हिंदुत्व का सुमेरु

 

नटसम्राट’ नामक मराठी नाटक में अप्पा      एवं कावेरी का एक भावस्पर्शी संवाद है, जिसमें जहाज तथा बंदरगाह के आपसी रिश्तोें के अपनेपन और उसके जीवन में आने वाले उतार- चढ़ावों का वर्णन है। माननीय अशोक जी सिंघल, संघ तथा विश्व हिंदू परिषद के लिए बंदरगाह के रूप में बड़ी उपलब्धि थे कार्यकर्ता रूपी जहाज के लिए। जहाज अपना लंगर उठाकर सात समुद्र की यात्रा के लिए निकल पड़ता है। यह समुद्र है कला का, व्यवहार का, ध्येय का, प्रेम का, और कहीं-कहीं द्वेष का भी। इस दरिया में उतर कर वह दूर के किनारों को देखता है, तूफान से मुकाबला करता है, चांद चांदनी से रिश्ते बनाता है, ऊंची उठती लहरों की मस्ती को आत्मसात करता है। ऐसा जीवन जीता है, जहां पग-पग पर मृत्यु का सामना हो, पर इन सारी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए यह जहाज लगातार अपने बंदरगाह की ओर देखते रहता है। कभी हार के जख्मों के साथ तो कभी जीत की ध्वजा हाथ में लिए, वह फिर अपने बंदरगाह की ओर आता है। वहां के हरे नीले प्रकश में जल शैया पर निश्चित होकर आराम करता है, जहाज को पराक्रम की प्रशंसा तथा पराजय के बाद सांत्वना भी उसी बंदरगाह से मिलती है।

माननीय अशोक जी की संगठन में भूमिका जीवन भर इसी प्रकार की रही। कार्यकर्ता रूपी जहाज को उन्होंने हमेशा उचित मार्गदर्शन दिया। वे भटके नहीं इसके लिए जरूरत पड़ने पर नेतृत्व अपने हाथ में लिया। कार्यकर्ता राष्ट्रीय धारा के बाहर न जाने पाए, दिशाहीन न होने पाए इसकी सावधानी निरंतर रखते थे। अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने हिंदुत्व के विजय अश्व को पूरी दुनिया में दौड़ाया। जमीनी कार्यकर्ताओं में विश्वास का संचार करने वाले व्यक्ति, यानी अशोक जी। अशोक जी यानी, हिंदुत्व को जीवन निष्ठा के रूप में स्वीकार कर उसके लिए स्वयं के जीवन को धधकता होम कुण्ड बनाने वाली समिधा! श्री राम जन्मभूमि आंदोलन को जन आंदोलन का स्वरूप देनेवाले आक्रमक नेता अर्थात अशोक जी।

देशभर में गांव देहात तथा वनवासी क्षेत्रों के करोड़ों लोग निरक्षर हैं, उन तक शिक्षा के साथ साथ संस्कार पहुंचना आवश्यक है। उसके लिए प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालय, रात्रि पाठशाला, संस्कृत पाठशाला, एकल विद्यालयों, ग्रंथालयों-वाचनालयों के माध्यम से अपनी प्राचीन परम्पराओं के प्रति अभिमान का जागरण करते हुए आधुनिक ज्ञान विज्ञान की शिक्षा की योजना कार्यान्वित की। १९८२ में इन विविध आयामी शिक्षा प्रकल्पों के लिए जो संकल्प लिया गया वह आज कार्यरूप में सबके सामने है। इसका श्रेय अशोक जी को ही है।

अशोक जी मूलत: प्रयाग अर्थात इलाहाबाद के हैं। घर का वातावरण सुसंस्कृत एवं आर्थिक रूप से समृद्ध था। सभी भाइयों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। स्वयं अशोक जी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धातु शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करते समय ही संघ के कार्यकर्ता बन गए। २४ वर्ष की आयु में सन १९५० में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण होते ही वे संघ के प्रचारक हो गए। एक तकनीक विशेषज्ञ, शास्त्रीय संगीतकार, गीतकार एवं संघ के प्रवाह के साथ कैसे प्रवाहित हो गया यह उनके स्वयं के लिए भी आश्चर्यजनक था। १९४२ से १९८२ तक से हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रांतों में प्रचारक के दायित्व का निर्वाह करते हुए संघकार्य में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। १९८२ में उन्होंने विश्व हिंदू परिषद के संयुक्त महामंत्री के रूप में अपना कार्य प्रारम्भ किया। गौ माता, गंगा माता, सेवा, आदिवासी क्षेत्र में एकल विद्यालय जैसे कई कार्य उन्होंने शुरू किए, उनका मार्गदर्शन किया। जर्मन, जपान, अफ्रीका, वेस्ट इंडिज, अमेरिका आदि देशों का प्रवास करते हुए संगठन के अखंड कार्य में लगे रहे। निधन के पूर्व भी वे एक महीने तक अमेरिका के प्रवास पर रहे। उनके सहयोगी चम्पतराय जी ने आराम की सलाह दी तो अशोक जी ने जवाब दिया, गुरूजी ने एक बार बताया यह मन की दशा है। आज श्री गुरुजी भी नहीं हैं और उनके शब्दों को सार्थक करने वाले अशोक जी भी नहीं रहे। श्री गुरुजी का अशोक जी पर बड़ा प्रभाव था। उन्हें कई बार श्री गुरुजी का सान्निध्य प्राप्त हुआ। उत्तर प्रदेश के प्रवास में वे हमेशा गुरुजी के साथ रहते थे। अशोक जी अध्यात्मिक शक्ति के धनी थे। श्री गुरुजी ने उन्हें परखा। एक बार श्री भानुजी (पांचजन्य के संपादक) ने एक वरिष्ठ प्रचारक को एक संस्मरण सुनाया। उसे यहां लिखना उचित होगा। श्री गुरुजी अभी-अभी बीमारी से उठ कर चलने फिरने लगे थे। उनके साथ भानुजी भी थे। भानुजी ने गपशप के दौरान पूछा कि आपके बाद आपकी आध्यात्मिक विरासत को कौन चलाएगा? तब श्री गुरुजी ने श्री अशोक सिंघल का नाम लेकर उनकी आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास व्यक्त किया था। इसका अनुभव अनेक कार्यकर्ताओं को अशोक जी के सान्निध्य में आया।

अशोक जी तथा राम जन्मभूमि यह समीकरण अंत तक बना रहेगा। राम मंदिर उनके जीवन का अविभाज्य अंग था।

उनके द्वारा पिछले दिनों मुंबई प्रवास के दौरान दिया गया यह मार्गदर्शन बड़ा मूल्यवान है। उन्होंने बताया, ‘‘जिस स्थान को हमने मुक्त किया है वह प्रभु रामचंद्र की जन्मभूमि है। वह हिंदू समाज की अस्मिता का प्रतीक है। उसे अधिक समय तक इस प्रकार ताड़पत्री के आवरण में रखना ठीक नहीं। उसका भव्य मंदिर के रूप में रूपांतर होना चाहिए। हिंदुओं को संकल्प के साथ उसके निर्माण कार्य में लग जाना चाहिए।’’ यह उनका अंतिम मार्गदर्शन होगा ऐसा नहीं लग रहा था। ८९ वर्ष की आयु में शरीर साथ नहीं दे रहा था, पर उनकी वाणी में कहीं उनकी अस्वस्थता दिखाई नहीं दे रही थी। कोई युवा भी शरमा जाए ऐसा जोश और विश्वास अशोक जी का था।

अयोध्या की ७७ की लड़ाई का नेतृत्व जी अशोक जी ने किया। इसमें  वे इतने चमके कि मीडिया ने उन्हें जननायक घोषित कर दिया। अशोक जी ने इस अंदोलन के लिए अपना खून पसीना एक कर दिया। अखिर ३० अक्टूबर को उन्हें यश प्राप्त हुआ। इतनी लगन व आत्मविश्वास के साथ आंदोलन चलाने वाला ऐसा नेतृत्व यदाकदा ही प्राप्त होता है। स्वतंत्रता आंदोलन की तरह ही रामजन्म भूमि आंदोलन में भी नेतृत्व की तीव्र इच्छाशक्ति तथा अनुयायियों की प्रचंड सहभागिता परिलक्षित हुई। इस आंदोलन के कारण भारतीय इतिहास का एक कलंक धुल गया। आक्रमणकारियों के एक भी निशान को शेष नहीं रहने दिया गया। इस शूर सेनापति ने समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर इस निर्णायक मुद्दे का नेतृत्व किया। जिस प्रकार राम ने मनुष्येत्तर वानरों को साथ लेकर लंका पर विजय की उसी प्रकार कार सेवा करने के लिए भाषा, पंथ, गरीब, अमीर, नगरवासी, ग्रामवासी, हरिजन, गिरीजन, किसान, मजदूर आदि सभी प्रकार के लोगों को तथा सम्पूर्ण भारत के साधुसंतों को इस आंदोलन के साथ जोड़ा, यही अशोक जी की पूरे जीवन की पूंजी थी। दुनिया इस संग्राम को अचरज के साथ देख रही थी। जिन लोगों को यह लग रहा था कि इस विवाद के कारण देश में जाति विद्वेष बढ़ेगा तथा देश की एकता अखंडता को खतरा होगा, उन लोगों को कारसेवा से सटीक उत्तर मिला। बिना रक्त बहाए ढांचे को जमीन में मिला दिया।

अशोक जी का चिंतन बहुत गहरा था। वे किसी भी समस्या पर सतही विचार नहीं करते थे। समस्या के पीछे के कारणों की भलीभांति जांच करते थे। कट्टर मुस्लिम मानसिकता की अशोक जी समय-समय पर अपने कार्यों या विचारों से अच्छी खबर लेते थे। उन्होंने इस बात की ओर लक्ष्य करते हुए कहा कि ‘‘भविष्य में इस देश में मुसलमान आक्रामक के रूप में रह नहीं सकेंगे। किसी स्थान पर मुस्लिम संख्या बढ जाए तो वह स्थान संवेदनशील कैसे बन जाता है? यदि मुस्लिम समाज को सहिष्णुता की समझ नहीं है तो उन्हें सीखनी पडेगी।‘‘

मनुष्य की मृत्यु अटल है यह उन्हें ज्ञात था, परंतु दास बनकर जिन्दा रहना उन्हें स्वीकार नहीं था। इसके बजाय दासत्व के विरुद्ध लड़ते-लड़ते उन्हें मृत्यु स्वीकार थी। इसीलिए उन्होंने धर्मद्रोही सत्ताधीशों के साथ कड़े संघर्ष के मार्ग का चयन किया। इस रास्ते पर जगह-जगह मृत्यु अपना जाल बिछाए बैठी थी, उसको भी धत्ता बता कर उन्होंने विजय प्राप्त की। अशोक जी हमारे बीच नहीं रहे! राम जन्मभूमि पर अपनी आवाज बुलंद करने वाला ८९ वर्षीय हिंदू हृदय सम्राट अपने जीवन से विदा लेते हुए श्री राम के चरणों में स्थिर हो गया। अशोक जी नहीं रहे, एक युग का अंत हो गया! परंतु श्रीराम मंदिर का संकल्प को पूरा करना शेष है, अब इस संकल्प को सभी हिंदुओं को लेना पड़ेगा, यही अशोक जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

उनकीइस पावन स्मृति को विनम्र अभिवादन!

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