोशिश रही है कि न्याय तक आम आदमी की पहुंच सरल हो। इसी क्रम में उन्होंने यह भी महसूस किया कि आम आदमी की पहुंच में न्याय होने के मार्ग में भाषायी बाधा एक बड़ी चुनौती है। उन्होंने माना कि न्याय अपने उद्देश्य में तभी सार्थक साबित होगा जब वादी-प्रतिवादी की समझ में आने वाली भाषा में फैसले उपलब्ध होंगे।

दरअसल, आजादी के बाद संविधान में उल्लेख किया गया था है कि संसद द्वारा कानून बनाकर अंतिम व्यवस्था देने तक सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्टों की भाषा अंग्रेजी ही रहेगी। विडंबना यह है कि देश की भाषायी जटिलताओं और इससे जुड़ी राजनीति की चुनौती के चलते कोई गंभीर पहल नहीं हो पायी है। वहीं दूसरी ओर यह अच्छी बात है कि न्याय की राह सुगम बनाने में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग किये जाने की बात कही जा रही है, जिससे कालांतर में सूचना अंतर पाटने और भाषायी बाधा को दूर करने में प्रौद्योगिक क्षमता का बेहतर इस्तेमाल भी हो सकेगा। कायदे की बात तो यही है कि जिस भाषा में लोग समझ सकें उसी में न्याय की उपलब्धता होनी चाहिए। दरअसल, जो वादी अंग्रेजी भाषा नहीं जानते, वे इन फैसलों को सही ढंग से नहीं समझ पाते। बहुत संभव है कुछ अधिवक्ताओं को भी ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता होगा। हो सकता है कि कई बार अदालत के आदेश भाषायी गफलत के चलते जटिल स्थिति उत्पन्न कर दें, जो न्याय के वास्तविक उद्देश्य के लिये सुखद स्थिति नहीं कही जा सकती।

हरियाणा में न्यायालयों के आदेश अब हिंदी भाषा में मिल सकेंगे। निस्संदेह, अब फैसले समझने के लिये आम आदमी को माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी। न्याय समझ आना भी न्याय की अपरिहार्य शर्त भी है। हरियाणा सरकार की इस पहल के बाद कम पढ़े-लिखे लोग भी न्यायिक फैसलों को आसानी से समझ सकेंगे। दरअसल, ब्रिटिश व्यवस्था का अनुसरण करती हमारी न्यायिक शब्दावली की अपनी जटिलताएं हैं। जिसे भाषायी बाधा और जटिल बना देती है। आम आदमी को न्यायिक आदेशों को समझने के लिये किसी अनुवादक की जरूरत होती रही है, जिससे उसके न्याय पाने की जद्दोजहद खासी महंगी भी पड़ती है। दरअसल, हरियाणा सरकार ने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के अधीनस्थ न्यायालयों तथा अधिकरणों में हिंदी भाषा के उपयोग के संबंध में हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 2020 की धाराओं के अधीन प्रयोजनों के उपयोग के लिये अधिसूचना जारी की थी। जिसे राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने अनुमोदित कर दिया है। अब ये नियम एक अप्रैल, 2023 से प्रभावी होंगे। जिससे अब न्यायालय के आदेश हिंदी में मिल सकेंगे। निस्संदेह, हरियाणा सरकार की यह पहल आम आदमी की सुविधा के हिसाब से महत्वपूर्ण है। जिस भाषा का लोग आम बोल-चाल में प्रयोग करते हैं यदि उसमें ही उन्हें न्याय मिलने लगे, तो इससे न्याय की सार्थकता सिद्ध होती है। साथ ही न्यायिक प्रक्रिया में वादी-प्रतिवादी सक्रिय रूप से प्रत्यक्षदर्शी बन सकेंगे।

इसी दिशा में राजग सरकार द्वारा इंजीनियरिंग व मेडिकल की पढ़ाई हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में कराने की संस्थागत पहल प्रशंसनीय कदम है। आगे कानून व अन्य शाखाओं में भी इस तरह के प्रयासों की जरूरत होगी। जिसको सफल बनाने में हिंदी भाषी लोगों को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। उच्च शिक्षा व तकनीकी शिक्षा के साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषाओं को सींचने की कोशिश भी स्वागतयोग्य है। निस्संदेह, मातृभाषा में सोचने, लिखने व पढ़ने से छात्रों की मौलिक प्रतिभा का विकास हो सकेगा। उनके प्रगति मार्ग में भाषायी स्पीड ब्रेकर गति न रोक पायेंगे। हिंदी और अन्य भाषाओं की प्रतिष्ठा तभी स्थापित होगी, जब इसको बोलने वाले लोग रचनात्मक भूमिका निभाएंगे।

निस्संदेह, यह हिंदी के लिये महत्वपूर्ण समय है जब सरकारें केंद्र व राज्य स्तर पर इसके प्रचार-प्रसार के लिये प्रयत्नशील हैं। वाकई हिंदी समय की जरूरत भी है। भले ही हिंदी पूरे देश में नहीं बोली जाती है, लेकिन समझी तो जाती है और यही समझ देश को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य कर सकती है। यह स्पष्ट है कि हिंदी का आधार व्यापक है, उसके सरोकारों का दायरा बड़ा है और साथ ही उसकी पहुंच अधिक है। जरूरत हिंदी भाषियों की जागरूकता व सक्रियता की है ताकि हिंदी को व्यावहारिक जगत में प्रतिष्ठा मिल सके। हिंदी ज्ञान, शिक्षा और रोजगार की भाषा बन सके। कुल मिलाकर हिंदी को लेकर कृत्रिम रूप से पैदा किया गया हीनताबोध खत्म होना चाहिए। जिससे कालांतर देश में हिंदी व भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा स्थापित हो सके। तब कहा जा सकेगा कि हिंदी महज निर्धनों, वंचितों व पिछड़ों की ही भाषा नहीं है।

अब सुप्रीम कोर्ट की पहल से करोड़ों लोगों को लाभ मिलेगा। वहीं दूसरी ओर शीर्ष अदालत के निर्णयों का सटीक व बोधगम्य अनुवाद उपलब्ध कराना भी एक चुनौती होगी। ऐसी किसी विसंगति से बचने के लिये जरूरी है कि आधुनिक तकनीक व फुलप्रूफ सॉफ्टवेयर का उपयोग किया जाए। बहरहाल, न्यायपालिका की भारत की भाषायी विविधता का सम्मान करने तथा आम लोगों के सामने आने वाली असुविधा के प्रति संवेदनशील पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। इसके क्रियान्वयन की दिशा में अविलंब पहल भी जरूरी है। इसी तरह बीते साल सितंबर में शीर्ष अदालत ने अपनी संविधान पीठ की सुनवाई की लाइव-स्ट्रीमिंग की शुरुआत करके अदालती कार्यवाही को सावर्जनिक क्षेत्र में लाने का सार्थक प्रयास किया था। मुख्य न्यायाधीश का मानना था कि इससे कानून के शिक्षकों व छात्रों को कानून की शिक्षा के मुद्दों पर चर्चा करने में मदद मिलेगी। साथ ही वे अदालती कामकाज के व्यावहारिक पक्षों से भी अवगत हो सकेंगे। यही वजह है कि प्रधानमंत्री व केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की पहल पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है।

– डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी

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